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Written By WD
Last Modified: शुक्रवार, 22 नवंबर 2013 (11:19 IST)

चाणक्य की कहानी : राक्षस का षड्यंत्र

चाणक्य का जीवन
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गतांक से आगे..
और इस तरह मगध के क्रूर और विलासी शासक का अंत हुआ। चाणक्य की प्रतिज्ञा पूरी हुई और चाणक्य ने अपनी शिखा में गांठ लगा ली। इसके बाद चाणक्य ने अपने पिता का तर्पण किया और पहली बार पकी हुई रोटी खाई। ...अब आगे।

एक गुप्त भवन में चाणक्य और चंद्रगुप्त गूढ़ वार्तालाप कर रहे थे तभी अचानक किसी आगंतुक के आने की आवाज सुनकर वे सतर्क हो गए। प्रमुख प्रहरी ने आगंतुक के विषय में पूछा और उसने चाणक्य को बताया कि कोई शिकारी आया है और वह खुद को 'वनराज' बता रहा है। उसने अपना नाम बताने के बाद कहा कि चाणक्य से कहो कि 'पानी उफान पर है।' चाणक्य ने इस गुप्त वाक्य को सुनकर तुरंत ही आगंतुक को भीतर आने का आदेश ‍दिया।

आगंतुक चाणक्य द्वारा नियुक्त एक गुप्तचर था जिसका नाम त्रिनेत्र था। चाणक्य ने उससे पूछा- बताओ 'वनराज', मगधवासियों में चंद्रगुप्त की जीत और धनानंद के वध की क्या प्रतिक्रियाएं चल रही हैं?

गुप्तचर ने कहा- गुरुवर! सभी ओर प्रजा में परस्पर विरोधी चर्चाएं चल रही हैं। हालांकि सभी इसका विरोध कर रहे हैं कि बिना राजदरबार में निर्णय लिए बगैर नंद का वध करना अनुचित है। पूज्यवर, इसी कारण राज्य में असंतोष और विद्रोह की चिंगारी के भड़कने की आशंका है।

चाणक्य- हूं...! इसका मतलब यह कि अमात्य राक्षस किसी षड्यंत्र में लगा है अर्थात वास्तविक विजय अभी दूर है।

फिर चाणक्य ने गुप्तचर की ओर देखते हुए कहा, तुमने विरोध शांत करने का यत्न किया?

त्रिनेत्र- सारे यत्न असफल हो गए गुरुवर, तभी तो मैं आपके पास आया हूं।

चंद्रगुप्त और त्रिदेत्र दोनों ही चाणक्य को उत्कंठा से देखने लगे। तब चाणक्य ने कुछ सोचते हुए कहा- त्रिदेत्र तुम जाओ और राज्य में यह मुनादी करवा दो कि सम्राट चंद्रगुप्त अत्यधिक परिश्रम के कारण अस्वस्थ हो गए हैं अत: राज्याभिषेक कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया गया है।

यह आदेश लेकर गुप्तचर त्रिनेत्र चला गया और चाणक्य ने महामात्य शकटार को बुलाकर उनसे भी कहा कि आपको राक्षस के षड्यंत्रों पर नजर रखना चाहिए। राक्षस राज्य में विद्रोह भड़काने का प्रयास करेगा।

अगले पन्ने पर जैसे ही राक्षस को चंद्रगुप्त के अस्वस्थ होने के पता चला...


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जैसे ही राक्षस ने चंद्रगुप्त के अस्वस्थ होने और राज्याभिषेक के स्थगित होने का समाचार सुना, वह एक वृद्ध रोगी बनकर राजवैद्य दुर्गाप्रसाद के पास जा पहुंचा। वैद्य उस समय विश्राम कर रहे थे। उन्हें सूचना मिली कि कोई रोगी आया है, जबकि यह समय उनके रोगी देखने का नहीं था, फिर भी मानवता के नाते उन्होंने उसे भीतर लाने का कहा।

रोगी ने एकांत पाते ही राजवैद्य के समक्ष अपना वास्तविक रूप प्रदर्शित कर दिया। रोगी के वेश में राक्षस को अपने समक्ष देख राजवैद्य चौंक गए। उन्होंने खुद को संभालते हुए पूछा- आपको इस तरह आने की क्या आवश्यकता पड़ गई?

राक्षस- राजवैद्य, आप जानते ही हैं कि राजा नंद की हत्या हो चुकी है और आपका यह अमात्य किसी हारे हुए योद्धा की तरह इधर-उधर भटक रहा है। इस समय हमारे राजा की हत्या का एक सुअवसर है। अभी-अभी पता चला है कि चंद्रगुप्त अस्वस्थ हो गया है और हो सकता है कि कुछ समय बाद उसके अनुचर आपको बुलाने आएं। अत: अब आपके ऊपर ही निर्भर है कि हम अपने राजा की हत्या का बदला कैसे लें।

राक्षस ने बहुत‍ भावुक होते हुए उन्हें राज्य को बचाने का अनुरोध किया। राजवैद्य ने बहुत असमंजस के बाद कहा- नहीं महामात्य! वैद्य के लिए रोगी शत्रु भी पुत्र के समान होता है। उसने राजा की हत्या की तो वह हत्यारा है और उसकी छल से हत्या करके मैं भी हत्यारा नहीं बनना चाहता।

राक्षस- लेकिन राजवैद्य! क्या हमें अपने पालनहार महाराजा नंद के हत्यारे को ऐसे ही छोड़ देना चाहिए? क्या हमें एक दासी पुत्र के हाथों में राज्य सौंप देना चाहिए? मातृभूमि के लिए क्या आप बलिदान नहीं देना चाहते राजवैद्य? ठीक है राजवैद्य... मैं तो जा रहा हूं, किंतु आप सोचिएगा अवश्य।

राक्षस पुन: रोगी के वेश में वहां से चला गया किंतु राजवैद्य अपने ही अंतर्द्वंद्व में घिर गए। एक और मातृभूमि और दूसरी और वैद्य का धर्म। उनके सामने धर्मसंकट खड़ा हो गया। वे सोच-विचार कर ही रहे थे कि उनके समक्ष चंद्रगुप्त का अनुचर आकर खड़ा हो गया। उन्होंने अपनी औष‍‍धि की पेटिका उठाई और वे उसके पीछे चल दिए।

राजवैद्य ने जब दी चंद्रगुप्त को औष‍‍धि... अगले पन्ने पर...


राजमहल में शय्या पर लेटे चंद्रगुप्त को सेविकाएं पंखा झल रही थीं। चारों ओर दास-दासियां थे। राजवैद्य के आते ही सभी आदर के साथ खड़े हो गए। राजवैद्य ने सभी को एकांत के लिए कहा। राजवैद्य ने चंद्रगुप्त की नाड़ी देखी। नाड़ी देखकर उन्हें पता चला कि चंद्रगुप्त को तो कोई रोग नहीं है, संभवत: थकावट से ज्यादा कुछ नहीं।

फिर उन्होंने अति सूक्ष्मता से चंद्रगुप्त को देखने का नाटक शुरू किया अंत में एक लंबी श्वास छोड़ते हुए कहा- महाराज चंद्रगुप्त को कुछ समय विश्राम की आवश्यकता है और उनसे कोई कुछ बोले नहीं। मैं यह औषधि दिए देता हूं प्रात: तक इससे पर्याप्त लाभ मिलेगा।

फिर जब राजवैद्य जब चंद्रगुप्त को प्याले में औषधि की जगह विष पिलाने जा रहे थे तभी एक तेज स्वर गूंजा- 'ठहरो'।

इस तेज और प्रभावशाली स्वर को सुनकर राजवैद्य के हाथ कांप गए और चंद्रगुप्त उस ओर देखने लगे जिधर से यह स्वर गूंजा था।

'आप गुरुदेव!- चंद्रगुप्त ने दुर्बल स्वर में कहा।

चाणक्य- सम्राट चंद्रगुप्त! चाणक्य आपकी रक्षा के लिए हर दम आपके सामने होगा। राजा को हर क्षण चौकन्ना रहना पड़ता है चंद्रगुप्त। एकदम से किसी पर विश्‍वास राजा के लिए हानिकारक होता है।

राजवैद्य ने चाणक्य की ओर देखा और उनकी बातें सुनकर पसीना-पसीना हो गए। तभी चंद्रगुप्त ने चौंककर पूछा- मैं आपका आशय समझा नहीं गुरुवर।

चाणक्य ने कहा- आपको कोई भी खाने-पीने की वस्तुओं का सेवन तभी करना चाहिए राजन, जबकि वह भली-भांति जांची-परखी न गई हो। हो सकता है कि वह कोई हानिकारक पदार्थ हो।

फिर चाणक्य ने राजवैद्य की आंखों में आंखें डालकर कहा- क्षमा करें राजवैद्य! यह शासन तंत्र के कठोर नियम हैं और आपको तो इससे कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। मैं एक बिल्ली द्वारा इस औषधि का परीक्षण किए लेता हूं। उसके पश्चात आप यह औषधि सम्राट को पिला सकते हैं।

राजवैद्य के हाथ कांपने लगे। राजवैद्य ने देखा कि अब बचने का कोई रास्ता नहीं और अब बंदीगृह में ही जिंदगी गुजारना पड़ेगी तो उन्होंने खुद ने ही एक झटके में वह प्याला पीकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली।

अगले पन्ने पर... अपने अगले षड्यंत्र की तैयारी में राक्षस...


राक्षस का पहला प्रयास असफल होने के बाद राज्य के जंगल में उसने अपने साथियों के साथ मंत्रणा की और चंद्रगुप्त के राज्याभिषेक महोत्सव के समय उसने अपने प्रमुख गुप्तचर जीवाक्ष के साथ मिलकर चाणक्य और चंद्रगुप्त को मारने की योजना बनाई।

राक्षस- देखो, तुम्हें कुसुमपुर की प्रसिद्ध नगरवधू सम्मोहिनी को इस बात के लिए तैयार करना है कि वह एक रूपवती विषकन्या को हमारे लिए दे, जो नृत्य और संगीत में पारंगत हो। यह कार्य जल्द ही करना है और महोत्सव के दौरान तुम एक संपन्न पर्यटक बनकर जाना और इस विषकन्या सुंदरी को तुम चंद्रगुप्त को भेंटस्वरूप प्रदान करना। तुम उत्सव से पूर्व नगर के गणमान्य नागरिकों को भोज के लिए आमंत्रित करना ताकि तुम्हें भी उत्सव में शामिल होने का निमंत्रण मिले।

जीवाक्ष- अमात्य मैं आपकी सारी योजना समझ गया। जैसा आपने कहा वैसा ही होगा।

अगले पन्ने पर चंद्रगुप्त का राज्याभिषेक और विषकन्या...




जीवाक्ष ने नगरवधू सम्मोहिनी को अमात्य राक्षस का पत्र सौंपा। सम्मोहिनी ने कुछ विचार करने के बाद कहा- हां, एक विषकन्या तो है, लेकिन उसे और मुझे दाम और सुरक्षा क्या मिलेगी?

जीवाक्ष ने कहा- आप दाम और सुरक्षा की चिंता न करें। आप जैसा चाहेंगी वैसा होगा।

सम्मोहिनी- तो ठीक है समझो काम हो गया।

राज्याभिषेक की तैयारी चल रही थी। जीवाक्ष ने राक्षस के कहे अनुसार ही नगर के गणमान्य नागरिकों को आमंत्रित कर एक भव्य भोज दिया और सभी को प्रसन्न कर प्रसिद्धि हासिल कर ली। सभी प्रतिष्ठित नागरिकों की तरह उसे भी राज्याभिषेक में शामिल होने का निमंत्रण मिला।

वरिष्ठ और गणमान्य अतिथियों के लिए अलग से सिंहासन लगे हुए थे। उन्हीं के बीच जीवाक्ष धन्ना सेठ बनकर बैठा था। राजदरबार सभी सामंत, उच्चाधिकारी, सम्भ्रांत और प्रसिद्ध नागरिकों से भर गया था। तभी घोषणा हुई- वीर शिरोमणि सम्राट चंद्रगुप्त दरबार में पधार रहे हैं।

सभी आगंतुक अतिथि खड़े हो गए।

अपने राजसिंहासन पर सम्राट बैठ गए। उनके पास के सिंहासन पर एक ओर चाणक्य और दूसरी ओर शकटार बैठे थे। चाणक्य ने ब्रह्मभट्ट को इशारा किया तो उसने चंद्रगुप्त की प्रशंसा में प्रशंसा पत्र पढ़ना शुरू किया। इसके पश्चात्य चाणक्य ने सभी को संबोधित करते हुए कहा-

'सभी उपस्थित अतिथि, भूपति, सभापति और नागरिकों! आज का दिन मगध के इतिहास के करवट बदलने का दिन है, क्योंकि आज आप मगध की बागडोर एक ऐसे वीर, बुद्धिमान और न्यायप्रिय युवक के हाथों में सौंपने जा रहे हैं, जो हमारे देश को शिखर पर ले जाएगा। इसके आधिपत्य में समस्त प्रजा निर्भीक, स्वतंत्र और सुखपूर्वक रह सकेगी। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि इनके अधीनस्थ रहकर राज्य में शांति और खुशहाली रहेगी। किसी भी प्रकार की राजनीति, षड्यंत्र और कुचक्र का जाल नहीं फैलेगा। राज्य अपना ज्यादा से ज्यादा सभी नागरिकों की भलाई में बिताएगा। जो भी हमारे राजा और राज्य के प्रति किसी भी प्रकार का षड्यंत्र करेगा उसको हम समुचित जवाब देने में हम सक्षम हैं। धन्यवाद।

इसके बाद कुलपुरोहित ने विधिवत रूप से राज्याभिषेक किया। इसके बाद तालियों की आवाज के बीच राष्ट्रगीत गाया गया। फिर राजा को अपनी अपनी सामर्थ्य अनुसार भेंट देने का क्रम शुरू हुआ। किसी ने हीरे-पन्ने दिए। किसी ने हाथी-घोड़े, कोई उत्तम वस्त्र लाया तो किसी ने श्रद्धापूर्वक उन्हें फूलों की माला पहनाई। फिर उद्घोषक ने सोमदेव (राक्षस का गुप्तचर जीवाक्ष) का नाम पुकारा। सोमदेव ने आसन पर खड़े होकर सर्वप्रथम अपना परिचय कश्मीर से आए पर्यटक व्यापारी के रूप में दिया।

सोमदेव ने कहा- मैं वीर शिरोमणि के लिए अनुपम भेंट लाया हूं। और फिर सोमदेव ने ताली बजाई। ताली बजाते ही उनके सामने कुछ लोगों ने एक रेशमी वस्त्र से ढंकी डोली उनके समक्ष लाकर रख दी।

सोमदेव ने उस डोली पर से वस्त्र हटाकर कहा- राजन! यह विश्वमोहिनी युवती है। कीमती आभूषणों से लदी हुए वह युवती बाहर निकलकर खड़ी हो गई। सभी दरबारी उसका रूप देखकर सम्मोहित हो गए। फिर सोमदेव ने कहा- इस रूपस्वामिनी, परम सुंदरी को आपका यह सेवक भेंटस्वरूप लाया है राजन। यह आपकी दासी बनकर रहेगी सम्राट।

हर ओर से इस अनुपम भेंट की प्रशंसा में वाह-वाह के स्वर उठने लगे। चंद्रगुप्त भी इस अद्वितीय भेंट को देखकर मन ही मन गदगद होने लगा। उसके चेहरे पर भी प्रशंसा के भाव उठ गए, किंतु चाणक्य कुछ और सोचने लगे और गौर से सोमदेव और उस युव‍ती को देखने लगे।

फिर चाणक्य ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहा- शांत हो जाइए। ...फिर गंभीर होकर बोले- हम तुम्हारी भेंट से प्रसन्न हैं अतिथि। हमें यह भेंट स्वीकार है। ...लेकिन यह भेंट हम अपने सहयोगी राजा पर्वतक के लिए प्रदान करते हैं।

चाणक्य के मुख से यह शब्द सुनते ही चंद्रगुप्त आश्चर्य और उदासी में डूब गए। सोमदेव भी कांप गए और जल्दी से जल्दी यहां से निकलने का रास्ता ढूंढने लगे। उधर, राजा पर्वतक की प्रसन्नता का कोई ठिकाना नहीं था। इसी के साथ चाणक्य ने सभा समाप्ति की घोषणा कर दी।

राजा पर्वतक उस सुंदरी को लेकर चले गए और उसके साथ राग-रंग में डूब गए और कुछ दिनों बाद समाचार मिला कि राजा की अचानक मौत हो गई। चंद्रगुप्त और चाणक्य राजा पर्वतक को देखने पहुंचे, तो देखा कि एक कोने में खड़ी वही सुंदरी दोनों को देखकर कांप रही थी। तब चाणक्य ने चंद्रगुप्त की ओर देखकर कहा- देखा राजन! यह सुंदरी तो विषकन्या निकली। यह राक्षस का प्रबल षड्यंत्र था। मेरा अनुमान सही निकला।

फिर चाणक्य ने चंद्रगुप्त से कहा- तुम्हें इस राजा की मौत का अफसोस नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह अब हमारा मित्र नहीं था और पड़ोसी राज्य से मिलकर हमारे खिलाफ षड्यंत्र रच रहा था।

चाणक्य की ओर देखता ही रह गया चंद्रगुप्त...

अगले पन्ने पर, अमात्य राक्षस की अगली योजना...


राक्षस ने अपनी दोनों ही योजनाएं असफल देखकर फिर से नए षड्यंत्र पर सोचना शुरू किया। तभी उसके पास उसके एक गुप्तचर से समाचार मिला कि चंद्रगुप्त अपने नवनिर्मित महल में शुक्ल पक्ष की पंचमी को प्रवेश करेगा। गुप्तचर उसके साथ भवन निर्माण के प्रमुख शिल्पी को भी लेकर आया था।

राक्षस ने उसे प्रलोभन देकर उस महल के सभी गुप्त द्वार जान लिए। प्रमुख शिल्पी ने राक्षस को आकस्मिक द्वार के बारे में भी बताया और कहा कि वह चाणक्य और चंद्रगुप्त को गृहप्रवेश के मुहूर्त के दिन इस महल का अवलोकन करने के लिए ले जाने वाला है और वह इस आकस्मिक सुरंग में भी उन्हें ले जाएगा। इस सुरंग का मार्ग जंगल में खुलता है।

राक्षस ने शिल्पी के हाथों में स्वर्ण मुद्राओं की पोटली रखते हुए कहा- बस! अब हमारा काम हो गया शिल्पी। बस तुम हमारी योजना को सफल बनाओ तो हम तुम्हें इस तरह की लाखों स्वर्ण मुद्राओं से लाद देंगे।

शिल्पी ने स्वर्ण मुद्राओं की पोटली खोली और मुद्राओं को देखते हुए ललचाई नजरों से कहा- अमात्य! मुद्राएं तो कभी भी कमा लेंगे, लेकिन आपके लिए कार्य करने का गौरव कभी नहीं कमा पाएंगे।

शिल्पी के जाने के बाद राक्षस ने अपने सभी चुने हुए योद्धा सैनिकों को एकत्रित किया और उनमें से कुछ को सुरंग में और कुछ को उस सुरंग के माध्यम से तीन-चार दिन पहले ही महल के गर्भगृह में पहुंचा दिया।

और अंतत: चंद्रगुप्त और चाणक्य के गृहप्रवेश का शुभ मुहूर्त आ गया।

अगले पन्ने पर, क्या सफल हो पाया राक्षस अपने षड्यंत्र में...


महल दुल्हन की भांति सज-धज रहा था। मुख्य सुरक्षा अधिकारी ने चाणक्य को आकर कहा कि महल की सुरक्षा की जांच पूरी हो गई। चाणक्य ने पूछा- भली- भांति सभी जगहों की जांच कर ली?

सुरक्षा अधिकारी ने कहा- जी, सभी जगह की जांच कर ली।

चाणक्य ने कहा- ठीक है, किंतु फिर भी एक बार पहले मैं महल को देखना चाहूंगा। चाणक्य अपने कुछ सुरक्षा अधिकारियों और सैनिकों के साथ महल को देखने पहुंचे। पुन: महल का सूक्ष्म रूप से अवलोकन किया जाने लगा। सब ओर ठीक लग रहा था तभी अचानक उनकी नजर महल के तल से निकल रही चींटिंयों की कतार पर गई। चाणक्य सोचने लगे- इस संगमरमर के तल में अन्न कहां से आया?

चाणक्य ने क्रोधवश सुरक्षा अधिकारियों को आदेश दिया कि संपूर्ण महल को चारों ओर से घेर लिया जाए और इस महल को तुरंत ही आग के हवाले कर दिया जाए। आदेश का अभी तत्काल पालन किया जाए।

चाणक्य के आदेश का पालन किया गया और महल धू-धू कर जलने लगा। मौका स्थल पर पहुंचकर चंद्रगुप्त क्रोधपूर्ण दृष्टि से चाणक्य की ओर देख रहा था और चाणक्य मंद-मंद मुक्करा रहे थे। तभी महल के भीतर से क्रंदन की आवाज सुनाई देने लगी। भीतर छिपे सैनिक बाहर भागने का रास्ता ढूंढने लगे।

तभी चाणक्य ने कहा- ये अमात्य राक्षस के सैनिक हैं, जो नीचे तहखाने में और किसी गुप्तद्वार या सुरंग में छिपे थे। चंद्रगुप्त को वास्तविकता का भान होते ही उन्हें ग्लानि होने लगी।

फिर चाणक्य ने कहा- राजा को हर परिस्थिति में शांत रहना चाहिए चंद्रगुप्त। जब भी राजा अपना विवेक खो बैठता है तभी उसकी और राष्ट्र की क्षति हो जाती है।

अगले अंक में पढ़ें...सेल्यूकस से युद्ध और उसकी पुत्र हेलन से चंद्रगुप्त का विवाह...