• Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. बीबीसी हिंदी
  3. बीबीसी समाचार
  4. Ghulam Nabi Azads passing is good news for Rahul Gandhi
Written By BBC Hindi
Last Updated : बुधवार, 31 अगस्त 2022 (08:46 IST)

ग़ुलाम नबी आज़ाद का जाना, राहुल गांधी के लिए खुशखबरी है?

ग़ुलाम नबी आज़ाद का जाना, राहुल गांधी के लिए खुशखबरी है? - Ghulam Nabi Azads passing is good news for Rahul Gandhi
सरोज सिंह
बीबीसी संवाददाता
 
साल 2019 में लोकसभा चुनाव के बाद जब राहुल गांधी ने इस्तीफ़ा दिया था, तो उनकी दबी इच्छी थी कि कांग्रेस की करारी हार की ऐसी ही ज़िम्मेदारी बाक़ी पदाधिकारी भी लें।
 
इस वजह से उन्होंने अपने इस्तीफ़े में लिखा था, "लोकसभा चुनाव की हार की ज़िम्मेदारी तय करने की ज़रूरत है। इसके लिए बहुत सारे लोग ज़िम्मेदार हैं। लेकिन अध्यक्ष पद पर रहते हुए मैं ज़िम्मेदारी ना लूं और दूसरों को ज़िम्मेदार बताऊं, ये सही नहीं होगा।"
 
कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता ऑफ़ रिकॉर्ड इस बात को स्वीकार भी कर रहे थे कि राहुल गांधी के इस्तीफ़े के बाद हार की ज़िम्मेदारी पार्टी के दूसरी वरिष्ठ नेता लें।

लेकिन तब ऐसा नहीं हुआ।
 
तीन साल बाद पार्टी के दो वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आज़ाद पार्टी को टा-टा, बाय-बाय कह चुके हैं। हालांकि इस लिस्ट में आरपीएन सिंह, कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे और कई और बड़े नाम भी शामिल हैं।
 
 
कई और नाम वेटिंग लिस्ट में बताए जाते हैं।
 
अब तीन साल बाद इस साल अक्टूबर में कांग्रेस पार्टी को नया फुल टाइम अध्यक्ष मिलने की दोबारा से उम्मीद जगी है। वो भी गुलाम नबी आज़ाद के इस्तीफ़े के 48 घंटे बाद ही।
 
वैसे कांग्रेस वर्किंग कमेटी की जिस बैठक में अध्यक्ष पद के चुनाव की तारीखों का ऐलान हुआ, वो बैठक पहले से ही तय थी।
 
संगठन के कार्यकर्ता
 
कांग्रेस के साथ पांच दशक के अनुभव वाले नेता का इस तरह से चिट्ठी लिखकर पार्टी को अलविदा कहना - कई नेता और राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस के लिए झटका करार दे रहे हैं।
 
उनके जाने के बाद कांग्रेस को होने वाले नुक़सान पर अख़बारों में कई संपादकीय तक लिखे गए।
 
वहीं, दूसरी तरफ़ कई जानकारों का मानना है कि गांधी परिवार को इसका अहसास था।
 
शायद इसकी तैयारी दोनों तरफ़ से काफी समय से चल रही थी।
 
ग़ुलाम नबी आज़ाद के इस्तीफ़े को पार्टी के लिए झटका कहने वालों में वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी भी हैं।
 
उनके मुताबिक, "आज़ाद संगठन के आदमी हैं। उन्होंने पांच दशक तक पार्टी के साथ काम किया, हर राज्य में उन्होंने काम किया। हर राज्य में कार्यकर्ताओं को वो जानते हैं। उनकी दूसरी पार्टियों के नेताओं के साथ भी अच्छे रिश्ते है। उनका जाना और पार्टी को आइना दिखाकर जाना निश्चित तौर पर पार्टी के लिए झटका है। वो पार्टी और संगठन को अहमद पटेल की तरह समझते थे। पार्टी में उनके स्तर का संगठन में काम करने वाले दिग्विजय सिंह, कमलनाथ जैसे नेता ही कुछ बच गए हैं।"
 
 
जम्मू और कश्मीर की राजनीति पर असर
 
हालांकि, ग़ुलाम नबी के बारे में ये भी कहा जाता है कि वो मास लीडर नहीं रहे हैं।
 
ग़ुलाम नबी आज़ाद अधिकतर समय राज्यसभा से ही संसद पहुंचे। वे 1980 और 1984 के लोकसभा चुनावों में दो बार महाराष्ट्र के वाशिम से सांसद चुने गए थे। ग़ुलाम नबी जम्मू और कश्मीर के सीएम तो रह चुके हैं पर वहां के मतदाताओं पर उनकी पकड़ कुछ ख़ास नहीं है।
 
ऐसे में कांग्रेस से नाता तोड़ना क्या जम्मू और कश्मीर तक असर दिखाएगा? या फिर राष्ट्रीय राजनीति में भी कुछ असर होगा?
 
इस पर नीरजा कहती हैं कि उनके इस्तीफा का जम्मू और कश्मीर कांग्रेस पर क्या असर होगा - ये कहना जल्दबाज़ी होगा। ये तो सच है कि आज़ाद के इस्तीफे के बाद 6-8 स्थानीय नेताओं ने भी इस्तीफ़ा दिया है।
 
"कुछ होमवर्क या ग्राउंडवर्क तो उन्होंने किया ही होगा। आने वाले वक़्त में अगर वो किसी गठबंधन का छोटा हिस्सा बनकर सत्ता पर काबिज़ हो पाए तो दूसरे राज्य में कांग्रेस नेतृत्व से परेशान चल रहे नेताओं के पास एक कामयाब मिसाल देने के लिए हो सकती है। फिर चाहे राजस्थान में सचिन पायलट हों या फिर हरियाणा में हुड्डा या फिर कर्नाटक में सिद्धारमैया। कांग्रेस में रहते हुए इन नेताओं को ना तो कोई मौका दिख रहा था ना ही उम्मीद बची थी।  उस पर से अपमानित और किया जा रहा था।
 
ग़ुलाम नबी आज़ाद को अगस्त में ही जम्मू और कश्मीर कैम्पेन कमेटी के हेड की पोस्ट ऑफर की गई थी। आज़ाद ने वो पद स्वीकार करने से मना कर दिया था। नीरजा का इशारा इसी तरफ़ था.
 
वरिष्ठता की अनदेखी
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं अनदेखी का ये पहला मौका नहीं था। ये सब कुछ एक तरह से देखें तो साल 2019 से लगातार चल रहा था।
 
"साल 2019 से पार्टी में जो कुछ चल रहा था, उससे ग़ुलाम नबी आज़ाद आहत थे, ये तो सभी को पता था। शायद नाराज़गी की ताबूत में आख़िर कील ठोकने का काम अशोक गहलोत और सोनिया गांधी की मुलाक़ात ने किया। उसी मुलाकात के बाद कांग्रेस के अगले अध्यक्ष पद की रेस में अशोक गहलोत के नाम की चर्चा और तेज़ हो गई। ग़ुलाम नबी आज़ाद को हो सकता है कि यह बात बुरी लगी हो कि उनसे सलाह मशविरा तक नहीं किया गया।"
 
वो आगे कहते हैं, "जब 15 अगस्त को इस बार सोनिया गांधी कोरोना संक्रमित होने की वजह से एआईसीसी दफ़्तर नहीं आ पाई थीं तो भी वरिष्ठता के आधार पर ग़ुलाम नबी आज़ाद को उम्मीद थी कि ये काम उनको सौंपा जाएगा, लेकिन ये मौका अंबिका सोनी को दिया गया। उसके बाद एक आज़ादी मार्च निकाला गया, जिसका नेतृत्व करने के लिए राहुल गांधी ने ग़ुलाम नबी आज़ाद से अनुरोध किया था। ग़ुलाम नबी आज़ाद ने उनके इस अनुरोध को उस समय स्वीकार भी किया था।"
 
लेकिन आज़ाद को करीब से जानने वाले मानते हैं कि ये बात भी उन्हें बुरी ज़रूर लगी होगी। इसी क्रम में रशीद एक और उदाहरण 2019 का देते हैं।
 
साल 2019 में राहुल गांधी के इस्तीफे के बाद और सोनिया गांधी के अंतरिम अध्यक्ष बनने से पहले तीन चार महीने का कार्यकाल ऐसा था जब कांग्रेस पार्टी का कोई अध्यक्ष नहीं था। 
 
राहुल गांधी चाहते तो वो जाते-जाते कांग्रेस की कमान सबसे वरिष्ठ महासचिव का सौंप जाते। उस समय आज़ाद ही सीनियोरिटी में सबसे आगे थे। रशीद किदवई के मुताबिक़ पार्टी के संविधान के हिसाब से ऐसा करने में कोई बुराई नहीं थी।
 
फिर भी राहुल गांधी ने ऐसा नहीं किया।
 
राहुल के लिए खुशखबरी
यहां एक बात ध्यान देने वाली यह भी है कि जिस अध्यक्ष पद के लिए ग़ुलाम नबी आज़ाद पिछले तीन साल से बोल रहे थे, उस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव की तारीखों का ऐलान आज़ाद के पार्टी से निकलने के 48 घंटे के अंदर हो गया।
 
कुछ जानकार मानते हैं कि वो पार्टी के भीतर रहकर चुनाव लड़ सकते थे।
 
लेकिन इस पर दलील ये भी दी जाती है कि जिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी के कार्यकर्ताओं को इस चुनाव में वोट करना है उनमें से 50-55 फीसदी उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, महाराष्ट्र से आते हैं। इन सब राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष राहुल गांधी के करीब ही हैं।
 
ऐसे में गांधी परिवार या ग़ैर गांधी वही नेता अध्यक्ष पद का चुनाव जीत सकता है जो इन राज्यों के कार्यकर्ताओं में अपनी पैठ रखता हो।
 
जाहिर सी बात है कि जो नेता कांग्रेस में गांधी परिवार के नेतृत्व को लेकर इतना मुखर रहे हो, उनके लिए पार्टी का अध्यक्ष पद हासिल करना टेढ़ी खीर ही होगा।