इस मनौती के 9 माह पश्चात उसकी पत्नी के गर्भ से पुत्र का जन्म हुआ। वह बालक जब 5 वर्ष का हो गया तो सेठ और सेठानी उसे साथ लेकर कुछ धन-संपत्ति लेकर रुणिचा के लिए रवाना हो गए। मार्ग में एक लुटेरा भी उनके साथ यह कहकर हो लिया कि वह भी रुणिचा दर्शन के लिए जा रहा है। थोड़ी देर चलते ही रात हो गई और अवसर पाकर लुटेरे ने अपना वास्तविक स्वरूप प्रकट कर दिया। उसने कटार दिखाकर सेठ से ऊंट को बैठाने के लिए कहा और उसने सेठ की समस्त धन-संपत्ति हड़प ली। जाते-जाते वह सेठ की गर्दन भी काट गया। रात्रि में उस निर्जन वन में अपने बच्चे को साथ लिए सेठानी विलाप करती हुई रामदेवजी को पुकारने लगी।
अबला की पुकार सुनकर रामदेवजी अपने नीले घोड़े पर सवार होकर तत्काल वहां आ पहुंचे। आते ही रामदेवजी ने उस अबला से अपने पति का कटा हुआ सर गर्दन से जोड़ने को कहा। सेठानी ने जब ऐसा किया तो सर जुड़ गया और तत्क्षण दलाजी जीवित हो गया। बाबा का यह चमत्कार देख दोनों सेठ-सेठानी बाबा के चरणों में गिर पड़े। बाबा उनको 'सदा सुखमय' जीवन का आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए। बस उसी स्थल पर दलाजी ने बाबा का एक भव्य मंदिर बनवाया। कहते हैं कि यह बाबा की माया थी।
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