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Written By वार्ता

एक अदद फार्मूले की खोज में बीता साल

एक अदद फार्मूले की खोज में बीता साल -
पेट्रोलियम पदार्थों के खुदरा मूल्य तय करने के मामले में एक अदद फार्मूले की तलाश करते करते वर्ष 2008 भी बीत गया। विश्व बाजार में कच्चे तेल के दाम की उठापटक और कम वसूली के बोझ तले दबती घरेलू विपणन कंपनियों से सरकार पूरे साल ऊहापोह की स्थिति में रही। साल बीतते बीतते यह फैसला नहीं हो पाया कि आखिर घरेलू बाजार में पेट्रोल, डीजल, रसोई गैस और मिट्टी तेल के दाम किस फार्मूले से तय किए जाएँ।

रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर डॉ. सी. रंगराजन की अध्यक्षता में दो साल पहले एक कमेटी बैठाई गई। उसकी सिफारिशें आईं, लेकिन उन पर आधा-अधूरा ही अमल हो पाया। उसके बाद प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने योजना आयोग के सदस्य बीके चतुर्वेदी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय कमेटी बैठाई। उसकी सिफारिशें भी ठंडे बस्ते में पड़ी हैं।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दाम रिकॉर्ड पर रिकॉर्ड बनाते रहे। तेल विपणन कंपनियाँ लाखों करोड़ रुपए की कम वसूली के बोझ तले दबती चली गईं, लेकिन कभी विधानसभा चुनाव तो कभी आम चुनाव का हल्ला होने से सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा सकी।

साल बीतते-बीतते विश्व बाजार में कच्चे तेल के दाम घटने से कुछ राहत मिलने लगी तो अब दाम घटाने का मुद्दा जोर पकड़े हुए है। आम चुनाव की आहट सुनाई देने से सरकार भी इस मुद्दे को हवा देने में लगी है।

कमेटियों ने सुझाव दिए कि सरकार को पेट्रोल-डीजल के दाम तय करने का मुद्दा कंपनियों पर छोड़ देना चाहिए। सरकार को दाम घटाने और बढ़ाने की खींचतान से अपने को दूर रखना चाहिए। आयात के बजाय इनके दाम व्यापारिक मूल्य के लिहाज से तय किए जाने चाहिए।

कर एवं शुल्कों को तर्कसंगत बनाने तथा रसोई गैस एवं मिट्टी तेल पर सब्सिडी कम करने का सुझाव आया। राशन में सस्ते मिट्टी तेल की बिक्री गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों (बीपीएल) तक सीमित रखने की सिफारिश की गई।

रसोई गैस को बाजार मूल्य पर बेचने की सिफारिश आई, लेकिन सब बेकार। एक अदद फार्मूले की अभी भी है तलाश। पेट्रोलियम पदार्थों के दाम पर असर डालने वाले सरकार के ताजा फैसले में एकीकृत ऊर्जा नीति को मंजूरी देना अहम कदम माना जा सकता है।

पिछले सप्ताह हुई मंत्रिमंडल की बैठक में इस नीति को मंजूरी दे दी गई। इसमें ईंधन और ऊर्जा से जुड़े तमाम उत्पादों के मामले में एक समन्वित नीति अपनाने पर जोर दिया गया है। नीति का एक बिंदु कहता है कि सभी ऊर्जा स्रोतों के दाम बाजार के अनुरूप होना चाहिए।

घरेलू बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों के दाम भी चरणबद्ध तरीके से अपेक्षाकृत कम अवधि में बाजार की स्थिति के अनुरूप तय करने पर जोर दिया गया है। नीति में ऊर्जा के दाम इस तरह तय करने पर जोर हैं, जिसमें उत्पादकों और उपभोक्ताओं को ऊर्जा बचत पर प्रोत्साहन मिले और जहाँ संभव हो, वहाँ उचित ऊर्जा विकल्प अपनाए जा सकें। अब देखना यह है कि आने वाले समय में सरकार इस पर कितना अमल करती है।

फिलहाल तो आम चुनाव की तैयारी है। पेट्रोलियम सचिव आरएस पांडेय पिछले महीने से कई मौकों पर कह चुके हैं कि सरकार पेट्रोलियम पदार्थों की पूरी स्थिति पर गौर कर रही है और नई स्थितियों को देखते हुए एक व्यापक फार्मूले पर विचार किया जा रहा है।

इंडियन ऑइल, भारत पेट्रोलियम और हिन्दुस्तान पेट्रोलियम जैसी पेट्रोलियम पदार्थों का विपणन करने वाली सरकारी तेल कंपनियाँ अपने घाटे को लेकर चिंतित हैं तो तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम, ऑइल इंडिया और गेल इंडिया जैसी तेल एवं गैस का उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनियाँ कच्चे तेल के दाम घटने से गिरते मुनाफे से चिंतित हैं। पेट्रोलियम कारोबार करने वाली निजी क्षेत्र की कंपनियाँ सब्सिडी में उन्हें भागीदारी नहीं मिलने की माँग करती रही हैं।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में जुलाई में जब कच्चे तेल के दाम 147 डॉलर प्रति बैरल की रिकॉर्ड तोड़ ऊँचाई पर थे, तब इंडियन बॉस्केट भारतीय खरीद मूल्य 142.04 डॉलर प्रति बैरल की ऊँचाई को छू चुका था।

दाम घटने के बावजूद अप्रैल से लेकर दिसंबर 2008 की अवधि में कच्चे तेल का औसत खरीद मूल्य 100 डॉलर प्रति बैरल के आसपास बना हुआ है, जबकि वर्ष 2007-08 में पूरे साल का औसत खरीद मूल्य 79.25 डॉलर प्रति बैरल पर था।

यहाँ आपको बताते चलें कि एक बैरल में करीब डेढ़ सौ लीटर होते हैं। पिछले एक साल के दौरान कच्चे तेल की भारतीय खरीद मूल्य की यह वृद्धि 27 प्रतिशत तक रही है।

इस दौरान एक घटनाक्रम यह भी हुआ कि कच्चे तेल के दाम गिरने के साथ-साथ डॉलर मुकाबले रुपया कमजोर पड़ने लगा। अप्रैल से नवंबर के बीच डॉलर के मुकाबले रुपया करीब 20 प्रतिशत गिर गया। अप्रैल में जहाँ एक डॉलर के लिए 40 रुपए देने पड़ते थे, वहीं नवंबर आते-आते यह 48 रुपए तक पहुँच गया। तेल कंपनियों ने इसका भी खामियाजा भुगता।

वर्ष 2002 में पेट्रोलियम पदार्थों के मामले में सरकारी मूल्य नियंत्रण (एपीएम) समाप्त करने की पहल के बाद से सरकार के लिए तेल कंपनियों को होने वाली कम वसूली की भरपाई करना सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है।

उसके सामने एक तरफ दाम बढ़ने से उपभोक्ता पर पड़ने वाले बोझ को कम रखने की जिम्मेदारी है तो दूसरी तरफ अपनी तेल कंपनियों को घाटे में जाने से बचाना भी जरूरी है।

शुरुआत में सरकार तेल उत्पादन कंपनियों और तेल विपणन कंपनियों के साथ कुछ बोझ उपभोक्ता पर डालकर समान रूप से इस बोझ को बाँटने का फार्मूला तैयार किया गया, लेकिन पिछले कुछ महीनों में जिस तेजी से कच्चे तेल के दाम बढ़े, सरकार उपभोक्ता के हिस्से में आने वाला बोझ उस पर नहीं डाल पाई। वर्ष 2008 में पहले फरवरी में और फिर जून में पेट्रोल, डीजल के दाम बढ़ाए गए, लेकिन दाम घटने पर दिसंबर आते-आते इसमें कमी भी कर दी गई।

जून में रसोई गैस के दाम भी 50 रुपए तक बढ़ाए गए, जिस पर विभिन्न राज्य सरकारों ने बिक्री कर घटाकर राहत दी। वर्ष के दौरान जून में जब इंडियन बॉस्केट 130 डॉलर प्रति बैरल की ऊँचाई पर था, तब तेल कंपनियों की कम वसूली (अंडर रिकवरी) करीब ढाई लाख करोड़ रुपए तक होने का अनुमान लगाया गया।

स्थिति हाथ से निकलती देख सरकार ने कच्चे तेल पर सीमा शुल्क पाँच से घटाकर शून्य कर दिया। पेट्रोल-डीजल पर भी सीमा शुल्क 7.5 से घटाकर 2.5 प्रतिशत पर ला दिया गया। नाफ्था तथा अन्य पेट्रोलियम उत्पादों पर भी सीमा शुल्क की दर 10 से घटाकर 5 प्रतिशत कर दी गई। इसके अलावा डीजल और पेट्रोल पर उत्पाद शुल्क दरों में भी एक रुपए प्रति लीटर की कमी की गई। इससे तेल कंपनियों को 22660 करोड़ रुपए की राहत मिलने का अनुमान लगाया गया।

कल नुकसान का 50 प्रतिशत की भरपाई तेल बाँड जारी कर पूरा करने की बात कही गई। वर्ष 2008 की समाप्ति तक कच्चे तेल के दाम 32 डॉलर की तलहटी छूने के बाद 40 डॉलर के ईद-गिर्द घूम रहे हैं। तेल विपणन कंपनियाँ राहत महसूस कर रही हैं, लेकिन उनका पिछला घाटा अभी भी पूरा नहीं हुआ है।

वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से भी उन्हें इस साल करीब एक लाख करोड़ रुपए की कम वसूली रहने का अनुमान लगाया गया है। अप्रैल से सितंबर 2008 की पहली छमाही में सरकार करीब 45000 करोड़ रुपए के तेल बाँड जारी कर चुकी है।

ओएनजीसी, इंडियन ऑइल और गेल मिलकर करीब 26000 रुपए का योगदान कर चुकी हैं, जबकि 22000 करोड़ रुपए की भरपाई खुद तेल विपणन कंपनियों ने अपने दूसरी कमाइयों के जरिये की है। कुल मिलाकर छह महीनों में 93000 करोड़ रुपए के नुकसान की भरपाई का इंतजाम हो चुका है। कच्चे तेल के दाम यदि इसी स्तर के आसपास रहे तो बाकी तीन महीनों में तेल कंपनियों को अतिरिक्त भरपाई की जरूरत नहीं होगी।

प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह, वित्तमंत्री रहे पी. चिदंबरम तेल कंपनियों के नुकसान की भरपाई के लिए जारी होने वाले तेल बाँड का भविष्य की पीढ़ी पर बोझ बताते हैं। पिछले तीन-चार साल में अरबों रुपए के तेल बाँड जारी किए जा चुके हैं, जिसका खामियाजा आने वाली पीढ़ी और सरकारों को भुगतना होगा। इस समस्या का निदान पेट्रोलियम पदार्थों के दाम तय करने के एक अदद फार्मूले से ही हो सकता है।