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Written By ND

आजादी की ब्रेड और विश्वास का बटर

आजादी की ब्रेड और विश्वास का बटर -
- स्मृति जोशी
SubratoND

मेरी कोमल उड़ान को नजर मत लगाओ।
ठंडी नशीली बयारों में अपना आँचल लहराने
दो मुझे। भर लेने दो मेहँदी की खुशबू मुझे
अपनी सघन रेशमी जुल्फों में।
चूमने दो नाजुक एड़ियाँ चमकीली पायल को।
मुझे अपना मौसम जीने दो।
कौन चाहती है भटकना, बहकना?
मुझे मिल जाए अगर सच्चा प्यार। सिर्फ मेरा प्यार।
तो क्या देंगे मुझे 'ब्रेकफास्ट' में आजादी की
'ब्रेड' पर विश्वास का 'बटर'???

एक छटपटाता-कसमसाता सच्चा सपना। आज की युवा स्त्री का अनाभिव्यक्त सपना। मुट्ठी भर इच्छाओं की रेत हथेलियों से सरकती रहे और वह बार-बार समेट ले। इसके बीच भी कुछ है, जिसे वह कसकर थामे रखना चाहती है। सामाजिक मूल्यों के बदलाव का शिकार वह अवश्य हुई है। तकनीकी क्रांति ने उसके हौसलों में इजाफा किया है। मनोरंजन और प्यार की भी परिभाषाएँ बदली हैं और बदलें हैं उसके सपने भी। लेकिन नहीं बदला है एक सपना। उसके अंतर्मन के भीतरी कोने में आज भी कहीं साँस ले रहा है वह। भोला, मीठा और गहरा।

इस सपने की मौत कभी नहीं होती। हजारों-हजार साल बूढ़ा यह सपना झुर्रीदार आँखों में भी युवा होकर दमकने लगता है। सदियाँ बीत जाएँगी पर कोई नहीं समझ सकेगा कि आखिर क्या चाहती है वह? फिल्म 'पहेली' की 'लाछी' (रानी मुखर्जी) की दुविधा में छुपा है उसका सपना। आज की 'लाछी' अपनी जींस की पिछली जेब में फ्लर्टिंग के तमाम किस्से रखकर भी चाहती है एक ऐसा प्यार, जो कहीं से भी आए, कैसे भी आए पर आए तो सिर्फ उसके लिए। वह, जो हो बस उसका, पूरा का पूरा। आधा-अधूरा, कटा-छँटा-बँटा और बिखरा हुआ नहीं। चाहे तो शाहरुख की तरह भूत बनकर आए। पर आए...।

मन की सौंधी धरा पर चाहे-अनचाहे, मीठे-कड़वे-आकर्षण, अफेयर, फ्लर्टिंग के कितने ही कोमल-कठोर किस्से दबे हों। गाहे-बेगाहे सिर उठाते सुरीले-जहरीले किस्से, जिन्हें वह दबा देती है, अपने इरादों के गर्म हथौड़ों से। जब नहीं दबा पाती है तब लहूलुहान हो जाती है उसकी मन-धरा। कौन कहता है प्यार में आधुनिकाओं के दिल नहीं टूटते, उन्हें जख्म नहीं मिलते? क्या वे क्रूर हो गई हैं, भावुक नहीं रही? आज तो देश का सिनेमा भी बता रहा है कि मन की पवित्रता पर तन की पाशविकता हावी हो गई है। अगर यह सच है तो फिर भला कैसे 'जिस्म' 'हवस' 'मर्डर' जैसी उन्मुक्त फिल्मों के बीच 'वीर जारा' लुभा गई?
  तो समाज के समक्ष स्वतंत्र नारी भी कितनी स्वतंत्र है? जीवन में न जाने कितने, कैसे- कैसे मोड़ आते हैं। कभी मीठी फुहारों से भीगे, कभी भयानक, तीखे, घुमावदार। अनचाही-अनकही न जाने कितनी ऐसी बातें हैं जिन्हें रास्ता नहीं मिलता। दुबकी-सहमी होती है।      


क्या आज की युवतियों में भोलापन नहीं रहा? उन्हें पीड़ा नहीं होती? बिलकुल होती है क्योंकि मन तो आखिर मन होता है। प्रेम फिर भी प्रेम होता है। टूटने-बिखरने-बिछुड़ने की वेदना आज भी उतनी ही सघन व्याकुलता लिए होती है। अंतर बस इतना है कि प्रतिक्रियाएँ बदल गई हैं। टूटकर बर्बाद होने की जगह आज की प्रखर युवतियाँ फिर उठ खड़ी होती हैं। बिखरकर अस्तित्व खो देने का भाव अब सिमटकर
खड़े होने में परिवर्तित हो गया है।

हो सकता है, कभी किसी अन्य साथी से बँधकर अभिव्यक्त हों उसकी भावनाएँ। अगर ऐसा है भी तो थोड़ा ठहरकर सोचें। भला, इसमें गलत क्या है? यहाँ 'भटकाव' की आवाज बुलंद करने की मंशा नहीं है। किंतु क्या तेजी से बदलते युग में दिल के टुकड़े लिए इस इंतजार में बैठा जा सकता है कि कोई आएगा उन्हें जोड़ने? क्या उससे बेहतर स्थिति नहीं है यह कि खुद ही उसे जोड़कर फिर तैयार हो जाएँ जिंदगी को जीने के लिए। भटकाव हर युवती का चरित्र नहीं है। पीड़ा की गहनता अलग-अलग परिस्थितियों में बदल सकती है। यदि छोड़कर जाने वाला सुयोग्य नहीं था तब क्यों और किसलिए रोएँ? तो प्यार वही है, तरीके-सलीके और प्रस्तुति बदल गई है। भाव वही है, मूल्यों में बदलाव हुआ है बस।

समय काटने के लिए, मन-बहलाव के लिए, स्टेटस के लिए प्यार का नाटक करने वाला मन भी आखिर सच्चा प्यार चाहता तो है। आखिर क्यों? इसलिए न कि कायम है आज भी उसका कोमल भाव, सौंदर्य और मासूमियत। बड़ी विचित्र मन-धरा है युवतियों की। जो प्यार के नन्हे पौधे बड़े अरमान से माटी में उतारे जाते हैं वह नियति की ख्वाहिशों के चलते पनप नहीं पाते। और जिन जंगली झाड़ियों को वह हटा देना चाहती है, अनचाहे वे फैलती रहती हैं, इच्छा के विरुद्ध। क्या करें? क्या न करें?

थक-हारकर उन्हीं झाड़ियों में तलाशने लगती है वह अपने सपनों की किरचें। धोखा आँख का नहीं, मन का भी नहीं ईश्वरीय छलावा है। कौन सजा पाता है अपनी मन-बगिया को अपने ही अरमानों के मुताबिक? जिस फूल का सौंदर्य मोहता है, उसके लिए धरा उर्वर नहीं होती। जो फूल खुद खिल उठे उसे सहेजने का साहस नहीं कर पाती। कभी कँटीली झाड़ियों के बीच अनचाहा क्रूर फूल उठ आता है और वह उसे उखाड़ भी नहीं पाती।

अजीब स्थिति है। तो समाज के समक्ष स्वतंत्र नारी भी कितनी स्वतंत्र है? जीवन में न जाने कितने, कैसे- कैसे मोड़ आते हैं। कभी मीठी फुहारों से भीगे, कभी भयानक, तीखे, घुमावदार। अनचाही-अनकही न जाने कितनी ऐसी बातें हैं जिन्हें रास्ता नहीं मिलता। दुबकी-सहमी होती है मानस के कोने में।

कभी प्रश्न करती है- क्यों आऊँ जुबान पर? लेखनी पर? क्यों कहा जाए मुझे। क्यों लिखा जाए मुझे? और कभी एक भोली खुशी बनकर नन्ही रंगीन चिड़िया जैसी चिहुँकती रहती है दिन भर दिल के भीतर...दिल के पिंजरे में फुदकती वह चिड़िया होंठों के द्वार से कभी नहीं निकलती। ये मासूम चंचल चिड़िया ही है- 'प्यार'।
सच्चा और केवल सच्चा प्यार...।

तो-
'होंठों की जुबाँ आँसू कहते हैं, चुप रहते हैं
फिर भी बहते हैं आँसुओं की किस्मत तो
देखिए ये जिनके लिए बहते हैं
वो आँखों में ही रहते हैं।