सत्ता विचार से ऊपर होती है, शायद इस बात को आने वाले चुनाव में तय कर दिया गया है। विधानसभा चुनाव में दल बदलकर आए लोगों की बाढ़-सी आ गई है। समर्पण और विचार को पीछे धकेलकर हर राजनीतिक दल बाहरियों को ही तरजीह देते हैं।
यह कोई पहला चुनाव नहीं, ऐसा कई बार से होता आ रहा है। अक्सर धरना प्रदर्शन में आगे रहने वाले, पोस्टर चिपकाने वाले, विचार का प्रसार करने वाले आदि लोग चुनाव आते ही विलुप्त कर दिए जाते हैं। उसका ताजा उदाहरण 5 राज्यों में हो रहे चुनावों में देखने को मिल रहा है। जहां पर सत्ता के लिए नेता सबसे आगे हैं तथा कार्यकर्ता और विचार पीछे हैं।
संगठन का निर्माण सत्ता के लिए होता है, तो कार्यकर्ताओं से समर्पण क्यों करवाया जाता है? मजदूर भी बाजार से लाए जा सकते हैं। विचार का जब ह्रास होना है तो बहसें क्यों होती है? यदि सत्ता का इतना ही महत्व है तो फिर संगठन और विचार की उत्पत्ति ही क्यों हुई? ये कुछ प्रश्न हैं, जो चुनाव में देखने को मिलते हैं। लेकिन इनका जिक्र किसी भी घोषणा पत्र में नहीं होता है।
उत्तर प्रदेश में इसी को लेकर पूरा चुनाव संशय में चला गया है। कुछ लोग तो विचार की कसमें खाते हैं और अब उनके विचार तख्त पर टंगे हैं। कुछ लोग महापुरुषों की कसमें खाते हैं। वे सब झूठी साबित हो रही हैं। चुनाव में सत्ता सबसे आगे है।
समाजवादी पार्टी लोहिया के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए आगे आई थी, लेकिन शायद अब उसमें ऐसे कोई विचार नहीं है। वह सिर्फ सत्ता पाने के लिए ही आतुर दिखी। परिवार की लड़ाई के सड़क पर आने के बाद कार्यकर्ताओं के विचारों और समर्पण की हत्या हुई। पिता-पुत्र का संघर्ष भी सत्ता के लिए था लेकिन उसमें निष्ठावान समाजवादी कार्यकर्ताओं की बलि चढ़ गई। उसमें से किसी को अपनी सीट गंवाकर यह भुगतना पड़ रहा है। उनके चाचा शिवपाल यादव, जो पार्टी को खड़ा करने के लिए दिन-रात परिश्रम करते थे, भी एक ही सीट पर केंद्रित हैं। उनके विचार और त्याग को कुछ नहीं समझा गया लेकिन आयातित लोगों की चांदी हो गई है। वे विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए लगातार आगे बढ़ रहे हैं।
समाजवादी पार्टी ने मौजूदा विधायकों का टिकट काट दिया है। भदोही के ज्ञानपुर से विधायक विजय मिश्रा का टिकट कटने के बाद उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। सीतापुर के विसवां से विधायक रामपाल को टिकट न मिलने के बाद वे लोकदल से उम्मीदवार बन गए हैं। विधान परिषद के सभापति रमेश यादव के पुत्र आशीष यादव का टिकट कटने से वे लोकदल से चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके हैं। इसी प्रकार कासगंज पटियाली से टिकट की दावेदारी कर रही नाशी खां का भी टिकट कट गया है।
इसी प्रकार कांग्रेस ने भी गठबंधन में अपने कार्यकर्ताओं की अनदेखी की है। बुलंदशहर के शिकारपुर विधानसभा क्षेत्र के सभी कार्यकर्ताओं ने इस्तीफा दे दिया है। इसी प्रकार कांग्रेस ने शुरू से ही अपने क्षेत्र में तैयारी कर रहे कार्यकर्ताओं को गठबंधन से बहुत बड़ा झटका मिला है। वे विरोध कर रहे हैं। कांग्रेस में संगठन लगातार कमजोर है। कार्यकर्ताओं की बगावत से वह और ज्यादा कमजोर होगी, इस बात का ध्यान संगठन को रखना चाहिए था। लेकिन सत्ता के लालच वे यह सब भूल गए।
इसी प्रकार भारतीय जनता पार्टी चाल, चरित्र और चेहरे की बात तो करती है, पर उसने अपनी सूची में इस बात का ख्याल नहीं रखा है। उसने लगातार कार्यकर्ताओं की अवहेलना करते हुए दलबदलुओं को सत्ता का सुख भोगने के लिए आगे बढ़ा दिया। दो दर्जन से ज्यादा सीटों पर दलबदलुओं को टिकट मिलने से सालों से पार्टी के साथ जुड़े नेता भी खफा हैं। बीजेपी ने पाला बदलकर आने वाले कई नेताओं को विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार बनाया है। इसे लेकर ज्यादा नाराजगी है, जो पार्टी पर भारी भी पड़ सकती है। इसकी बानगी है कि बरेली के संतोष गंगवार (कैबिनेट मंत्री) के साले वीरेंद्र सिंह वीरू ने जिला महामंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है।
बसपा से बीजेपी में शामिल हुए केसर सिंह को नवाबगंज से टिकट मिलने से सीट के प्रमुख दावेदार एमपी आर्या ने तो प्रदर्शन कर अपना विरोध ही जता दिया। अशोक प्रधान को शामिल करने से कल्याण सिंह ने नाराजगी जताई है। भाजपा में शामिल हुए बसपा एमएलए ममितेश शाक्य भी अपनी सीट बदल जाने से परेशान हैं। लखीमपुर खीरी से योगेश वर्मा को टिकट दिए जाने से प्रदेश मंत्री भी खफा हो गए हैं। इसी प्रकार इलाहाबाद से नंदी गुप्ता को प्रत्याशी बनाए जाने पर भी वहां के लोग खफा हैं। अयोध्या के वेदप्रकाश गुप्ता का जमकर विरोध हुआ। राष्ट्रीय व प्रदेश अध्यक्ष के पुतले भी फूंके गए।
प्रत्याशी जनाधार वाला हो, जिताऊ हो तो दलबदल के बाद भी उसे टिकट देने का औचित्य समझ में आता है लेकिन पराजित दलबदलुओं पर भी खूब मेहरबानी हुई है। गृहमंत्री के क्षेत्र में बसपा, कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा व मेयर का चुनाव हारने वाले नीरज बोरा पर विश्वास किया गया है। अरिदमन सिंह राजनाथ सरकार में मंत्री थे। मौका देखकर वे सपा में गए। वहां मंत्री बने। 5 वर्ष सत्ता का सुख भोगा। अधिसूचना जारी होने के बाद भाजपा में आ गए। उनकी पत्नी को टिकट मिला। 5 वर्ष तक अरिदमन की उपेक्षा झेल रहे भाजपा कार्यकर्ताओं को उनकी पालकी क्यों ढोनी चाहिए?
इसी प्रकार अंबेडकर के विचारों को आगे बढ़ाने वाली मायावती ने भी कार्यकर्ताओं की अनदेखी की है। उन्होंने फेफना विधानसभा से सपा से आए अम्बिका चौधरी को प्रत्याशी बनाया है। अमेठी के मोहम्मद मुस्लिम के बेटे को वहां का प्रत्याशी बनाया गया है। बाराबंकी में बहुजन समाज पार्टी ने पूर्व प्रशासनिक अधिकारी बीपी सिंह वर्मा को अपना प्रत्याशी बनाया है जिसका खुद पार्टी के कार्यकर्ता ही कड़ा विरोध कर रहे हैं। कार्यकर्ताओं का आरोप है कि वर्मा 1995 में मायावती के खिलाफ हुए गेस्ट हाउस कांड में शामिल थे।
कौमी एकता दल का विलय किस विचारधारा के तहत हुआ कि आते ही उन्हें 3 सीटें मिल गईं, इसका जवाब मायावती के पास नहीं है। मिशन से जुड़ा बसपा कार्यकर्ता देखता रहता और धनबली, बाहुबली टिकट ले जाते हैं। केवल वोट बैंक साधने के चक्कर में माफिया विधायक मुख्तार अंसारी के पूरे परिवार को टिकट दे दिया गया है। मऊ की घोसी सीट से वसीम इकबाल का टिकट काटकर मुख्तार के बेटे अब्बास अंसारी को टिकट दिया गया है। गाजीपुर की मोहम्मदाबाद सीट से विनोद राय का टिकट काटकर मुख्तार के बड़े भाई सिगबतुल्लाह अंसारी को टिकट दिया गया है। मऊ सदर से मनोज राय का टिकट काटकर मुख्तार अंसारी पर उन्होंने भरोसा जताया है।
बसपा ने चुनाव से लगभग 3 साल पहले टिकट घोषित कर दिए थे, ऐसे में उसकी पार्टी के विचारों को जनता तक पहुंचाने वाले प्रत्याशियों का भविष्य बर्फ में लगा दिया गया। वहां के कार्यकर्ताओं के विचारों का भी हनन किया गया। उनकी अनदेखी भी की गई। इसका कितना फायदा मिलेगा? यह भविष्य के गर्त में है।
चुनावों की आहट के साथ 'आया राम-गया राम' का खेल शुरू हो जाता है। इस खेल में तमाम दूसरे दलों के नेताओं को नया बसेरा ढूंढना रहता है, ऐसे में निष्ठावान और समर्पित कार्यकर्ताओं की बलि चढ़ा दी जाती है। कार्यकर्ताओं को लगता है कि 5 वर्षों तक सड़कों पर लड़ने के लिए वो थे, वहीं अब जब टिकट की बारी आई तो उन्हीं नेताओं के हाथ जा रही है जिनसे वो लड़ते आए हैं।
राजनीतिक दल भले ही इस बात से उत्साहित हों कि उनकी पार्टी में आने वालों ने पार्टी दफ्तर के बाहर लाइन लगा रखी है, लेकिन इससे विचारवान, निष्ठावान कार्यकर्ताओं के बगावत करने का खतरा भी मंडराता रहता है। ऐसा नहीं कि यह सिर्फ उत्तरप्रदेश में ही लागू होता है। इसका उदाहरण अन्य राज्यों में हमेशा से देखने को मिलता है।
अगर राजनीतिक दलों का सपना सिर्फ सत्ता पाने का है तो उनका कोई विचार नहीं होना चाहिए। अगर कार्यकर्ता की निष्ठा का गला घोंटना है तो फिर उन्हें तैयारी का आश्वासन नहीं देना चाहिए। बड़ी मुश्किल होती है कार्यकर्ता जोड़ने की। ऐसे में अवसरवादी या फिर दलबदलुओं पर मेहरबानी ठीक नहीं है।
राजनीतिक दलों का सत्ता में पहुंचने हेतु प्रयास करना या रणनीति बनाना अस्वाभाविक नहीं होता। लेकिन यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि दलबदलुओं की वजह से सत्ता नसीब होती है। इसकी एक सीमा हो सकती है। लेकिन कोई पार्टी बड़ी तादाद में दलबदलुओं को चुनाव में उतार दे तो यही समझा चाहिए कि उसका अपनी विचारधारा व काडर पर विश्वास नहीं है। इसके लिए पार्टी 5 वर्ष तक संघर्ष करने वाले अपने ही कार्यकर्ताओं की अवहेलना करती है। इसका नुकसान ही अधिक होता है।