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Last Modified: रविवार, 12 अक्टूबर 2014 (12:17 IST)

अनबूझा-सा इक तेवर थे बाबूजी

अनबूझा-सा इक तेवर थे बाबूजी - अनबूझा-सा इक तेवर थे बाबूजी
आलोक श्रीवास्तव की रचना - 3
 
घर की बुनियादें, दीवारें, बामो-दर थे बाबूजी,
सबको बांधे रखने वाला ख़ास हुनर थे बाबूजी.
 
तीन मुहल्लों में उन जैसी कद-काठी का कोई न था,
अच्‍छे-खासे, ऊंचे-पूरे, कद्दावर थे बाबूजी.
 
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
अम्माजी की सारी सजधज, सब जेवर थे बाबूजी.
 
भीतर से ख़ालिस जज़्बाती और ऊपर से ठेठ-पिता,
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा इक तेवर थे बाबूजी.
 
कभी बड़ा सा हाथ ख़र्च थे, कभी हथेली की सूजन,
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी.