पौराणिक गाथाओं के अनुसार भगीरथी नदी गंगा की उस शाखा को कहते हैं, जो गढ़वाल (उत्तरप्रदेश) में गंगोत्री से निकलकर देवप्रयाग में अलकनंदा में मिल जाती है व गंगा का नाम प्राप्त करती है। ब्रह्मा से लगभग 23वीं पीढ़ी बाद और राम से लगभग 14वीं पीढ़ी पूर्व भगीरथ हुए। भगीरथ ने ही गंगा को पृथ्वी पर उतारा था। परंतु गंगा के पूर्व कौनसी नदी थी या नहीं, क्योंकि भगीरथ तो लगभग अनुमानित 14 हजार वर्ष पूर्व ही हुए थे तो फिर इससे पूर्व कौनसी नदी थी। आओ इससे पूर्व जानते हैं गंगा का संक्षिप्त परिचय।
गंगा का परिचय : उत्तराखंड के गंगोत्री स्थान को गंगा का उद्गम मानते हैं। किंतु वस्तुत: उनका उद्गम 18 मील और ऊपर श्रीमुख नामक पर्वत से है। वहां गोमुख के आकार का एक कुंड है जिसमें से गंगा की धारा फूटी है। 3,900 मीटर ऊंचा गौमुख गंगा का उद्गम स्थल है। इस गोमुख कुंड में पानी हिमालय के और भी ऊंचाई वाले स्थान से आता है। यहां से निकलकर गंगा निकल गंगा पश्चिम बंगाल के गंगासागर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इस बीच गंगा कई धाराओं में विभक्ति होकर कई नाम से जानी जाती है। इस दौरान यह 2,300 किलोमीटर से ज्यादा का सफर तय करती है। इस बीच इसमें कई नदियां मिलती हैं जिसमें प्रमुख हैं- सरयू, यमुना, सोन, रामगंगा, गोमती, घाघरा, गंडक, बूढ़ी गंडक, कोसी, घुघरी, महानंदा, हुगली, पद्मा, दामोदर, रूपनारायण, ब्रह्मपुत्र और अंत में मेघना।
हिमालय से निकलकर गंगा 12 धाराओं में विभक्त होती है। इसमें मंदाकिनी, भगीरथी, ऋषिगंगा, धौलीगंगा, गौरीगंगा और अलकनंदा प्रमुख है। यह नदी प्रारंभ में 3 धाराओं में बंटती है- मंदाकिनी, अलकनंदा और भगीरथी। देवप्रयाग में अलकनंदा और भगीरथी का संगम होने के बाद यह गंगा के रूप में दक्षिण हिमालय से ऋषिकेश के निकट बाहर आती है और हरिद्वार के बाद मैदानी इलाकों में प्रवेश करती है। यह नदी 3 देशों के क्षेत्र का उद्धार करती है- भारत, नेपाल और बांग्लादेश। नेपाल, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल और फिर बांग्लादेश में घुसकर यह बंगाल की खाड़ी में समा जाती है।
शोध : आआईटी कानपुर के कई शोध पत्रों के अनुसार गंगा के पूर्व भारत में सरस्वती नदी बहती थी और इसकी कई धाराएं थीं। महाभारत में सरस्वती नदी के मरुस्थल में 'विनाशन' नामक जगह पर विलुप्त होने का वर्णन है। इसी नदी के किनारे ब्रह्मावर्त था, कुरुक्षेत्र था, लेकिन आज वहां जलाशय है। वैदिक धर्मग्रंथों के अनुसार धरती पर नदियों की कहानी सरस्वती से शुरू होती है। वेदों में सरस्वती को नदियों में नदी और देवियों में देवी कहा है।
शोधानुसार कहते हैं कि जब किसी प्राकृतिक आपदा के कारण सरस्वती नदी लुप्त हुई तो वह मुख्यत: दो भागों में विभक्त हो गई। पहली सिंधु और दूसरी गंगा। कहते हैं कि सरस्वती लगभग 21 हजार वर्ष पूर्व अपने शबाब पर थी। तब उसकी चौढ़ाई लगभग 22 किलोमीटर की होती थी। रामायण काल में शतलज नदी पहले पश्चिम में मुड़कर बहती थी। उसके पहले वह सरस्वती में आकर मिलती थी। रामायण और महाभारत में सरस्वती के बहुत सारे वर्णन मिलते हैं।
वैदिक काल में एक और नदी दृषद्वती का वर्णन भी आता हैं। यह सरस्वती नदी की सहायक नदी थी। यह भी हरियाणा से होकर बहती थी। कालांतर में जब भीषण भूकंप आए और हरियाणा तथा राजस्थान की धरती के नीचे पहाड़ ऊपर उठे, तो नदियों के बहाव की दिशा बदल गई। एक और जहां सरस्वती लुप्त हो गई वहीं दृषद्वती के बहाव की दिशा बदल गई। इस दृषद्वती को ही आज यमुना कहा जाता है, इसका इतिहास 4,000 वर्ष पूर्व माना जाता है। भूचाल आने के कारण जब जमीन ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया इसलिए यमुना में यमुना के साथ सरस्वती का जल भी प्रवाहित होने लगा। सिर्फ इसीलिए प्रयाग में तीन नदियों का संगम माना गया।
सरस्वती का उद्गम, मार्ग और लीन : महाभारत में मिले वर्णन के अनुसार सरस्वती नदी हरियाणा में यमुनानगर से थोड़ा ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से थोड़ा-सा नीचे आदिबद्री नामक स्थान से निकलती थी। आज भी लोग इस स्थान को तीर्थस्थल के रूप में मानते हैं और वहां जाते हैं। प्राचीनकाल में हिमालय से जन्म लेने वाली यह विशाल नदी हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और गुजरात के रास्ते आज के पाकिस्तानी सिन्ध प्रदेश तक जाकर सिन्धु सागर (अरब की खड़ी) में गिरती थी।
सरस्वती के तीर्थ : पुष्कर में ब्रह्म सरोवर से आगे सुप्रभा तीर्थ से आगे कांचनाक्षी से आगे मनोरमा तीर्थ से आगे गंगाद्वार में सुरेणु तीर्थ, कुरुक्षेत्र में ओधवती तीर्थ से आगे हिमालय में विमलोदका तीर्थ। उससे आगे सिन्धुमाता से आगे जहां सरस्वती की 7 धारा प्रकट हुईं, उसे सौगंधिक वन कहा गया है। उस सौगंधिक वन में प्लक्षस्रवण नामक तीर्थ है, जो सरस्वती तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है।
रेगिस्तान में उतथ्य मुनि के शाप से भूगर्भित होकर सरस्वती लुप्त हो गई और पर्वतों पर ही बहने लगी। सरस्वती पश्चिम से पूरब की ओर बहती हुई सुदूर पूर्व नैमिषारण्य पहुंची। अपनी 7 धाराओं के साथ सरस्वती कुंज पहुंचने के कारण नैमिषारण्य का वह क्षेत्र 'सप्त सारस्वत' कहलाया। यहां मुनियों के आवाहन करने पर सरस्वती अरुणा नाम से प्रकट हुई। अरुणा सरस्वती की 8वीं धारा बनकर धरती पर उतरी। अरुणा प्रकट होकर कौशिकी (आज की कोसी नदी) से मिल गई।