• Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. »
  3. विचार-मंथन
  4. »
  5. विचार-मंथन
Written By ND

मीडिया, भाषा और साहित्य

मीडिया भाषा साहित्य
- मनोज श्रीवास्तव

कोई घटना किसी चीज का 'होना' मात्र नहीं है, वह घटना एक रिश्ता भी है- उस 'होने' और एक प्रतीक-प्रणाली के बीच का रिश्ता। यह ठीक है कि घटना की कवरेज इस बात से भी निर्धारित होती है कि अखबार और उसके लक्ष्य-समूह के बीच प्रतीक-व्यवस्था किस फ्रेम में सक्रिय होती है, लेकिन इन दोनों चीजों के कारण ही पत्रकारिता का ही नहीं, बल्कि साहित्य का भी शुरुआती मसौदा बन जाती है।

घटना और उसके अर्थान्वयन के बीच में यदि कल्पना साहित्य में सक्रिय होती है
  तथ्यों, आइडिया, ले-आउट के स्तर पर वहाँ जो नवाचार दिखते हैं, भाषा के स्तर पर क्या वैसी रागात्मकता दिखती है? बल्कि अँगरेजी के कई समाचार-पत्रों में जितने रोचक श्लेष दिखते हैं, उतने अँगरेजी चैनलों और हिन्दी समाचार-पत्रों व चैनलों में नहीं दिखते      
तो पत्रकारिता में भी होती है, किंतु खबर के लिए किसी घटना के चयन के भी निहितार्थ होते हैं, जो उस अखबार या चैनल की पॉलिटिकल इकॉनॉमी का ही नतीजा नहीं होते, बल्कि उस अखबार की संस्कृति, आंतरिक संस्कृति का फलित भी होते हैं।

वे उस वायु का भी पता देते हैं, जो उस प्रतिष्ठान के रंध्रों में प्रवाहित होती है। मीडिया के विभिन्न प्रतिष्ठानों में प्रतिस्पर्धा और संक्रमण की प्रवृत्तियाँ भी देखने को मिलती हैं। कई बार एक्सक्लूसिव के लिए स्पर्धा करने वाले छूत के रोग से बुरी तरह ग्रस्त नजर भी आते हैं, लेकिन सावधानी से देखें तो खबर के प्रति बर्ताव की शैली की विशिष्ट सांस्थानिकताएँ चिन्हीं जा सकती हैं।

मीडिया, भाषा और साहित्य तीनों संप्रेषण के मुद्दे पर अपनी-अपनी तरह एकाग्र होते हैं, लेकिन साहित्य की तुलना में मीडिया के समक्ष बड़ी चुनौती है किसी 'कथ्य' को डि-इन्टेलेक्चुअलाइज करने की। साहित्य प्रज्ञा का जो संभार लेकर सहजता से चल लेता है, मीडिया कोशिश करता है, उसे लघुत्तम समापवर्तक तक लाने की, लोएस्ट कॉमन डिनॉमिनेटर तक लाने की।

इस क्रम में मीडिया भाषा के साथ अपने तरह के प्रयोग करता है। मीडिया की भाषा साहित्यिक भाषा की तरह अलंकरण का बोझ लेकर नहीं चलती, न ही वह अकादमिक भाषा की तरह बौद्धिकता का बोझ ढोती है, लेकिन कागज और ओंठों के बीच की दूरी कम करने के चक्कर में मीडिया का भाषा-प्रयोग नवाचार भी करता है। यदि भाषा कृत्रिम होगी तो कोई भरोसा नहीं कि पाठक उस खबर को भी नकली, गढ़ी गई नहीं मानेगा।

इसलिए मीडिया में भाषा का सवाल बहुत जरूरी हो जाता है। भाषा हमारे संस्कार गढ़ रही होती है। कई लोगों को भाषा मात्र एक साधन लगती है और उस पर बहुत बारीकियाँ निकालना एक व्यर्थ का व्यायाम, लेकिन बात बारीकी की ही नहीं है, शब्द की अपनी धूरी की है।

उस धूरी से स्खलित होना खबर की विश्वसनीयता का भी किसी हद तक क्षरण करता है। यह वैसा ही है जैसे गणित में दशमलवों का या ड्रग्स के प्रिस्क्रिप्शंस में ग्रेन्स का छोटा-सा अंतर, जो लगता अमहत्वपूर्ण है, लेकिन थोड़ा-सा भी फर्क या तो रॉकेट प्रक्षेपण को विफल कर देगा या किसी मरीज की जान पर बन आएगी।

मैं कई बार मीडिया में मरे हुए जुमलों का जुलूस देखता हूँ या उन्हें एक तरह की 'पॉपस्पीक' की आत्मरति में डूबे हुए देखता हूँ तो मुझे यह नहीं लगता कि उद्घोषक हड़बड़ी में है, मुझे लगता है कि वह जैसे थक चला है, उसकी कल्पना शक्ति भी थक चली है। वह शीघ्रता नहीं है, थकान है और यह दृश्य बड़ा विचलित करता है कि इतने युवा उद्घोषक या उद्घोषिका इस बाली उमर में थक गए।

उस उमर में जिसमें निराला, पंत वर्ड्सवर्थ भाषा के एक नए तेवर के साथ आए थे, इन बाल गोपालों को रटे-रटाए क्लिश की अतिशयोक्तियाँ ही हत्थे चढ़ीं। क्लिश से क्लेश होने लगा है। साहित्य में तो जब प्रतीकों के देवता कूच कर जाते हैं और अभिव्यक्ति की कलई उतर जाती है तो व्यंजना की एक नई शैली को खोजने की व्यग्रता एक युगांतर ही ले आती है, लेकिन मीडिया में फिकरेबाजी की वही चिर-परिचित कल्लादराजी जारी रहती है।

तथ्यों, आइडिया, ले-आउट के स्तर पर वहाँ जो नवाचार दिखते हैं, भाषा के स्तर पर क्या वैसी रागात्मकता दिखती है? बल्कि अँगरेजी के कई समाचार-पत्रों में जितने रोचक श्लेष दिखते हैं, उतने अँगरेजी चैनलों और हिन्दी समाचार-पत्रों व चैनलों में नहीं दिखते। मैं यह नहीं कह रहा कि अँगरेजी अखबारों की भाषा सब अच्छी ही है।

'अ टीचर बाई आक्युपेशन', 'कपलीट परफेक्शन', 'एकर्स ऑफ लैंड', 'फ्यूचर प्रोस्पेक्ट्स', 'द लेटेस्ट अपटुडेट इन्फॉर्मेशन', 'अ शॉर्ट ऑफ टाइम' एब्सल्यूटली एक्स्हास्टेड' जैसे शब्द प्रयोग देखकर मुस्कराया जा सकता है, लेकिन हिन्दी अखबारों में भाषाई नवाचार के नाम पर कोड स्विचिंग की अनावश्यकताओं की भरमार जरूर दिखती है, जहाँ एक हास्यास्पद रूप से वर्णसंकर भाषा की वाचालता है।

पहले भी खिचड़ी भाषा चलती थी और खिचड़ी भाषाओं की अपनी आप्तता भी रहती आई है,
  यह ध्यान दीजिए कि हमारे यहाँ शब्द ब्रह्म है, शब्द माथा नहीं है। शब्द इल्यूजन नहीं है- अल्टीमेट रियलिटी है। शब्द के साथ एक क्रीड़ा कवि भी करता है- उसे क्रीड़नक कहा भी इसलिए गया, लेकिन शब्द के साथ क्रीड़ा और बात है, सचाई से खिलवाड़ और बात      
लेकिन जो चीज अब देखी जा रही है वह खिचड़ी नहीं, चटनी भाषा है। वह कोई पथ्य नहीं है, वह तात्कालिक मौज-मजे के लिए हमें मिल रहा फास्ट फूड है, जो हमें अल्प समय के लिए ही सही, एक चकितावस्था में ला खड़ा करता है। आज से ठीक सौ साल पहले जब महावीर प्रसाद द्विवेदी जब सरस्वती निकालते थे तो वे भाषा के अनुशासन की चाबुक चलाते थे।

वे शब्द के प्रति इतने संवेदनशील थे कि एक प्रसिद्ध लेखक ने जब 'काबुल में भी गधे मिलते हैं' शीर्षक से लेख भेजा तो उन्होंने उसका शीर्षक बदलकर 'काबुल में सब घोड़े नहीं मिलते' कर दिया। शाब्दिक संस्कारों के प्रति इन संवेद्यताओं की क्या आज कोई वकत नहीं? कि आज भी 21वीं सदी के अवबोध के साथ ही सही, लेकिन एक महावीर प्रसाद द्विवेदी के पुनरावतार की बहुत जरूरत है। जो पूछे कि क्यों हिन्दी अखबारों के स्तंभ अँगरेजी में होने जरूरी हो गए हैं?

'यूथ गैलरी', 'फर्स्ट पर्सन' जैसे स्तंभ क्यों हिन्दी अखबारों की किसी दयनीय रूप से दरिद्र मानसिकता का पता देते हैं? क्या यूथ गैलरी इस बात से अधिक युवा हो जाती है कि वहाँ किसी युवा की ओर से लिखा जाए कि वह शू परचेस करने के लिए मार्केट गया? यह एक नुमाइशी 'हिंडी' है, जिसका लक्ष्य आम ग्रामवासिनी भारती से खुद को पृथक और विशिष्ट दिखाने का आडंबर रचना है।

यह हिन्दी में हो रहा मिश्रण नहीं है, यह हिन्दी में हो रहा संक्रमण है, जहाँ कई बार क्रिया या कारक में ही हिन्दी बची हुई रहती है। यानी इस 'हिंडी' में अपनी जड़ों के प्रति कोई भक्ति है तो वह विभक्ति में ही शेष रह गई है। क्या यह आधुनिक हिन्दी मानस में पड़ गई किसी दरार, किसी विभाजन, किसी विभक्ति का प्रतीक बनकर सामने आई है?

एक यदि अर्थव्यवस्था ग्लोबल हो जाने की हड़बड़ी में है तो क्या शब्द व्यवस्था भी ग्लोबल हो जाने की उसी हड़बड़ी से स्पर्धा कर रही है। साहित्यिक पत्रिकाओं में भी ऐसी दूषणग्रस्त हिन्दी मिलेगी। एक प्रसिद्ध अखबार की साहित्य वार्षिकी में मैं पढ़ता हूँ, 'नवीन हर रोमांटिक पोएट्स को खारिज कर चुका था'- 'हर' के साथ बहुवचन का क्या मतलब है?

लेकिन भाषा के और दूसरे भी आयाम हैं, जिन्हें अपनाकर मीडिया अपनी तरह का अस्थैर्य देश में रचता है। मीडिया को 'सॉफ्ट' शब्दावली टीआरपी-अनुकूल शायद लगती ही नहीं। इसलिए उसकी भाषा युद्ध और संग्राम की भाषा बन गई है। यहाँ संगीत का भी विश्वयुद्ध होता है, यहाँ तो क्रिकेट में बड़ी आग है, यहाँ हर चीज में बवाल होता है- पानी पर, आग पर, यहाँ क्रिकेट जैसे जेंटलमनली खेल को घमासान की तरह दर्ज करवाया जाता है। यह एक विचलित, डाँवाडोल, डगमग भारत की तस्वीर है- अशांत और असहज भारत की।

यह ध्यान दीजिए कि हमारे यहाँ शब्द ब्रह्म है, शब्द माथा नहीं है। शब्द इल्यूजन नहीं है- अल्टीमेट रियलिटी है। शब्द के साथ एक क्रीड़ा कवि भी करता है- उसे क्रीड़नक कहा भी इसलिए गया, लेकिन शब्द के साथ क्रीड़ा और बात है, सचाई से खिलवाड़ और बात। यदि भाषा यह खिलवाड़ करती है तो वह अपने लिए अश्रद्धा की इकालॉजी खुद तैयार करती है। जब खूँटे से बँधी हुई पत्रकारिता को एम्बेडेड जर्नलिज्म का नाम दिया जाता है तो क्या यह नहीं प्रतीत होता कि शब्द अपना धुआँ खुद रच रहा है।
(लेखक मप्र के जनसंपर्क आयुक्त हैं।)