वर्ष 1935 में लिखी गई इस कविता ने न सिर्फ काव्य जगत में एक नया आयाम स्थापित किया वरन यह आज भी लोगों की जुबान पर चढ़ी है। डॉ. बच्चन ने सरल लेकिन चुभते शब्दों में सांप्रदायिकता, जातिवाद और व्यवस्था के खिलाफ फटकार लगाई है।
शराब को 'जीवन' की उपमा देकर डॉ. बच्चन ने 'मधुशाला' के माध्यम से एकजुटता की सीख दी। कभी उन्होंने हिन्दू और मुसलमान के बीच बढ़ती कटुता पर कहा-
एक मगर उनका प्याला,
एक मगर उनका मदिरालय,
एक मगर उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक
मंदिर-मस्जिद में जाते
मंदिर-मस्जिद बैर कराते,
मेल कराती मधुशाला।
जातिवाद पर करारी चोट करते हुए उन्होंने लिखा-
कभी नहीं सुन पड़ता, इसने,
हां छू दी मेरी हाला,
कभी नहीं कोई कहता- उसने,
जूठा कर डाला प्याला,
सभी जाति के लोग बैठकर
साथ यहीं पर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेली मधुशाला।