निर्मला पुतुल एक ऐसी कवयित्री हैं, जो संथाल परगना के आदिवासी परिवार में जन्मी हैं। उनकी कॉलेज की शिक्षा नहीं हो पाई लेकिन उन्होंने जीवन की किताब खुली आँखों से पढ़ी है। खासकर अपने आसपास की स्त्रियों के सुख-दुःख को उन्होंने साझा किया है। इसलिए उनकी कविताओं की स्त्री शब्दों की नहीं, बल्कि हाड़-मांस की बनी लगती है।
उनकी कविता की एक स्वयं को तलाशती स्त्री पूछती है, 'यह कैसी विडंबना है कि हम सहज अभ्यस्त हैं, एक मानक पुरुष दृष्टि से देखने को स्वयं की दुनिया। मैं स्वयं को स्वयं की दृष्टि से देखते मुक्त होना चाहती हूँ...।'
जब स्त्री स्वयं की दृष्टि से स्वयं को देखना सीख जाती है तो वह काफी हद तक बाहरी दिखावों और बाहरी दबावों से मुक्त होना भी सीख जाती है। एक शक्तिवान स्त्री वही नहीं जो सत्ता के शिखर पर बैठी हो (वह तो है ही)। एक शक्तिवान स्त्री वो भी है, जिसमें स्वयं को पुनराविष्कृत करने का जज्बा हो।
अन्याय का प्रतिकार करने और गलत बात के लिए ना कहने का साहस हो। जिसके पास रूढ़ियों के पार जाकर सोचने की विचार प्रक्रिया और रूढ़ियाँ तोड़ने का कलेजा हो। ऐसी स्त्रियाँ स्वयं के लिए ही सड़ी-गली रूढ़ियों की कैद नहीं तोड़तीं अपितु वृहद परिवर्तन का आगाज करने की क्षमता रखती हैं। लेकिन यह संभव तब हो पाता है जब वह स्वावलंबी हो, आत्मनिर्भर हो।
निर्मला पुतुल एक ऐसी कवयित्री हैं, जो संथाल परगना के आदिवासी परिवार में जन्मी हैं। उनकी कॉलेज की शिक्षा नहीं हो पाई लेकिन उन्होंने जीवन की किताब खुली आँखों से पढ़ी है। खासकर अपने आसपास की स्त्रियों के सुख-दुःख को उन्होंने साझा किया है।
आर्थिक आत्मनिर्भरता भी एक जरूरी आधार है। शिक्षा, स्वास्थ्य, जागरूकता, ज्ञान, सृजनात्मक अभिव्यक्ति का अधिकार ये सब भी वे जरूरी आधार हैं, जो एक स्त्री को आत्मविश्वासी और सबल बनाते हैं। पुतुल की कविता पर ही लौटें तो वे अपनी बिटिया मुर्मू को यही आह्वान करती हैं-
'उठो कि अपने अँधेरे के खिलाफ उठो उठो अपने पीछे चल रही साजिश के खिलाफ उठो, कि तुम जहाँ हो वहाँ से उठो जैसे तूफान से बवंडर उठता है उठती है जैसे राख में दबी चिंगारी। देखो! अपनी बस्ती के सीमांत पर जहाँ धराशायी हो रहे हैं पेड़ रोज नंगी होती बस्तियाँ एक रोज माँगेंगी तुमसे तुम्हारी खामोशी का जवाब...।'
हालाँकि इस वक्त स्त्री के जीवन स्तर के विकास हेतु कई योजनाएँ बन रही हैं, कई तगड़े कानून भी आए हैं। कई स्त्रियों को इसका फायदा भी मिल रहा है मगर फिर भी देश में ऐसी स्त्रियों का बहुत बड़ा प्रतिशत है जो उनके लिए ही बनी योजनाओं और कानूनों का फायदा नहीं उठा पाती क्योंकि उन्हें इनकी जानकारी ही नहीं है।
थोड़ी-बहुत जानकारी भी है तो पहुँच सीमित है। फिर लैंगिक भेदभाव, रूढ़ियाँ, असहयोग और भ्रष्टाचार जैसे तत्व भी हैं जो स्त्री को फायदा पहुँचने ही नहीं देते हैं। शहरी मध्यम वर्ग में लड़कियों के प्रति बर्ताव में काफी सकारात्मक परिवर्तन भी आए हैं। मगर गाँव-कस्बों में आज भी बाल विवाह हो रहे हैं, ढेर सारी लड़कियाँ स्कूल का मुँह नहीं देख पा रही हैं, आम स्त्री के पास स्वास्थ्य रक्षा के उपाय नहीं हैं।
सच तो यह है कि सामाजिक इच्छाशक्ति के बगैर कानून और योजनाएँ अपना काम पूरी तरह नहीं कर पाएँगे। यह उन पढ़े-लिखे और शक्तिसंपन्न स्त्री-पुरुषों का कार्य है कि वे उनको आवाज दें। जिनके पास अपनी आवाज नहीं है उनके लिए मुद्दों को उठाएँ।