गुरुवार, 19 दिसंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. समाचार
  2. आजादी का अमृत महोत्सव
  3. कल, आज, कल
  4. Vikram Bhatt talks about change in film making and film music in last 75 years
Written By
Last Updated : बुधवार, 10 अगस्त 2022 (16:48 IST)

हमें हमारी संस्कृति और सभ्यता के अनुसार ही फिल्में बनाना चाहिए: विक्रम भट्ट

हमें हमारी संस्कृति और सभ्यता के अनुसार ही फिल्में बनाना चाहिए: विक्रम भट्ट - Vikram Bhatt talks about change in film making and film music in last 75 years
फिल्ममेकर विक्रम भट्ट लंबे समय से फिल्में बना रहे हैं। बचपन से ही उन्होंने सिनेमा और सिनेमा मेकिंग को नजदीकी से देखा है। विक्रम भट्ट ने आजादी के बाद से लेकर अब तक की फिल्मों और गीत-संगीत को लेकर वेबदुनिया की रूना आशीष से बात की। भविष्य के सिनेमा पर भी उन्होंने प्रकाश डाला।  



 
बीते हुए कल का सिनेमा 
जब आप छोटे होते हैं तब फिल्मों के सामाजिक मुद्दे कम ही समझते हैं। आप पसंदीदा हीरो को देखने जाते थे। बचपन में मैं अमिताभ बच्चन की फिल्में पहले दिन पहला शो मैं देखता था। ताली और सीटी मारता था। उस दौर में टेलीविजन की खास पहुंच नहीं थी। मनोरंजन के लिए सिर्फ सिनेमा ही उपलब्ध था। लेकिन अब कई जॉनर ऐसे हैं जो टेलीविजन ने हथिया लिए हैं, जैसे सामाजिक मुद्दा। अब 'घर एक मंदिर' जैसी फिल्में कोई नहीं बनाता क्योंकि ये सब्जेक्ट टीवी के लिए है। 
 
मैं जब छोटा था तब शहर में एक-दो जगह ही अंग्रेजी फिल्में लगा करती थी। अब हर मल्टीप्लेक्स में अंग्रेजी फिल्म लगती है जिसमें शानदार स्पेशल इफेक्ट्‍स रहते हैं। पहले किसी से मुकाबला नहीं था और अब अंग्रेजी फिल्मों से मुकाबला है। अब वर्ल्ड सिनेमा भारत में पैर पसार चुका है। हम तकनीक के जरिये ही अंग्रेजी फिल्मों का मुकाबला कर सकते हैं। 
 
आज का सिनेमा 
जब मैं असिस्टेंट डायरेक्टर था तब मासेस फिल्म बनाने के लिए कहा जाता थे। एलिट ऑडियंस या सिटी ऑडियंस के लिए फिल्म बनाते थे तो लोग बुरा मानते थे। कहते थे फिल्म नहीं चलेगी। जब मल्टीप्लेक्स आए तो बात उलट गई। पांच-छ: शहरों के लिए फिल्में बनाई जाने लगीं और मास को लोग भूल गए। फिर ओटीटी आया तो ये पांच-छ: शहर वाले लोग ओटीटी पर फिल्में देखने लगे तो शहरी फिल्में पिटने लगी। अब जब दक्षिण भारतीय सिनेमा हिंदी बेल्ट में छा गया है तो एक बार फिर मास की याद लोगों को आने लगी।  

 
आने वाले कल का सिनेमा 
मेरी हाल ही में फिल्म 'जुदा होके भी' रिलीज हुई है। यह विश्व की पहली वर्चुअल फिल्म है। आजादी के अमृत महोत्सव के खुशी के माहौल में यह बात भी फख्र करने लायक है। अब मैं 'खिलौना' नामक फिल्म हिंदी और अंग्रेजी में बना रहा हूं। यह भी वर्चुअल फिल्म होगी। आजकल के गेम में वर्चुअल और सच्चाई में फर्क नहीं रह गया है। गेम बिलकुल रियल लगते हैं। वर्चुअल फिल्म में एक्टर असली हैं, लेकिन दुनिया कम्यप्यूटर जनरेटेड है। आप कुछ भी क्रिएट कर सकते हैं, घर, रास्ते, पहाड़, नदियां। इसमें आप एक्टर को डाल सकते हैं। 'जुदा होके भी' पूरी फिल्म कम्प्यूटर के जरिये बनाई गई है। आप फिल्म देख कर अनुमान नहीं लगा सकते कि ऐसा हुआ है। एक दौर ऐसा था जब हम लोकेशन के पास जाते थे, अब लोकेशन हमारे पास आता है। भविष्य में सिनेमा इसी तरह बनेगा।  
 
किस तरह की फिल्में बननी चाहिए 
हमारे दर्शकों में एक समस्या है। हम थोड़ा पाखंडी हैं। कोई पादली 'होली वॉटर' छिड़कता है तो हमें अच्‍छा लगता है। जब तांत्रिक कोई क्रिया करता है तो हमें अच्छा नहीं लगता। हम कहते हैं कि ये सब क्या हो रहा है। मैंने तो हमेशा मासेस के लिए ही फिल्में बनाई हैं। हमें हमारे स्टाइल से फिल्म बनाना चाहिए और किसी की नकल नहीं करना चाहिए। हमारी फिल्मों में गाने होते हैं तो इसमें कोई बुराई नहीं है। विदेशी फिल्मों में गाने नहीं होते हैं। तो हम अपने आपको परिवर्तित क्यों करें? हमें हमारी संस्कृति और सभ्यता के अनुसार ही फिल्म बनाना चाहिए। 
 
फिल्म संगीत : कल आज और कल 
लक्ष्मी-प्यारे, आरडी बर्मन, कल्याणजी-आनंदजी वाला दौर अब संगीत में नहीं रहा। अब कुछ गाने हिट होते हैं, लेकिन उनमें माधुर्य नहीं है। अब साहिर, बक्शी साहब, मजरूह साहब जैसे शायर भी नहीं हैं। अच्छे शायरों को कोई मौका नहीं देता। गीतकारों पर फिल्ममेकर दबाव डाल कर अपने हिसाब से शब्दों को फिट कराते हैं। सरलता से कहे जाने वाले गीत अब लिखे नहीं जा रहे हैं। मैं एक फिल्म कर रहा था जिसमें आनंद बख्शी गीत लिख रहे थे। आजकल दो दो-तीन अंतरे लिखने में गीतकार दम तोड़ देते हैं। बख्शी साहब सात से दस तक अंतरे लिख देते थे। ये जो कमाल और गुण है वो आज नदारद है।