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वैचारिक अभिव्यक्ति की आजादी के दुरुपयोग के चलते हर कोई अब गाँधी की अतार्किक आलोचना करने लगा है। महात्मा गाँधी के गाँधीवाद को बिना पढ़े, समझे ही लोगों ने उस पर टीका-टिप्पणी की जिसका परिणाम यह हुआ की गाँधीवाद दर्शन की पुस्तकों में ही सिमटकर रह गया वह कभी विश्व-दर्शन न बन सका और न ही जनआंदोलन।
जिन भी लोगों ने गाँधीवाद या गाँधी दर्शन को समझा है वे बता सकते हैं कि गाँधीवाद सिर्फ किसी व्यक्ति, समाज, संगठन, धर्म या देश के लिए ही नहीं अपितु पूरे विश्व के लिए प्रासंगिक है। यह सकारात्मक प्रतिकार और संघर्ष का मार्ग है जो विनाश नहीं सृजन करता है।

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महात्मा गाँधी ने आत्म-विकास और समाज-विकास के लिए श्रीमद्भभगवद् गीता, बाइबिल, कुरान इत्यादि धार्मिक ग्रंथों से, हेनरी डेविड थोरो जैसे पश्चिमी और पूर्वी विचारकों के आदर्शों को आत्मसात कर अपने व्यक्तिगत व पारिवारिक जीवन में उपयोग किया।
गाँधीवाद अन्याय और शोषण की समाप्ति शांतिपूर्ण व अहिंसात्मक उपायों द्वारा ही करना चाहता है। गाँधी ने इन आदर्शों को दक्षिण अफ्रीका में निवास के दौरान तथा भारत के अपने सामाजिक-राजनीतिक जीवन में जिस प्रकार से व्यावहारिक रूप से प्रयोग किए, उन्हीं के निष्कर्षों को गाँधीवाद कहा जाता है।
गाँधी दर्शन के प्रमुख सिद्धांत है; सत्य तथा अहिंसा। इसके अन्य आधार हैं अष्टाँग योग के प्रथम चरण यम के अन्य तीन अंग- अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह। आश्रम के निवासियों के लिए उन्होंने जो व्रत निर्धारित किये, उनमें कुछ अन्य सिद्धान्त भी जोड़े- जैसे ब्रह्मचर्य, असंग्रह, शरीर श्रम, अस्वाद, सर्वत्र भय वर्जनं, सर्वधर्म समानत्वं, स्वदेशी, स्पर्श भावना।

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अन्याय और शोषण के विरुद्ध निर्भीकता से संघर्ष करते हुए आत्मबलि देना ही शायद गाँधीवाद की मुख्य पहचान है। इसमें कोई संदेह नहीं कि दक्षिण और वामपंथी कट्टरता के दौर के चलते भारत जैसे विविध धर्मों, संस्कृतियों व भाषाओं वाले देश में गाँधीवाद ही सफल हो सकता है।