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Written By BBC Hindi
Last Updated : बुधवार, 27 अप्रैल 2022 (19:54 IST)

हनुमान चालीसा विवाद : क्या नवनीत राणा बीजेपी और शिवसेना के लिए राजनीतिक मोहरा हैं?

हनुमान चालीसा विवाद : क्या नवनीत राणा बीजेपी और शिवसेना के लिए राजनीतिक मोहरा हैं? - Is Navneet Rana a political pawn for BJP and Shiv Sena
- अनंत प्रकाश
मुंबई के एक सेशन कोर्ट ने बीते मंगलवार नवनीत राणा और रवि राणा की ज़मानत याचिका पर मुंबई पुलिस को 29 अप्रैल तक अपना जवाब दाखिल करने को कहा है। अमरावती से सांसद नवनीत राणा और बडनेरा से विधायक उनके पति रवि राणा ने कुछ दिन पहले महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के निजी आवास मातोश्री के सामने हनुमान चालीसा पढ़ने का ऐलान किया था।

इसके बाद मुंबई पुलिस ने बीती 23 अप्रैल को नवनीत राणा एवं रवि राणा को गिरफ़्तार किया। और इन दोनों राजनेताओं के ख़िलाफ़ देशद्रोह की धारा 124 A और 153A समेत कुछ अन्य धाराओं के साथ केस दर्ज किया गया है। इसके बाद से महाराष्ट्र में बीजेपी और शिवसेना के बीच एक गंभीर राजनीतिक टकराव शुरू हो चुका है। महाराष्ट्र में दोनों पक्षों के नेताओं की ओर से आक्रामक बयानबाज़ी का सिलसिला जारी है।

समाचार एजेंसी एएनआई के मुताबिक़, महाराष्ट्र के उप मुख्यमंत्री अजीत पवार ने कहा है कि अगर आपको हनुमान चालीसा पढ़नी है तो घर में पढ़ें। क्या आपके पास घर नहीं हैं? कई लोग माहौल ख़राब करने की कोशिश कर रहे हैं।

वहीं पूर्व मुख्यमंत्री और महाराष्ट्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष देवेंद्र फडणवीस ने इस मामले पर कहा है- हनुमान चालीसा महाराष्ट्र में नहीं बोली जाएगी तो क्या पाकिस्तान में बोली जाएगी। इन्हें हनुमान चालीसा से इतनी नफ़रत क्यों है।

नवनीत राणा के ख़िलाफ़ कार्रवाई का विरोध करते हुए फडणवीस ने कहा, इतना ही नहीं, एक महिला को पस्त करने के लिए हज़ारों लोगों को इकट्ठा किया जाता है। उनके घर में पुलिस भेजकर उन्हें गिरफ़्तार किया जाता है। आश्चर्य की बात ये है कि उन पर देशद्रोह का आरोप लगाया जाता है।

अगर हनुमान चालीसा बोलना देशद्रोह होगा तो हममें से हर व्यक्ति ये राजद्रोह करेगा। हम सारे लोग हनुमान चालीसा बोलेंगे। अगर सरकार में हिम्मत है तो सरकार हम पर देशद्रोह का केस लगाकर दिखाए। वहीं गिरफ़्तारी के बाद नवनीत राणा ने मुंबई पुलिस पर उनके साथ जातिगत आधार पर दुर्व्यवहार करने का आरोप लगाया है। हालांकि मुंबई पुलिस के कमिश्नर ने इस दावे के ख़िलाफ़ एक वीडियो जारी किया है जिसमें नवनीत राणा चाय पीती हुई दिख रही हैं।

नवनीत राणा के वकील रिजवान मर्चेंट ने मुंबई पुलिस द्वारा जारी वीडियो पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि उनके मुवक्किल के साथ दुर्व्यवहार से जुड़ी शिकायत शांताक्रुज़ पुलिस स्टेशन से जुड़ी है और चाय उन्हें खार पुलिस स्टेशन में दी गई थी।

लेकिन इन तमाम आरोप-प्रत्यारोप के बीच सवाल ये है कि नवनीत राणा को लेकर बीजेपी और शिवसेना आमने-सामने क्यों हैं और दोनों पार्टियां इस संघर्ष से क्या हासिल करना चाहती हैं?

बीबीसी ने द नेशनल हेराल्ड की मुंबई एडिटर सुजाता आनंदन और राजनीतिक विश्लेषक अश्विन अघोर से बात कर 3 प्रमुख सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की है।

क्या नवनीत राणा एक राजनीतिक मोहरा बन रही हैं?
महाराष्ट्र में जारी हनुमान चालीसा विवाद में पहला सवाल ये उठता है कि क्या अमरावती से सांसद नवनीत राणा बीजेपी और शिवसेना के बीच साल 2019 से जारी राजनीतिक संघर्ष में एक नया मोहरा हैं।

बाला साहब ठाकरे और महाराष्ट्र की राजनीति पर कई किताबें लिख चुकीं द नेशनल हेराल्ड की मुंबई एडिटर सुजाता आनंदन मानती हैं कि बीजेपी नवनीत राणा को एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल कर रही हैं।

वह कहती हैं, नवनीत राणा के ख़िलाफ़ जाली प्रमाण पत्रों को लेकर एक मामला चल रहा है। मुंबई पुलिस ने इस मामले में जांच भी की है और सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर दो हफ़्तों के अंदर सुनवाई करने वाली थी, जिसे अब टाल दिया गया है।

नवनीत राणा एनसीपी के समर्थन से एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में शिवसेना के चार बार के सांसद आनंदराव अडसूळ को हराने में सफल हुई थीं। लेकिन अब वह बीजेपी के हाथ में मोहरा बन गई हैं। उन्होंने हनुमान चालीसा वाली बात राज ठाकरे के साथ शुरू की। राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बीच राजनीतिक मतभेद जितने भी हैं लेकिन उनके आपसी रिश्ते बहुत अच्छे हैं। ऐसे में वो तो मातोश्री जाकर हनुमान चालीसा पढ़ने से तो रहीं।

तो बीजेपी को एक और मोहरा चाहिए था, विशेषकर फडणवीस को। क्योंकि वह मुख्यमंत्री बनने के लिए बहुत बेताब हैं और वह किसी न किसी का इस्तेमाल करते हैं। वे चाहते हैं कि महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लग जाए जिसके बाद वह एक बार फिर मुख्यमंत्री बनकर आएं। वे शिवसेना को माफ़ नहीं कर पा रहे हैं।

नवनीत राणा अमरावती से हैं जो कि विदर्भ में है। देवेंद्र फडणवीस नागपुर विदर्भ से हैं और उनके कई रिश्तेदार अमरावती से हैं। ऐसे में उनके बीच कोई न कोई कनेक्शन तो बनता है। ऐसे में उन्होंने नवनीत राणा को मोहरा बनाया है। चूंकि नवनीत के पास कोई चारा नहीं है। क्योंकि अगर वो बीजेपी का समर्थन नहीं लेती हैं तो उन्हें जाली प्रमाण पत्रों के मामले में जेल जाना पड़ेगा।

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने भी बीते मंगलवार महाराष्ट्र सरकार से राणा की गिरफ़्तारी और उनके साथ हुए कथित अमानवीय व्यवहार पर तथ्यात्मक रिपोर्ट मांगी है।

लेकिन सवाल ये उठता है कि बीजेपी इस विवाद से क्या हासिल करना चाहती है। क्योंकि ये पहला मौका नहीं है जब बीजेपी और शिवसेना इस तरह से आमने-सामने आई हो। इससे पहले कंगना रनौत के मामले में भी दोनों पार्टियां एक-दूसरे के सामने आ चुकी हैं और इस मुद्दे पर सड़क से लेकर टीवी चैनलों पर हाई वोल्टेज़ तनातनी देखने को मिल चुकी है।

हनुमान चालीसा विवाद से बीजेपी क्या चाहती है?
महाराष्ट्र की राजनीति को समझने वाले राजनीतिक विश्लेषक अश्विन अघोर मानते हैं कि बीजेपी के इस रुख की वजह आगामी बीएमसी चुनाव हैं।

वे कहते हैं, बीजेपी और शिवसेना में 2019 के बाद से संघर्ष जारी है जब शिवसेना ने बीजेपी का साथ छोड़कर एनसीपी और कांग्रेस के साथ सरकार बना ली थी और अब बीएमसी चुनाव सिर पर है। इसे ध्यान में रखते हुए दोनों दल अपनी-अपनी ज़मीन तैयार करने में लगे हुए हैं।

अब इसमें हो ये रहा है कि नवनीत राणा भले ही एनसीपी के समर्थन से चुनाव जीती हों, लेकिन आज उन्होंने हनुमान चालीसा का जो मुद्दा उठाया है, उसमें बीजेपी अपना राजनीतिक फायदा देखते हुए उन्हें समर्थन दे रही है। कल तो देवेंद्र फडणवीस ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके उनके समर्थन में बयान दे दिया है। ऐसे में ये तो निश्चित है कि ये बीएमसी चुनावों के लिए किया जा रहा है और आने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए भी इसका फायदा उठाने की कोशिश की जाएगी।

लेकिन बीजेपी नेता देवेंद्र फडणवीस ने जिस तरह नवनीत राणा की गिरफ़्तारी का विरोध करते हुए पाकिस्तान का ज़िक्र किया है, उससे सवाल उठता है कि क्या बीजेपी हनुमान चालीसा विवाद से सिर्फ बीएमसी चुनाव में अपने लक्ष्य हासिल करना चाहती है या बात इससे आगे भी जाती है।

क्या ये संघर्ष हिंदुत्व वोट बैंक का भी है?
अश्विन अघोर इस सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं कि ये बात सिर्फ बीएमसी चुनाव से जुड़ी नहीं है। वे कहते हैं, किसी जमाने में शिवसेना एक कट्टर हिंदुत्ववादी पार्टी हुआ करती थी। और उसके नेता बाला साहेब ठाकरे की राष्ट्रीय छवि एक कट्टर हिंदुत्ववादी नेता वाली थी।

लेकिन महाविकास अघाड़ी सरकार में शामिल होने के बाद से शिवसेना के लिए कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीति करना थोड़ा मुश्किल हो गया है। मौजूदा स्थितियों में अगर वह कट्टर हिंदुत्ववादी राजनीति करेगी तो महाविकास अघाड़ी सरकार में उसके सहयोगी उससे अलग जा सकते हैं।

ऐसे में शिवसेना ने इस सरकार में शामिल होकर अपना रास्ता बदल लिया है। अब यह हिंदुत्व से हटकर सेकुलर पॉलिटिक्स की ओर बढ़ रही है। लेकिन शिवसेना हिंदुत्ववादी राजनीति को पूरी तरह छोड़ भी नहीं पा रही है। ऐसे में बीजेपी शिवसेना की इसी दुविधा का फायदा उठाकर हिंदुत्ववादी राजनीति पर एकाधिकार स्थापित करके बीएमसी चुनाव में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने की कोशिश में दिख रही है।

हालांकि सुजाता आनंदन मानती हैं कि ये संघर्ष हिंदुत्व वोट बैंक पर एकाधिकार से जुड़ा नहीं है, बल्कि मूल रूप से एक सत्ता संघर्ष है।

वे कहती हैं, उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र विधानसभा में ये ऐलान कर चुके हैं कि धर्म को राजनीति से मिलाना उनकी पार्टी की एक बड़ी ग़लती थी और उनकी पार्टी अब हिंदुत्व के मुद्दे से काफ़ी आगे बढ़ चुकी है। ऐसे में मेरे हिसाब से ये संघर्ष हिंदुत्व वोट बैंक के लिए नहीं है, बल्कि मूल रूप से पावर प्ले है।

और मैं ये इस आधार पर कह रही हूं कि महाराष्ट्र में हिंदुत्व वोट बैंक इतना गहरा और व्यापक नहीं है। क्योंकि बीजेपी ने जब 80 के दशक में बाल ठाकरे के साथ गठबंधन किया था तो वो इसीलिए किया था क्योंकि महाराष्ट्र में हिंदुत्व वोट बैंक इतना बड़ा और इतना गहरा नहीं है।

लेकिन सवाल उठता है कि क्या शिवसेना के अन्य नेताओं और कार्यकर्ताओं ने इस नए राजनीतिक रुख को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है।

अघोर मानते हैं कि उद्धव ठाकरे ने शिवसेना की राजनीति को एक नई दिशा ज़रूर दी है कि लेकिन ये कहना अभी जल्दबाज़ी होगी कि पूरी पार्टी ने इस नई राजनीतिक विचारधारा को स्वीकार कर लिया है। वे दावा करते हैं कि शिवसेना के कई बड़े नेता संजय राउत की आक्रामक बयानबाज़ी के समर्थन में नहीं हैं।

अपनी बात को विस्तार देते हुए अघोर कहते हैं कि इसका उदाहरण मातोश्री के बाहर शिवसेना की ओर से इकट्ठा हुए लोग हैं। इस भीड़ में बड़े जनाधार वाले नेता नहीं थे। और बीजेपी इस दरार को बड़ा करना चाहती है क्योंकि उसे आगामी विधानसभा चुनाव में इसका फायदा मिल सकता है। 2019 में शिवसेना 130 सीट पर चुनाव लड़ी थी जिसमें से उसे 54 सीटें मिलीं। लेकिन जिन सीटों पर उसे हार मिली है, उनमें एनसीपी या कांग्रेस ने उसे हराया है।

2024 में जब चुनाव आएंगे तो न तो कांग्रेस और न ही एनसीपी अपनी जगह छोड़ेगी। अभी उपचुनाव में कोल्हापुर उत्तर की सीट शिवसेना की थी, लेकिन उसे वह कांग्रेस को देनी पड़ी। इसी तरह देगलूर बिलोली में भी यही हुआ, ये सीट भी शिवसेना की थी और कांग्रेस को देनी पड़ी।

ऐसे में इसकी वजह से शिवसेना में आंतरिक असंतोष है और जो लोग हारे थे, वो छोटे नेता नहीं थे। ऐसे में अगर उन्हें टिकट नहीं मिलेगा तो उनका राजनीतिक भविष्य ख़त्म हो जाएगा। ऐसे में ये लोग बीजेपी में जा सकते हैं।
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