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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

क्या आज भी मिल सकता है अमृत?

क्या आज भी मिल सकता है अमृत? - Amrit Manthan
अमर कौन नहीं होना चाहता? समुद्र मंथन में अमृत निकला। इसे प्राप्त करने के लिए देवताओं ने दानवों के साथ छल किया। देवता अमर हो गए। मतलब कि क्या समुद्र में ऐसा कुछ है कि उसमें से अमृत निकले? तो आज भी निकल सकता है?
 
 
अमर होने का मतलब है दुनिया पर राज करना। अनंतकाल तक जीना और जो मर्जी हो वह करना। महाभारत में 7 चिरंजीवियों का उल्लेख मिलता है। चिरंजीवी का मतलब अमर व्यक्ति। अमर का अर्थ, जो कभी मर नहीं सकते। ये 7 चिरंजीवी हैं- राजा बाली, परशुराम, विभीषण, हनुमानजी, वेदव्यास, अश्वत्थामा और कृपाचार्य। हालांकि कुछ विद्वान मानते हैं कि मार्कंडेय ऋषि भी चिरंजीवी हैं। लेकिन इनमें से किसी ने भी अमृत नहीं पिया था फिर भी ये अमर हो गए। अमर होने का रहस्य क्या है? इसे जानने के पहले हम जानते हैं कि आखिर अमृत मंथन क्यों हुआ था और किस-किस ने चखा था अमृत का स्वाद? इसके अलावा अंत में जानेंगे कि क्या अमृत आज भी प्राप्त किया जा सकता है...?
 
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कहते हैं कि क्षीरसागर में ही समुद्र मंथन हुआ था। 27 अक्टूबर 2014 को प्रकाशित हुई एक खबर के अनुसार आर्कियोलॉजी और ओशनोलॉजी डिपार्टमेंट ने सूरत जिले के पिंजरात गांव के पास समुद्र में मंदराचल पर्वत होने का दावा किया था। आर्कियोलॉजिस्ट मितुल त्रिवेदी के अनुसार बिहार के भागलपुर के पास स्थित भी एक मंदराचल पर्वत है, जो गुजरात के समुद्र से निकले पर्वत का हिस्सा है।
 
त्रिवेदी के अनुसार बिहार और गुजरात में मिले इन दोनों पर्वतों का निर्माण एक ही तरह के ग्रेनाइट पत्थर से हुआ है। इस तरह ये दोनों पर्वत एक ही हैं। जबकि आमतौर पर ग्रेनाइट पत्थर के पर्वत समुद्र में नहीं मिला करते। खोजे गए पर्वत के बीचोबीच नाग आकृति है जिससे यह सिद्ध होता है कि यही पर्वत मंथन के दौरान इस्तेमाल किया गया होगा इसलिए गुजरात के समुद्र में मिला यह पर्वत शोध का विषय जरूर है। 
 
गौरतलब है कि पिंजरात गांव के समुद्र में 1988 में किसी प्राचीन नगर के अवशेष भी मिले थे। लोगों की यह मान्यता है कि वे अवशेष भगवान कृष्ण की नगरी द्वारका के हैं, वहीं शोधकर्ता डॉ. एसआर राव का कहना है कि वे और उनके सहयोगी 800 मीटर की गहराई तक अंदर गए थे। इस पर्वत पर घिसाव के निशान भी हैं।
 
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इसलिए हुआ अमृत मंथन : दुर्वासा ऋषि की पारिजात पुष्पमाला का इंद्र ने उचित सम्मान नहीं किया इससे रुष्ट होकर उन्होंने इंद्र को श्रीहीन होकर स्वर्ग से वंचित होने का श्राप दे डाला। यह समाचार लेकर लेकर शुक्राचार्य दैत्यराज बाली के दरबार में पहुंचते हैं। वे दैत्यराज बाली को कहते हैं कि इस अवसर का लाभ उठाकर असुरों को तुरंत आक्रमण करके स्वर्ग पर अधिकार कर लेना चाहिए। ऐसा ही होता है। दैत्यराज बाली स्वर्ग पर आक्रमण का देवताओं को वहां से खदेड़ देता है।
 
इधर, असुरों से पराजित देवताओं की दुर्दशा का समाचार लेकर नारद ब्रह्मा के पास जाते हैं और फिर नारद सहित सभी देवतागण भगवान विष्णु के पास पहुंच जाते हैं। भगवान विष्णु सभी को लेकर देवादिदेव महादेव के पास पहुंच जाते हैं। सभी निर्णय लेते हैं कि समुद्र का मंथन कर अमृत प्राप्त किया जाए और वह अमृत देवताओं को पिलाया जाए जिससे कि वे अमर हो जाएं और फिर वे दैत्यों से युद्ध लड़ें। 
 
सभी देवता महादेव की आज्ञा से समुद्र मंथन की तैयारी करते हैं। भगवान के आदेशानुसार इन्द्र ने समुद्र मंथन से अमृत निकलने की बात बाली को बताई और कहा कि अमृत का हम समान वितरण कर अमर हो जाएंगे। बाली को देवताओं की बात पर विश्‍वास नहीं होता है। तब नारद शिव के आदेशानुसार दैत्य सेनापति राहु के पास पहुंचकर उसे शिव का संदेश सुनाते हैं। अंत में दैत्यराज बाली को शुक्राचार्य बताते हैं कि उन्हें शिव की निष्पक्षता पर पूर्ण विश्वास है, यदि शिव समुद्र मंथन का कह रहे हैं तो अवश्य किया जाना चाहिए। दैत्यों के मान जाने के बाद मंदराचल पर्वत को मथनी तथा वासुकि नाग को नेती बनाया जाता है। स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप बनकर मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर रखकर उसका आधार बनते हैं। 
 
देवता वासुकि नाग को मुख की ओर से पकड़ने लगे। इस पर उल्टी बुद्धि वाले दैत्यों ने सोचा कि वासुकि नाग को मुख की ओर से पकड़ने में अवश्य कुछ न कुछ लाभ होगा। उन्होंने देवताओं से कहा कि हम किसी से शक्ति में कम नहीं हैं, हम मुंह की ओर का स्थान पकड़ेंगे। तब देवताओं ने वासुकि नाग के पूंछ की ओर का स्थान ले लिया।
 
और फिर शुरू हुआ जब समुद्र मंथन तो...
 

मंथन के दौरान सबसे पहले विष का प्याला निकला जिसे कालकूट कहा गया। जहर को हलाहल भी कहा जाता है। इसे न तो देवता ग्रहण करना चाहते थे और न ही असुर। यह विष इतना खतरनाक था, जो संपूर्ण ब्रह्मांड का विनाश कर सकता था। इस विष को ग्रहण करने के लिए स्वयं भगवान शिव आए। शिव ने विष का प्याला पी लिया लेकिन तभी माता पार्वती, जो उनके साथ खड़ी थीं उन्होंने उनके गले को पकड़ लिया। ऐसे में न तो विष उनके गले से बाहर निकला और न ही शरीर के अंदर गया। वह उनके गले में ही अटक गया जिसकी वजह से उनका गला नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए।
 
कालकूट को शिव ने धारण कर लिया। इसके बाद कामधेनु की उत्पत्ति हुई जिसे ऋषियों को सौंप दिया गया, क्योंकि इसे भी देव और दैत्य लेना नहीं चाहते थे। इसके बाद उच्चैःश्रवा घोड़े को राजा बाली को सौंप दिया गया। ऐरावत देवराज इंद्र को दिया गया। राजा बाली ने प्राप्त कौस्तुभ मणि विष्णु को सौंप दी। अर्द्ध चंद्रमा को भोलेनाथ को सौंप दिया गया। पारिजात वृक्ष को स्वर्ग के नंदन वन में लगा दिया गया। कल्पवृक्ष को भी स्वर्ग को सौंप दिया गया। उसके बाद मंथन से 3 अप्सराओं की उत्पत्ति हुई जिनको बाली द्वारा लेने से इंकार कर देने के बाद देवताओं ने अपने लिए रख लिया। ये अप्सराएं थीं- रम्भा, विद्योत्तमा, गणोत्मा।
 
उसके बाद कमल पर विराजमान चारभुजाधारी देवी लक्ष्मी की उत्पत्ति हुईं। देवी लक्ष्मी स्वयं ही आकाश में विलीन हो गई, क्योंकि वे दोनों ही के लिए आदरणीय और माता समान थीं। उसके बाद वारुणी नाम स्त्री हाथ में मदिरा कलश लेकर प्रकट होती है। मदिरा को बुराइयों का घर मानकर देव और दैत्य दोनों ने ही इसे लेने से इंकार कर दिया। धर्मानुसार इसका सेवन करने वाला व्यक्ति बुद्धि, स्त्री, विवेक, धन और धर्महीन हो जाता है। उसके बाद धन्वंतरि अमृत कुंभ लेकर प्रकट होते हैं।
 
जब अमृत कुंभ लेकर निकले धन्वंतरि तो...
 

धन्वंतरि अमृत कुंभ लेकर प्रकट होते हैं तब देवता चाहते थे कि अमृत के प्याले में से एक भी घूंट असुरों को न मिल पाए, नहीं तो वे अमर हो जाएंगे, वहीं असुर अपनी शक्तियों को बढ़ाने और अनश्वर रहने के लिए अमृत का पान किसी भी रूप में करना चाहते थे। अमृत को असुरों को पिलाना घातक हो सकता था इसलिए देवताओं और असुरों के बीच विवाद उत्पन्न हुआ। 
 
अमृत कुंभ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इंद्रपुत्र श्जयंतश् अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्य गुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयंत का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयंत को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में 12 दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मार-काट के दौरान पृथ्वी के 4 स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूंदें गिरी थीं। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। 
 
इस छीना-झपटी और भागा-दौड़ी में अमृत कुंभ से अमृत छलका और सर्वप्रथम हरिद्वार में बह रही पावन नदी गंगा में जा गिरा। कुंभ से अमृत गिरते ही हरिद्वार कुंभ मेले का पावन स्थान बन गया। जब यह अमृत छलका, तब उस समय सूर्य और चंद्र मेष राशि में और बृहस्पति कुंभ राशि में भ्रमण कर रहे थे। उसके पश्चात प्रत्येक 12 वर्ष के अंतर से हरिद्वार में कुंभ मेला लगता आया है।
 
फिर देवता लोग कुंभ लेकर भागते हैं। फिर एक-दूसरे स्थान पर आकाश में दैत्य लोग भाग रहे देवताओं का पीछा करके उनको पकड़ लेते हैं और वहीं उनसे कुंभ को छीनने का प्रयास करते हैं। इस प्रयास में एक बार फिर कुंभ से अमृत छलका और प्रयाग (इलाहाबाद) में गिरा। जिस समय प्रयाग में यह अमृत गिरा था उस समय बृहस्पति वृषभ राशि तथा सूर्य और चंद्र मकर राशि में भ्रमण कर रहे थे। उस समय से यहां कुंभ मेला लगने की प्रथा प्रारंभ हुई। अमावस्या तथा मकर संक्रांति के अवसर पर प्रयाग का पावन जल विशेष रूप से अमृत हो जाता है।
 
देवताओं से कुंभ छीनकर दैत्य लोग भागते हैं। उनका पीछा करते हुए देवता उनको एक जगह पकड़ लेते हैं तब वहां कुंभ के लिए छीना-झपटी होती है। इस प्रयास में एक बार फिर छलककर अमृत उज्जैन की शिप्रा नदी में गिर जाता है। जिस समय यह अमृत गिरा था उस समय बृहस्पति सिंह, सूर्य मेष और चंद्र ‍तुला राशि में भ्रमण कर रहे थे। बृहस्पति के सिंह राशि में होने के कारण उज्जैन के कुंभ मेले को 'सिंहस्थ' भी कहा जाता है।
 
दैत्यों के कुंभ को हथियाकर देवता दूसरी ओर दौड़ते हैं। वर्षों की दौड़ के पश्चात एक बार फिर एक जगह दैत्य उनको पकड़ लेते हैं। इस बार जब अमृत छलकता है तो वह नासिक की गोदावरी नदी में गिरता है। जब यह अमृत छलका था उस समय बृहस्पति, सूर्य और चंद्र तीनों ही सिंह राशि में भ्रमण कर रहे थे। जब भी ऐसी स्थिति बनती है तब वहां कुंभ मेला लगता है।
 
अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर 12 दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के 12 दिन मनुष्यों के 12 वर्ष के तुल्य होते हैं अतएव कुंभ भी 12 होते हैं। उनमें से 4 कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष 8 कुंभ देवलोक में होते हैं।
 
जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहां-जहां अमृत बूंदें गिरी थीं, वहां व प्रयाग कुम्भ मेला 2013 प्रयागराज (इलाहाबाद) में कुंभ महापर्व, मकर में सूर्य व वृष के बृहस्पति में मनाया जाता है।
 
अंत में जब देवर्षि नारद प्रकट होते हैं...
 

इस अंतहीन झगड़े को देखकर भगवान देवर्षि नारद प्रकट होते हैं। वे दोनों को समझाते हैं और कहते हैं इस तरह तो सभी अमृत धरती पर ही गिर जाएगा। वे कहते हैं कि आप दोनों ही एक ही कुल के हैं। आपके पिता ऋषि कश्यप हैं, फिर आप आपस में क्यों झगड़ते हैं? आपको आपस में अमृत मिल-बांटकर पीना चाहिए। दोनों इस पर सहमत हो जाते हैं। लेकिन कहते हैं कि इस अमृत का विभाजन बराबर मात्रा में कैसे और कौन करेगा? तभी वहां मोहिनी रूप में भगवान विष्णु प्रकट होते हैं जिसे देखकर दैत्य और देवता दोनों ही मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। उसकी सुंदरता के वश में होकर दैत्य उसको अमृत वितरण करने का अधिकार सौंपने का प्रस्ताव मान लेते हैं।
 
एक सुंदर सभागार में अमृत वितरण का आयोजन होता है। मोहनी के नृत्य, गीत और संगीत के बीच एक देवता और फिर एक दैत्य इस तरह बारी-बारी से अमृत वितरण होता है। जब देवताओं को अमृत पिलाया जाता है तब वह असली कुंभ होता है, लेकिन जब दैत्य को पिलाया जाता है तो वह नकली कुंभ होता है। इस छल का पता दैत्यों के सेनापति राहू को चल जाता है। वह इस पर कुछ नहीं कहते हुए रूप बदलकर देवताओं में सूर्य और चंद्र के बीच बैठ जाता है। जब वह अमृत अपने प्याले में ले लेता है तभी सूर्य और चंद्र शंका प्रकट करते हुए चिल्लाते हैं कि मोहिनी ये तो कोई दैत्य है। यह जानकर मोहिनी रूप विष्णु अपने असली रूप में आ जाते हैं और तुरंत ही अपने चंद्र से उसकी गर्दन काट लेते हैं लेकिन तब तक अमृत उसके कंठ तक पहुंच चुका होता है इस कारण उसकी गर्दन अलग होने के बावजूद वह जीवित रह जाता है। उसके सिर के रूप को राहू और धड़ को केतु कहा जाता है। सूर्य और चंद्र के कारण मस्तक कटने से राहु दोनों से दुश्मनी पाल लेता है।
 
अमर होने के क्या हैं उपाय, अगले पन्ने पर...
 
 

वेद, उपनिषद, गीता, महाभारत, पुराण, योग और आयुर्वेद में अमरत्व प्राप्त करने के अनेक साधन बताए गए हैं। आयुर्वेद में कायाकल्प की विधि उसका ही एक हिस्सा है। 
 
सावित्री-सत्यवान की कथा तो आपने सुनी ही होगी। सावित्री ने यमराज से अपने पति सत्यवान के प्राण वापस ले लिए थे। सावित्री और यमराज के बीच लंबा संवाद हुआ। इसके बाद भी यह पता नहीं चलता है कि सावित्री ने ऐसा क्या किया कि सत्यवान फिर से जीवित हो उठा। इस जीवित कर देने या हो जाने की प्रक्रिया के बारे में महाभारत भी मौन है। जरूर सावित्री के पास कोई प्रक्रिया रही होगी। जिस दिन यह प्रक्रिया वैज्ञानिक ढंग से ज्ञात हो जाएगी, हम अमरत्व प्राप्त कर लेंगे।
 
आपने अमरबेल का नाम सुना होगा। विज्ञान चाहता है कि मनुष्य भी इसी तरह का बन जाए, कायापलट करता रहा और जिंदा बना रहे। वैज्ञानिकों का एक समूह चरणबद्ध ढंग से इंसान को अमर बनाने में लगा हुआ है। समुद्र में जेलीफिश (टयूल्रीटोप्सिस न्यूट्रीकुला) नामक मछली पाई जाती है। यह तकनीकी दृष्टि से कभी नहीं मरती है। हां, यदि आप इसकी हत्या कर दें या कोई अन्य जीव जेलीफिश का भक्षण कर ले, फिर तो उसे मरना ही है। इस कारण इसे इम्मोर्टल जेलीफिश भी कहा जाता है। जेलीफिश बुढ़ापे से बाल्यकाल की ओर लौटने की क्षमता रखती है। अगर वैज्ञानिक जेलीफिश के अमरता के रहस्य को सुलझा लें, तो मानव अमर हो सकता है।
 
अब जानिए क्या अमृत आज भी प्राप्त किया जा सकता है...
 

क्या आज भी अमृत प्राप्त किया जा सकता है? उस काल में समुद्र मंथन करके जब अमृत निकाला गया था तो क्या इस काल में समुद्र मंथन करने की कोई तकनीक है? और क्या आज भी मंथन करके अमृत निकाला जा सकता है? जल में ऐसे क्या तत्व हैं जिससे कि अमृत निकल सकता है? शोधानुसार पता चला कि गंगा के जल में ऐसे गुण हैं ‍जिससे कि उसका जल कभी सड़ता नहीं। ऐसा जल पीना अमृत के समान है।
 
बहती नदी का जल अमृत समान : समुंदर का जल पीने लायक नहीं होता। नदी का जल ही पीने लायक होता है। कहते हैं ग्रह और नक्षत्रों की विशेष स्थिति में धरती की नदियों का जल अमृत के समान हो जाता है जिसका सेवन करके व्यक्ति पापमुक्त और युवा हो सकता है। हालांकि आजकल सभी नदियों का जल प्रदूषित कर दिया गया है। उनकी प्राकृतिकता को नष्ट कर दिया गया है। कुंभ वाले स्थान पर अब जल रोककर कुंभ की रस्म अदा की जाती है।
 
संजीवनी बूटी की कथा भी अमरता से जुड़ी है। कहते हैं कि संजीवनी विद्या असुरों के गुरु शुक्राचार्य के पास थी। युद्ध में जब दैत्य मारे जाते थे तो वे उनको संजीवनी बूटी देकर फिर से जिंदा कर देते थे। आज भी यह बूटी ढूंढी जा सकती है? देवताओं ने इस विद्या के रहस्य को जानने के लिए उन्होंने कच को शुक्राचार्य का शिष्य बनने के लिए भेजा। 
 
अब कच असुरों के गुरु शुक्राचार्य के आश्रम में रहकर संजीवनी विद्या सीखने लगा। मगर जल्दी ही असुर आश्रमवासियों को यह जानकारी प्राप्त हो गई और उन सबने मिलकर कच का वध करके उसके शरीर के टुकड़े वन में ही विचरते एक भेड़िए को खिला दिए। शुक्राचार्य की बेटी देवयानी कच का बहुत ध्यान रखती थी। जब उसे इसका पता चला तो वह बहुत दुखी हुई। उसने पिता के समक्ष अपनी चिंता व्यक्त की। शुक्राचार्य ने ध्यानस्थ होकर यह जान लिया था कि राक्षसों ने कच को मारकर उसके अंगों को भेड़ियों को खिला दिया है। शुक्राचार्य ने उसी संजीवनी विद्या का प्रयोग किया और कच जीवित हो उठा। 
 
क्या कर रहे हैं वैज्ञानिक :  विज्ञान भी इसी दिशा में काम कर रहा है कि किस तरह व्यक्ति अमर हो जाए अर्थात कभी नहीं मरे। वैज्ञानिक आज भी प्रयोगशालाओं में ऐसे अनेक प्रयोगों में जुटे हैं जिनमें या तो मनुष्य की उम्र घटा देने की युक्ति है या फिर उसे अमरता के पास तक पहुंचा देने की जिद है। वैज्ञानिक अमरता के रहस्यों से पर्दा हटाने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहे हैं। बढ़ती उम्र के प्रभाव को रोकने के लिए कई तरह की दवाइयों और सर्जरी का विकास किया जा रहा है। अब इसमें योग और आयुर्वेद को भी महत्व दिया जाने लगा है। बढ़ती उम्र के प्रभाव को रोकने के बारे में आयोजित एक व्यापक सर्वे में पाया गया कि उम्र बढ़ाने वाली 'गोली' को बनाना संभव है। रूस के साइबेरिया के जंगलों में एक औषधि पाई जाती है जिसे जिंगसिंग कहते हैं। चीन के लोग इसका ज्यादा इस्तेमाल करके देर तक युवा बने रहते हैं।
 
'जर्नल नेचर' में प्रकाशित 'पजल, प्रॉमिस एंड क्योर ऑफ एजिंग' नामक रिव्यू में कहा गया है कि आने वाले दशकों में इंसान का जीवनकाल बढ़ा पाना लगभग संभव हो पाएगा। अखबार 'डेली टेलीग्राफ' के अनुसार एज रिसर्च पर बक इंस्टीट्यूट, कैलिफॉर्निया के डॉक्टर जूडिथ कैंपिसी ने बताया कि सिंपल ऑर्गनिज्म के बारे में मौजूदा नतीजों से इसमें कोई शक नहीं कि जीवनकाल को बढ़ाया-घटाया जा सकता है। पहले भी कई स्टडीज में पाया जा चुका है कि अगर बढ़ती उम्र के असर को उजागर करने वाले जिनेटिक प्रोसेस को बंद कर दिया जाए, तो इंसान हमेशा जवान बना रह सकता है। जर्नल सेल के जुलाई के अंक में प्रकाशित एक रिसर्च रिपोर्ट में कहा गया कि बढ़ती उम्र का प्रभाव जिनेटिक प्लान का हिस्सा हो सकता है, शारीरिक गतिविधियों का नतीजा नहीं। खोज और रिसर्च जारी है...। 
 
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'