शुक्रवार, 27 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. gorakhpur seat
Written By
Last Modified: सोमवार, 13 मई 2019 (11:24 IST)

लोकसभा चुनाव 2019: गोरखपुर में बीजेपी के रवि किशन को हराएंगे या जिताएंगे निषाद वोटर?

लोकसभा चुनाव 2019: गोरखपुर में बीजेपी के रवि किशन को हराएंगे या जिताएंगे निषाद वोटर? - gorakhpur seat
- कुलदीप मिश्र (गोरखपुर से)
 
कभी-कभी भगवान को भी भक्तों से काम पड़े
जाना था गंगा पार प्रभु, केवट की नाव चढ़े...
 
गोरखपुर में एक निषाद बहुल इलाक़े की एक दुकान पर राम का यह भजन बज रहा है। हिंदू मान्यता के अनुसार, केवट ने राम, सीता और लक्ष्मण को अपनी नाव में बैठाकर गंगा पार कराई थी। वहीं केवट जिन्हें निषाद समाज के लोग आराध्य मानते हैं और उन्हें 'निषादराज केवट' कहते हैं।
 
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इसी हफ़्ते इलाहाबाद की एक रैली में निषादराज केवट की एक विशाल प्रतिमा बनाने का ऐलान किया है। ज़िले के निषाद तीर्थ श्रृंगवेरपुर में 80 फुट ऊंची यह प्रतिमा 34 करोड़ की लागत से बनाई जाएगी।
 
निषाद वोटों का असर पूर्वी उत्तर प्रदेश की कई सीटों पर है लेकिन प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कर्मभूमि गोरखपुर में इस जाति के वोटों को लेकर कौतुहल सबसे अधिक है। 
 
2018 में हुए उपचुनाव में भाजपा ने ये सीट गंवा दी थी और सपा-बसपा और निषाद पार्टी के संयुक्त प्रत्याशी प्रवीण निषाद विजयी हुए थे। लेकिन इस बार मामला थोड़ा पेंचीदा है क्योंकि निषाद पार्टी ने चौंकाते हुए भाजपा का दामन थाम लिया है। मुक़ाबला भोजपुरी फ़िल्मों के अभिनेता और भाजपा नेता रवि किशन शुक्ल, सपा-बसपा गठबंधन के रामभुआल निषाद और कांग्रेस के मधुसूदन तिवारी के बीच है।
 
एक अनुमान के मुताबिक़ गोरखपुर लोकसभा में निषाद वोटरों की संख्या कम से कम साढ़े तीन लाख है। निषाद समाज के नेता इसे साढ़े चार लाख तक बताते हैं। ज़ाहिरन इन आंकड़ों का कोई प्रमाण नहीं है लेकिन इसमें संशय नहीं कि निषादों का रुख़ इस सीट पर जीत और हार तय कर सकता है।
 
इसलिए गोरखपुर में इस वक़्त सबसे मौजूं सवाल है कि निषाद वोटर अपनी पारंपरिक पार्टी के असर से भाजपा के साथ जाएगा या अपने सजातीय सपा-बसपा गठबंधन उम्मीदवार को चुनेगा?
 
निषादों में राजनीतिक चेतना
गोरखपुर में निषाद राजनीति में पहले से सक्रिय रहे हैं। मंडल राजनीति के बाद से यहां दो बड़े निषाद नेता उभरे। योगी के ख़िलाफ़ कई लोकसभा चुनाव लड़ चुके जमुना निषाद और दो बार विधायक और प्रदेश सरकार में मंत्री रहे रामभुआल निषाद।
 
उसी बीच एक अहम घटना और हुई। डेढ़ दशक पहले यहां कटका गांव में एक संघर्ष में एक निषाद युवक की मौत हो गई थी, जिसके बाद बड़े स्तर पर निषादों ने विरोध प्रदर्शन किए थे। इस घटना को इलाक़े में निषाद बनाम क्षत्रिय की अदावत का प्रस्थान बिंदु माना जाता है।
 
निषाद राजनीतिक रूप से आगे आ रहे थे लेकिन उन्हें पहले से स्थापित पार्टियों में ही प्रतिनिधित्व मिलता था। पर इस कहानी में ट्विस्ट आया जब साल 2016 में इलेक्ट्रो होम्योपैथी की क्लीनिक चलाने वाले डॉ. संजय निषाद ने नई पार्टी बनाई- निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल।
 
अंग्रेज़ी में इसका संक्षिप्तीकरण करते हुए इसे उन्होंने इसे नाम दिया- NISHAD पार्टी। एक अलग पार्टी और एक अलग झंडे के बैनर तले उन्होंने निषादों की राजनीतिक चेतना को एक स्वतंत्र रूप देने की कोशिश की और इसका प्रसार बिंद, धीमर, मल्लाह और साहनी उपनाम वाली जातियों तक किया।
 
स्थानीय पत्रकार मनोज सिंह के मुताबिक़, "उन्होंने निषादों के बीच पुस्तिकाएं बंटवाईं। उनसे कहा कि ये इलाक़ा निषादों का रहा है, वे यहां के राजा रहे हैं और उनका एक गौरवशाली इतिहास है। निषाद एक संस्कृति और सभ्यता है।"
 
इतना ही नहीं, उन्होंने गोरखपुर मठ पर निषादों का अधिकार बताकर भाजपा के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी कर दी।
 
मनोज सिंह बताते हैं, "उन्होंने ये भी प्रचारित किया कि गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) मछली के पेट में रहे थे। इस दौरान उनका लालन-पालन निषादों ने किया। इसलिए वो निषाद विरासत के प्रतिनिधि थे और इस लिहाज़ से यहां के गोरक्षनाथ मठ पर क्षत्रियों का नहीं, निषादों का हक़ है। हालांकि इन बातों का ऐतिहासिक परीक्षण होना अभी बाक़ी है लेकिन निषाद वोटरों के मानस पर इसका असर पड़ा।"
 
इस तरह निषादों में एक ऐसी चेतना बनी जो यहां के मौजूदा मठ प्रबंधन के ख़िलाफ़ थी। वह मठ, जिसके बीते तीन महंत क्षत्रिय रहे थे और जिनके कार्यकाल में मठ का रुझान नाथ संप्रदाय की समावेशी धारा से खिसककर सनातन हिंदुत्व की ओर होने लगा था।
 
और फिर संजय निषाद ने इस जाति के वोटरों को सीधे प्रभावित करने वाला मुद्दा उठाया। उन्होंने मांग की कि निषाद समाज की सभी उपजातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए। अभी कुछ निषाद उपजातियों को ही अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त है। यही मांग निषाद राजनीति की मुख्य मांग बन गई।
 
पत्रकार मनोज सिंह के मुताबिक, "इन्हीं संजय निषाद ने भाजपा को मनुवादी और ब्राह्मणवादी पार्टी कहा था। लेकिन जब राजनीतिक चेतना बनती है तो वो वैक्यूम में नहीं जाती। अब निषाद वोटर के लिए ये समझना मुश्किल होगा कि वो आज संजय निषाद के कहने पर भाजपा को वोट क्यों दे दें?"
 
निषाद पार्टी और भाजपा का बेमेल विचार
संजय निषाद के भाजपा में जाने पर यहां के पुराने निषाद नेता और गठबंधन उम्मीदवार रामभुआल निषाद एक 'डील' का हिस्सा बताते हैं। वो कहते हैं, "आप सोचिए कि संजय निषाद अस्पताल में पड़े अपने लोगों को छोड़कर उसी भाजपा से जाकर मिल गए, जिसने उन पर लाठी चार्ज करवाया। ऐसे व्यक्ति की अब निषाद समाज में क्या प्रासंगिकता रह गई है?"
11 मई को गोरखपुर में अपनी रैली में सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी संजय निषाद पर आरोप लगाते हुए कहा, "लोग कह रहे हैं कि उन्हें मठ से प्रसाद मिल गया है।"
 
संजय निषाद ये कहकर निषादों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं कि वो आरक्षण और सत्ता में निषादों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए भाजपा के साथ आए हैं, क्योंकि सत्ता उसी के पास है।
 
अखिलेश यादव के बयान पर संजय निषाद ने बीबीसी से कहा, "मठ से प्रसाद तो मिला है और वो प्रसाद है आरक्षण। मेरा मुद्दा तो सरकार ही हल कर सकती है। विपक्ष नहीं कर सकता। मेरी अमित शाह, जेपी नड्डा और महेंद्रनाथ पांडे से बात हो गई है। निषादों के आरक्षण पर रुका हुआ शासनादेश चुनाव बाद लागू होने का आश्वासन मिला है।"
 
संजय निषाद ने भाजपा से गठबंधन के साथ ही उन्होंने निषाद और क्षत्रियों की पुरानी अदावत को भी भुला दिया है और मठ पर निषादों के हक़ का स्वर भी उन्होंने मद्धम कर लिया है।
 
वह कहते हैं, "वे थल क्षत्रिय हैं और हम लोग जल क्षत्रिय हैं। दोनों साथ हैं। हम तो मठ का धन्यवाद करते हैं कि उनके साहित्य की वजह से हमें मत्स्येंद्रनाथ जी के बारे में पता चला। हमारी विरासत को मठ ने सहेजकर रखा है।"
 
निषाद वोटरों का रुख़
निषाद पार्टी को भाजपा से गठबंधन करके पड़ोस की संतकबीर नगर सीट मिली है। साल भर पहले गोरखपुर में योगी का किला ध्वस्त करने वाले प्रवीण निषाद यहां से कमल के निशान पर चुनाव लड़ रहे हैं। 12 मई तक संजय निषाद और उनके ज़्यादातर कार्यकर्ता संतकबीरनगर में ही लगे रहे जिसका यह संदेश भी गया कि गोरखपुर निषाद पार्टी की प्राथमिकता में नहीं है और वो संतकबीरनगर में ही अधिक व्यस्त है।
 
हालांकि संजय निषाद का कहना है कि चुनाव प्रचार के लिए 12 से 17 तारीख़ का समय उनके लिए पर्याप्त है और 80 फ़ीसदी निषाद वोटर उनके साथ हैं। वह कहते हैं, "जैसे जाटवों ने मायावती और यादवों ने अखिलेश को अपना कमांडर मान लिया है, वैसे ही निषादों ने मुझे अपना कमांडर मान लिया है।"
 
लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है?
गोरखपुर के निषाद बहुल रूस्तमपुर-मिर्ज़ापुर इलाक़े में एक निषाद मंदिर है जहां यहां के दोनों बड़े निषाद नेता और अब एक-दूसरे के विरोधी संजय निषाद और रामभुआल निषाद अक़सर जाते हैं।
 
यहां 20 से अधिक निषाद वोटरों से बात हुई और ज़्यादातर खुले तौर पर गठबंधन उम्मीदवार रामभुआल निषाद को चुनने की बात कही। लोगों ने बताया कि संजय निषाद ने इसी मंदिर में क़समें दिलाई थीं कि जब शादी अपनी जाति में करते हैं तो वोट भी सिर्फ़ अपनी जाति को दीजिए।
 
लेकिन अब जब वे भाजपा के रवि किशन शुक्ल के पक्ष में प्रचार करेंगे तो उसका असर होगा?
 
यहां मिले एक सरकारी अध्यापक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, "आप किसी का हाथ पकड़कर उसे कच्चे रास्ते से आरसीसी की रोड पर ले आएं और फिर ख़ुद उससे कहें कि अब मेरे कहने से फिर से कच्चे रास्ते पर चलो, तो क्या ये संभव है?"
 
इस मंदिर के पुजारी रामदयाल निषाद को भरोसा नहीं है कि भाजपा निषादों को आरक्षण दिलवा सकती है। वो कहते हैं कि निषादों में आज भी घोर अशिक्षा है और उनकी बड़ी संख्या मज़दूरी-दिहाड़ी का काम करती है। उनके मुताबिक, "संजय निषाद के भाजपा के साथ जाने से इन लोगों की उम्मीदों को झटका लगा है।"
 
वह कहते हैं कि यह निषाद बहुल इलाक़ा है और यहां से निषाद का बेटा ही सांसद होना चाहिए। अगर भाजपा निषाद प्रत्याशी उतारती तो वे ज़रूर सोचते।
 
हिंदुत्व और निषाद
क्या निषाद समाज का कुछ हिस्सा भाजपा की विचारधारा से ख़ुद को जोड़ पाता है?
 
पत्रकार मनोज सिंह कहते हैं, "यहां निषाद समाज काफ़ी धार्मिक भी है, इसलिए उनकी चेतना पूरी तरह सनातन ब्राह्मणवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ विकसित नहीं हो पाई है। अभी वह विकसित होने की प्रक्रिया में है। इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता कि वे हिंदुत्व से पूरी तरह कट गए हैं।"
 
संभवत: इसीलिए भाजपा निषादराज केवट के उस रूप को स्थापित करना चाहती है जिसमें वह प्रभु राम के चरणों में उनकी सेवा कर रहे हैं। क्या निषाद पार्टी भी अपनी जातीय पहचान के गर्वीले रुख़ को छोड़ भाजपा की सेवा की भूमिका में आ गई है?
 
गोरखपुर में हिंदुस्तान अख़बार के पत्रकार विवेकानंद इसे दूसरी तरह से देखते हैं। वो कहते हैं, "जातियां अब केवल अपनी धार्मिक और पौराणिक पहचान ही नहीं चाहतीं। वे सामाजिक पहचान और रुतबा भी चाहती है। इस वक़्त भाजपा के हाथ में सत्ता है। उससे जुड़कर निषाद पार्टी अपनी अस्मिता बढ़ाना चाहती है। आगे हवा का जैसा रुख़ होगा, शायद वैसा करेगी।"
 
विवेकानंद मानते हैं कि भाजपा ने निषाद वोटरों के बीच बंटवारा करने की कोशिश की है और अगर वो बंटवारा होता है तो यह बड़ी सफलता होगी।
 
पत्रकार मनोज सिंह निषादों को 'जुझारू' प्रकृति का बताते हैं। वो कहते हैं, "गोरखपुर में निषाद दब्बू नहीं हैं। उनकी राजनीतिक चेतना इतनी विकसित हो गई है कि उन्हें दबाना अब आसान नहीं है। इसलिए निषादों का एक अलग राजनीतिक दल के तौर पर उभरना बड़े दलों के लिए ख़तरा है। अपने दलों में प्रतिनिधित्व देकर उन्हें नियंत्रित रखना आसान है।"
 
स्थानीय पत्रकार विवेकानंद मानते हैं कि शुरू में ऐसा लग रहा था कि निषाद वोटर इस बार गठबंधन के पक्ष में है, पर एक-दो दिनों से आ रही रिपोर्ट भाजपा के लिए सुखद है। उनके मुताबिक, "कई जगहों पर निषाद वोटरों का रुझान भाजपा की ओर हो रहा है और संजय निषाद के प्रचार अभियान के बाद इसमें और इज़ाफ़ा होगा।"
 
गोरखपुर का चुनाव अब इस बात पर आकर टिक गया है कि संजय निषाद कितने निषाद वोटरों को बांटेंगे और कांग्रेस उम्मीदवार मधुसूदन तिवारी कितने ब्राह्मण काटेंगे। मंदिर में नौजवान दिलीप निषाद से उस भजन के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ''भगवान राम गंगा पार जाने के लिए केवट की नाव चढ़े थे लेकिन भाजपा को कौन सी नैया पार करनी है, सब जानते हैं।
 
वो पूछते हैं, "हम कब तक अपनी नाव में सबको पार ही कराते रहेंगे?"
ये भी पढ़ें
जुराब उतारिए और पैरों को आजाद कीजिए