अभी कुछ ही दिन बीते हैं जब सारी महिलाएँ एकजुट हुईं। आपस में मिलीं, बैठीं, बात की और शाम ढलते ही फिर घरों की ओर लौट गईं। घर पर जाकर उन्होंने रोजमर्रा के काम किए और अपने 'महिला दिवस' को अगले साल फिर ऐसे ही धूमधाम से मनाने के लिए सहेज कर रख दिया।
इस अंतरराष्ट्रीय दिन को हर उम्र की महिला ने अपने हिसाब से मनाया। सिल्क और शिफॉन में लिपटी, विदेशी परफ्यूम की खूशबू से सराबोर, अपनी स्थूल काया को लगभग घसीटते हुए सी सब एक जगह इकट्ठा हुईं। साथ में कुछ आदिवासी और निचले तबके की महिलाओं को भी इकट्ठा किया गया, ताकि उनके आयोजन के औचित्य पर कहीं कोई प्रश्न चिह्न न लगा दे।
इसके बाद वही सब कुछ हुआ जो सामान्यतः किसी आयोजन में होता है। जैसे भाषण, सम्मान, घोषणाएँ आदि हमेशा की तरह समोसे और चिप्स खाई गई और जब इनसे थक गए तो कसमें खाई गईं कि महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे आना ही चाहिए। महिलाएँ समाज की दर्पण हैं, इन्हें सहेज कर रखा जाना चाहिए। यह घोषणाएँ भी उतनी ही रंगीन थी, जितने उनके लिपस्टिक के रंग। हर संस्था ने दूसरी संस्था के लोगों को शॉल, श्रीफल भेंट देकर उन लोगों को सम्मान दिया और बदले में सम्मान पाया।
अभी कुछ ही दिन बीते हैं जब सारी महिलाएँ एकजुट हुईं। आपस में मिलीं, बैठीं, बात की और शाम ढलते ही फिर घरों की ओर लौट गईं। घर पर जाकर उन्होंने रोजमर्रा के काम किए और अपने 'महिला दिवस' को अगले साल फिर ऐसे ही धूमधाम से मनाने के लिए सहेज कर रख दिया।
अगले दिन भी वही नजारा था। हर अखबार में महिला दिवस हर्षोल्लास से मनाए जाने की खबरें थीं। यह दिन क्यों मनाया गया? किसलिए मनाया गया, इसकी खबर न आयोजनकर्त्ताओं को थी न इस आयोजन में भाग लेने वालों को। सभी बस इतना ही जानते है कि 8 मार्च वह तारीख है, जिसे महिला दिवस कहा जाता है। बस इन दिन किसी भी (सभ्रांत) महिला से पंगा नहीं लेना है। आठ मार्च उदित तो हुआ था बिल्कुल आम दिनों की तरह, लेकिन फिजाँ कुछ बदली हुई थी। नौ बजे तक सोने वाली मैडम आज सुबह से ही मंच बनवाने में व्यस्त थीं।
यहाँ मौसम जरूर कुछ बदला बदला सा था, लेकिन सात साल की कमला वैसे ही बर्तन माँजने गई, मंगू ने रतिया को आम दिनों की तरह दारू पीकर पीटा, लक्ष्मी फिर से पेट भर खाना खाने की आस में आज फिर पानी पी कर सो गई। आठ मार्च आया और चला गया। जिस वर्ग को इसकी जरूरत थी, उसे इसका एहसास भी नहीं हुआ और उन्हें पता चल भी जाता तो एक दिन में फर्क क्या पड़ने वाला था, क्योंकि बाकी 364 दिन वे लोग वैसे ही जिएँगे।
अब आप ही सोचिए क्या औचित्य है ऐसे दिनों को मनाने का, जिसके साथ कोई उद्देश्य ही न हो। यदि कुछ लोग इसके साथ उद्देश्य लेकर चलते भी हैं तो वह नगाड़े में तूती की आवाज की तरह होता है, जिसे बमुश्किल एक कॉलम की जगह मिल पाती है। यदि हमें किसी की मदद करना है, किसी का जीवनस्तर सुधारना है तो हम आठ मार्च का इंतजार करें यह जरूरी नहीं। यह काम हम आज से अभी से शुरू कर सकते हैं।