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ग़ज़ल : मजरूह सुलतानपुरी
पेशकश : अज़ीज़ अंसारीकब तक मलूँ जबीं से उस संग-ए-दर को मैं ऎ बेकसी संभाल, उठाता हूँ सर को मैं किस किस को हाय, तेर तग़ाफ़ुल का दूँ जवाब अक्सर तो रह गया हूँ झुका कर नज़र को मैंअल्लाह रे वो आलम-ए-रुख्सत के देर तक तकता रहा हूँ यूँ ही तेरी रेहगुज़र को मैं ये शौक़-ए-कामयाब, ये तुम, ये फ़िज़ा, ये रात कह दो तो आज रोक दूँ बढ़कर सहर को मैं