''अच्छे से देखो, मैं सुभाष चंद्र बोस तो नहीं हूं''
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'अच्छे से देखो, मैं सुभाष चंद्र बोस तो नहीं हूं'
- नितिन श्रीवास्तव (फैजाबाद से)
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फैजाबाद के गुमनामी बाबा या भगवनजी के बारे में लगभग 27 वर्ष से यही कयास लगते रहे हैं कि कहीं वह सुभाष चंद्र बोस तो नहीं थे।
चलते हैं 16 सितंबर, 1985 के दिन। फैजाबाद के रामभवन के पिछवाड़े में रह रहे गुमनामी बाबा के दो प्रमुख भक्त और उनके नजदीकी डॉक्टर आरपी मिश्रा और डॉक्टर पी बनर्जी सुबह से बार-बार उनके कमरे से अंदर-बाहर कर रहे थे।
दोपहर देर तक गुमनामी बाबा की मृत्यु की खबर इस छोटे से शहर में आग की तरह फैल रही थी और लोग रामभवन के बाहर जमा हो रहे थे। ज्यादातर लोगों के मन में कौतूहल था बस एक बार इस बाबा की शक्ल भर देखने का।
उनकी सेविका जगदम्बे या सरस्वती देवी, डॉक्टर मिश्रा और डॉक्टर बनर्जी के परिवार वालों के अलावा उन्हें शायद ही किसी ने देखा था या देखने का दम भरा था।
स्थानीय प्रशासन भी पहरा बिठा चुका था और मसला यही था कि गुमनामी बाबा का दाह संस्कार कब, कहां और कैसे हो। डॉक्टर मिश्रा और दूसरे भक्तों का कहना था कि 'कलकत्ता वालों' को सूचना दे दी गई है और कोई न कोई आएगा जरूर।
बहरहाल दो दिन बीत जाने पर जब कलकत्ता से कोई नहीं आया तब आनन-फानन में चुपके से गुमनामी बाबा का दाह संस्कार एक ऐसी जगह में कर दिया गया जहां बताया जाता है की राम ने जल समाधि ली थी। 'गुप्तार घाट' में वैसे इससे पहले कभी भी किसी का दाह-संस्कार नहीं हुआ था!
गुमनामी बाबा के पास से जो सामान बरामद हुआ उसमें नेताजी सुभाष चंद्र बोस के परिवार की तस्वीरें आदि के अलावा सबसे ज्यादा चिट्ठियां मिलीं जो कलकत्ता से लोग लिखते थे। इनमे आजाद हिन्द फौज की गुप्तचर शाखा के प्रमुख पवित्र मोहन रॉय, लीला रॉय और समर गुहा जैसे लोग शामिल थे।
लगभग सभी पत्रों में उन्हें भगवनजी कह कर संबोधित किया गया था और कई में तो ये भी लिखा था कि 'हम सभी आपके आज्ञाकारी शिष्यों की तरह उस धर्म का पालन कर रहे हैं जो आपने कहा है'।
किसको थी मिलने की अनुमति : फैजाबाद के स्थानीय पत्रकार अशोक टंडन और वीएन अरोड़ा से मिलने पर पता चला कि हमेशा से ही शहर में इस तरह की बातें होती रहीं कि दुर्गा पूजा और नेताजी के जन्मदिन के दौरान कलकत्ता से कई लोग गुप्त रूप से गुमनामी बाबा से मिलने आते थे और उनकी रसद भी पहुंचाते थे।
यह दोनों पत्रकार गुमनामी बाबा की मृत्यु के बाद उनके कमरे में सामान की बनाई गई फेहरिस्त के दौरान भी मौजूद थे। स्थानीय सूत्रों के मुताबिक सिर्फ चंद ही लोग थे फैजाबाद, अयोध्या या बस्ती में जिन्हें गुमनामी बाबा से मिलने-जुलने की अनुमति थी। इनमें से एक था डॉक्टर आरपी मिश्रा का परिवार।
लगभग 90 वर्ष के हो चुके यह सज्जन शायद एकमात्र ऐसे शख्स हैं जिन्होंने अभी तक इन बाबा पर अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी है। उनके निकटतम लोगों के मुताबिक उन्होंने गुमनामी बाबा को वचन दिया था।
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कमीशन में गवाही : डॉक्टर टीसी बनर्जी का परिवार भी गुमनामी बाबा के संपर्क में रहा और उनके बेटे डॉक्टर पी बनर्जी और बहू रीटा बनर्जी ने नेताजी की मौत की जांच कर चुके जस्टिस मुख़र्जी के नेतृत्व में बने 'मुख़र्जी कमीशन' में इस बात की गवाही भी दी थी।
अयोध्या के राम किशोर पंडा, बस्ती के राजघराने के कुछ सदस्य और कुछ बंगाली परिवार भी इनके संपर्क में रहे। हैरानी की बात ये भी है कि जिस रामभवन के पीछे वाले हिस्से में इनका निधन हुआ उसके निवासी शक्ति सिंह ने भी कभी इनकी शक्ल तक नहीं देखी।
हालांकि शक्ति सिंह ने बताया जरूर कि, 'इनका सामान देखकर यही लगा था कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि नेताजी ही हो सकते थे।'
कहानी के अंत में पाठकों को बताना अनिवार्य है कि गुमनामी बाबा के सामान में जो किताबें या खत मिले वह इशारा किस ओर करते हैं। अगर यह व्यक्ति नेताजी सुभाष चंद्र बोस नहीं भी था तो यह उनका कोई हमशक्ल भी नहीं हो सकता है। वजह है इनके पास से मिली किताबों और अखबारों का जखीरा।
गुमनामी बाबा की टिप्पणियां : ख़ास बात यही है कि इन सभी पर गुमनामी बाबा ने नोट बनाए हुए हैं या टिप्पणियां की हुई हैं। मसलन, भारत-चीन युद्ध पर लिखी गई किताब 'हिमालयन ब्लंडर' के पन्नों पर जहां भारतीय जनरलों का जिक्र है वहां लिखी एक टिप्पणी कहती है, 'नेहरु आपने यह गलती क्यों की, इस जनरल में कमान संभालने की क्षमता नहीं थी।'
नेहरु-गांधी परिवार पर अनेकों दस्तावेज और टिप्पणियां भी इस व्यक्ति के पास से बरामद हुईं हैं। ऐसी कई घटनाओं का जिक्र भी गुमनामी बाबा अपने कुछ भक्तों से किया करते थे जिनका ताल्लुक द्वितीय विश्व युद्ध और जापान की हार से था।
1985 में हुई इनकी मौत के बाद इनके पास से कोलकाता, दिल्ली और दूसरे शहरों की कई दुकानों की रसीदें भी बरामद हुईं जो दर्शाती है कि इनके पास धनदौलत की कभी कमी नहीं रही और इनकी पसंद शाही थी।
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गुमनामी बाबा से मिल चुकीं श्रीमती रीटा बनर्जी
जब मेरे ससुर की पहली बार भगवानजी से मुलाकात हुई तब उनकी आंखें फटी की फटी रह गईं। बाबा ने सिर्फ यही कहा कि आप यहां से निकलकर किसी से कुछ नहीं कहिएगा।
डॉक्टर टीसी बनर्जी ने उनसे कहा मेरे बताने से क्या होगा, कोई क्यों मानेगा की आप कौन हैं। बाबा ने जवाब दिया कि हां, मैं अब एक रजिस्टर्ड सन्यासी हूं और दुनिया के रजिस्टर से मेरा नाम काट दिया गया है।
मेरी जब भी उनसे मुलाकात हुई वह मुझसे बंगला में ही बात करते थे और किसी से नहीं। उनके पास दुनिया भर के तमाम किस्से होते थे जो मेरे स्वर्गीय पति डॉक्टर पी बनर्जी को बताते थे। मैंने उनके लिए खाना भी बनाया था एक दफा और उन्हें दो बंगला व्यंजन बहुत पसंद थे।
जब हमारा परिवार उनसे पहली बार मिला तब उन्होंने अपने पलंग पर उठकर गोल चश्मा लगाकर हमारी आंख में देखा और कहा कि अच्छी तरह से देखो मैं सुभाष चंद्र बोस तो नहीं हूं।
हमारा शरीर थर-थर कांप रहा था और हमारे मुंह में जैसे जबान ही नहीं रही थी।