करीब एक दशक से संसद की एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित करने की बात हो रही है, लेकिन इसके पक्ष में आज तक कोई बिल भी नहीं लाया जा सका हैं। वर्तमान में संसद के दोनों सदनों को मिलाकर भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व दस फीसदी भी नहीं है।
कैफी आजमी ने इस गीत को काफी पहले से लिखा था शायद उनकी इसी सोच ने शबाना आजमी को महिला होने का गर्व दिया। आज हमारे आसपास कई ऐसी महिलाएँ हैं जो पुराने केचुल को उतारकर अपने महिला होने पर गर्व करती हैं।
मार्गरेट थैचर ने एक बार कहा था- यदि आप अपनी बात आगे बढ़ाना चाहते हैं तो पुरुष से कहिए और यदि आपकी इच्छा है कि वो काम पूरा हो जाए, तो महिला से कहिए। यह बात भारत के हालिया विकास पर सटीक बैठती है।
पिछले कुछ दशकों से ज्यों-ज्यों महिला साक्षरता में वृद्धि होती आई है, भारत विकास के पक्ष पर अग्रसर हुआ है। इसने न केवल मानव संसाधन के अवसर में वृद्धि की है, बल्कि घर के आँगन से ऑफिस के कैरीडोर के कामकाज और वातावरण में भी बदलाव आया है।
भारत में कम होती लड़कियों की संख्या चिंता का विषय हो गई है। यह चिंता इस बात से केवल नहीं है कि लड़कियाँ कम हो रही हैं, बल्कि कुछ दिनों बाद ऐसी भी स्थिति बन जाएगी कि इससे अस्तित्व पर संकट आ जाएगा। तकनीकी विकास का लोगों ने दुरुपयोग करना भी
नेहरूजी ने एक बार कहा था कि किसी भी देश की तरक्की का आकलन उस देश में महिलाओं की स्थिति को देखकर किया जा सकता है। लेकिन विकास के इस दौर में महिलाएँ कहीं पीछे छूट गईं। तकनीकी विकास ने प्रगति में तो उछाल दी लेकिन लोगों की मानसिकता को
भारतीय संविधान में महिला और पुरुषों को समान अधिकार मिले हैं। इसकी प्रस्तावना में सभी नागरिकों को अवसरों की समानता का अधिकार दिया गया है। संविधान के अनुच्छेद 14 में स्त्री और पुरुषों के सामाजिक,
बड़े शहरों के बारे में यह आम धारणा रहती है कि वहाँ सब कुछ दूसरे शहरों और गाँवों से बेहतर होगा, लेकिन इस बात की भूल महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों में नहीं करनी चाहिए। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्योरों के पिछले साल के आँकड़ों पर
महादेवी वर्मा की कविता है- मैं नीर भरी दु:ख की बदली...। लड़कियाँ मानो माटी की गुड़िया हों। हर मोड़ पर टूटने और बिखरने का डर है। हर मोड़ पर परेशानियाँ। पैदा होने पर परेशानी, पहले ही पता लगा लेते हैं और गर्भ में ही मार दिया जाता है।
अपराधी तब तक अन्याय करता है, जब तक कि उसे सहा जाए। कुछ दिनों पहले अलग-अलग मामलों में कई आरोपियों को सजा सुनाई गई। दरअसल न्याय व्यवस्था में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। बल्कि इन वर्षों में अपराध को छुपाने और अपराधी से डरने की
महिलाएँ अपने अधिकारों का सही इस्तेमाल नहीं कर पातीं, अदालत जाना तो दूर की बात है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि महिलाएँ खुद को इतना स्वतंत्र नहीं समझतीं कि इतना बड़ा कदम उठा सकें। जो किसी मजबूरी में (या साहस के चलते) अदालत जा भी पहुँचती हैं
'नारी की उपलब्धियाँ पिछली सदी के आखिरी दशक से परवान चढ़ी हैं। इस सदी के पहले पायदान पर वह मजबूती से खड़ी है। हर जगह उसकी पूछपरख बढ़ी है। उसने ठान लिया है...मान लिया है...चट्टानों से टकराना जान लिया है...।
महिला दिवस का औचित्य तब तक प्रमाणित नहीं होता जब तक कि सच्चे अर्थों में महिलाओं की दशा नहीं सुधरती। महिला नीति है लेकिन क्या उसका क्रियान्वयन गंभीरता से हो रहा है। यह देखा जाना चाहिए कि क्या उन्हें उनके अधिकार प्राप्त हो रहे हैं।
महिला सशक्तीकरण का लक्ष्य प्राप्त करना उतना आसान नहीं है, क्योंकि कुरीतियों और कुप्रथाओं का 'पग-पसारा' विषम मायाजाल बुनता रहता है। भारतीय समाज में दहेज प्रथा, कम उम्र में विवाह, भ्रूण हत्या, गरीबी
आज नारी की जो छवि टी.वी. सीरियलों में, सिनेमा के रुपहले पर्दे पर व विज्ञापनों में दिखाई जा रही है, उसमें आधुनिकता व स्वतंत्रता के नाम पर नग्नता व शारीरिक प्रदर्शन
एक भी दिन आपका दिन कॉफी के बगैर शुरु नहीं होता। ऑफिस में या दोस्तों के साथ आप जंक फूड लगभग रोज ले ही लेती हैं और सेलफोन तो आपकी जान है। किसी दिन घर छूट जाए या रीचार्ज खत्म हो जाए तो आप हो जाती हैं उदास।
आज चारों तरफ महिलाएँ हर क्षेत्र में अपना परचम लहरा रही हैं। कोई भी क्षेत्र हो, महिलाएँ पुरुषों से पीछे नहीं हैं। आज की महिला जिस जवाबदारी से व्यावसायिक दुनिया में सफल हो रही है, उतनी ही कुशलता से वह घर-गृहस्थी की जिम्मेदारी भी निभा रही है।