शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025
  • Webdunia Deals
  1. धर्म-संसार
  2. »
  3. सनातन धर्म
  4. »
  5. इतिहास
Written By WD

इन 12 राजाओं ने स्थापित किया था 'राम का राज्य'

राम राज्य
FILE
* दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज नहिं काहुहि ब्यापा॥
सब नर करहिं परस्पर प्रीती। चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती॥1॥
भावार्थ:- 'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। सब मनुष्य परस्पर प्रेम करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते हैं।

पढ़ें... मोदी के काल में 'राम राज्य' या 'हिन्दू राज्य'।

भारत में राम राज्य की स्थापना राम से पूर्व भी की गई थी। कहते हैं कि प्रलय के बाद हर सतयुग में राम होते हैं और 'राम राज्य' की स्थापना की जाती है। यह अट्ठाईसवां कलियुग चल रहा है। विष्णु ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से धरती का भाग्य बनाते और बिगाड़ते हैं। उन्हीं से धर्म की स्थापना है और उन्हीं से धर्म का पालन। जब भी 'राम राज्य' की बात होती है तो सभी समझते हैं कि 'हिन्दू राज्य' की स्थापना होगी, लेकिन यह सही नहीं है। इसे जानते के लिए नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें...

रामचरित मानस में राम राज्य का वर्णन... रामराज्य का वर्णन


हिन्दू संस्कृति में राम द्वारा किया गया आदर्श शासन 'राम राज्य' के नाम से प्रसिद्ध है। राम के राज्य में जनता हर तरह से सुखी और समृद्ध थी। लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए सबकुछ दांव पर लगा दिया जाता था। जीने का अधिकार और सुरक्षा-न्याय का अधिकार सभी को मिला था। आज कुछ लोग 'राम राज्य' की कल्पना का मखौल उड़ाते हैं तो कुछ व्यंग्य में कहते हैं कि 'क्या राम राज्य फैला रखा है।' इसका मतलब यह कि जिसकी जो मर्जी में आए, वह वो काम कर रहा है। नहीं, राम राज्य में ऐसा नहीं था। लोगों को स्वतंत्रता थी लेकिन इस शर्त पर नहीं कि आप दूसरे की स्वतंत्रता छीन लो। आओ जानते हैं कि ऐसे कौन-कौन से राजा था जिन्होंने देश को एकसूत्र में बांधकर 'राम राज्य' स्थापित किया।

राम के पहले सतयुग में स्वायंभुव मनु के पुत्रों ने 'राम राज्य' की स्थापना की थी। प्राचीन भारत के 9 खंड थे- इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रपर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गंधर्व और वारुण तथा यह समुद्र से घिरा हुआ द्वीप उनमें नौवां है। इस संपूर्ण क्षेत्र का महान सम्राट भरत के पिता, पितामह और भरत के वंशों ने बसाया है। यह क्षे‍त्र वर्तमान अफगानिस्तान से ले‍कर अरुणाचल तक और कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक था। महाभारत युद्ध के बाद समय-समय पर 'राम राज्य' स्थापित किया गया।

अगले पन्ने पर पहले 'राम राज्य' स्थापक राजा...


1. राजा भरत : त्रेतायुग में अर्थात भगवान राम के काल के हजारों वर्ष पूर्व प्रथम मनु स्वायंभुव मनु के पौत्र और प्रियव्रत के पुत्र भरत ने इस भारतवर्ष को बसाया था, तब इसका नाम कुछ और था। वायु पुराण के अनुसार महाराज प्रियव्रत का अपना कोई पुत्र नहीं था तो उन्होंने अपनी पुत्री के पुत्र अग्नीन्ध्र को गोद ले लिया था जिसका लड़का नाभि था। नाभि की एक पत्नी मेरू देवी से जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम ऋषभ था। इसी ऋषभ के पुत्र भरत थे तथा इन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा। जैन धर्म के संस्थापक तीर्थंकर ऋषभनाथ ने इस देश को कृषि करना सिखाया था।

राजा प्रियव्रत ने अपनी पुत्री के 10 पुत्रों में से 7 को संपूर्ण धरती के 7 महाद्वीपों का राजा बना दिया था और अग्नीन्ध्र को जम्बू द्वीप का राजा बना दिया था। इस प्रकार राजा भरत ने जो क्षेत्र अपने पुत्र सुमति को दिया, वह भारतवर्ष कहलाया। भारतवर्ष अर्थात भरत राजा का क्षे‍त्र।

भरत एक प्रतापी राजा एवं महान भक्त थे। श्रीमद्भागवत के पञ्चम स्कंध एवं जैन ग्रंथों में उनके जीवन एवं अन्य जन्मों का वर्णन आता है। महाभारत के अनुसार भरत का साम्राज्य संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में व्याप्त था जिसमें वर्तमान भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिज्तान, तुर्कमेनिस्तान तथा फारस आदि क्षेत्र शामिल थे।

2. प्रथम राजा भारत के बाद और भी कई भरत हुए। 7वें मनु वैवस्वत कुल में एक भारत हुए जिनके पिता का नाम ध्रुवसंधि था और जिसने पुत्र का नाम असित और असित के पुत्र का नाम सगर था। सगर अयोध्या के बहुत प्रतापी राजा थे। इन्हीं सगर के कुल में भगीरथ हुए, भगीरथ के कुल में ही ययाति हुए (ये चंद्रवशी ययाति से अलग थे)। ययाति के कुल में राजा रामचंद्र हुए और राम के पुत्र लव और कुश ने संपूर्ण धरती पर शासन किया।

3. भरत : महाभारत के काल में एक तीसरे भरत हुए। पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। कालिदास कृत महान संस्कृत ग्रंथ 'अभिज्ञान शाकुंतलम' के एक वृत्तांत अनुसार राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के पुत्र भरत के नाम से भारतवर्ष का नामकरण हुआ। मरुद्गणों की कृपा से ही भरत को भारद्वाज नामक पुत्र मिला। भारद्वाज महान ‍ऋषि थे। चक्रवर्ती राजा भरत के चरित का उल्लेख महाभारत के आदिपर्व में भी है।

अगले पन्ने पर दूसरे राम राज्य स्थापक राजा...


वैवस्वत मनु : ब्रह्मा के पुत्र मरीचि के कुल में वैवस्वत मनु हुए। एक बार जलप्रलय हुआ और धरती के अधिकांश प्राणी मर गए। उस काल में वैवस्वत मनु को भगवान विष्णु ने बचाया था। वैवस्वत मनु और उनके कुल के लोगों ने ही फिर से धरती पर सृजन और विकास की गाथा लिखी।

वैवस्वत मनु को आर्यों का प्रथम शासक माना जाता है। उनके 9 पुत्रों से सूर्यवंशी क्षत्रियों का प्रारंभ हुआ। मनु की एक कन्या भी थी- इला। उसका विवाह बुध से हुआ, जो चंद्रमा का पुत्र था। उनसे पुरुरवस्‌ की उत्पत्ति हुई, जो ऐल कहलाया जो चंद्रवंशियों का प्रथम शासक हुआ। उसकी राजधानी प्रतिष्ठान थी, जहां आज प्रयाग के निकट झांसी बसी हुई है।

वैवस्वत मनु के कुल में कई महान प्रतापी राजा हुए जिनमें इक्ष्वाकु, पृथु, त्रिशंकु, मांधाता, प्रसेनजित, भरत, सगर, भगीरथ, रघु, सुदर्शन, अग्निवर्ण, मरु, नहुष, ययाति, दशरथ और दशरथ के पुत्र भरत, राम और राम के पुत्र लव और कुश। इक्ष्वाकु कुल से ही अयोध्या कुल चला।

अगले पन्ने पर तीसरे राजा...


राजा हरीशचंद्र : अयोध्या के राजा हरीशचंद्र बहुत ही सत्यवादी और धर्मपरायण राजा थे। वे अपने सत्य धर्म का पालन करने और वचनों को निभाने के लिए राजपाट छोड़कर पत्नी और बच्चे के साथ जंगल चले गए और वहां भी उन्होंने विषम परिस्थितियों में भी धर्म का पालन किया।

ऋषि विश्वामित्र द्वारा राजा हरीशचंद्र के धर्म की परीक्षा लेने के लिए उनसे दान में उनका संपूर्ण राज्य मांग लिया गया था। राजा हरीशचंद्र भी अपने वचनों के पालन के लिए विश्वामित्र को संपूर्ण राज्य सौंपकर जंगल में चले गए। दान में राज्य मांगने के बाद भी विश्वामित्र ने उनका पीछा नहीं छोड़ा और उनसे दक्षिणा भी मांगने लगे।

इस पर हरीशचंद्र ने अपनी पत्नी, बच्चों सहित स्वयं को बेचने का निश्चय किया और वे काशी चले गए, जहां पत्नी व बच्चों को एक ब्राह्मण को बेचा व स्वयं को चांडाल के यहां बेचकर मुनि की दक्षिणा पूरी की।

हरीशचंद्र श्मशान में कर वसूली का काम करने लगे। इसी बीच पुत्र रोहित की सर्पदंश से मौत हो जाती है। पत्नी श्मशान पहुंचती है, जहां कर चुकाने के लिए उसके पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं रहती।

हरीशचंद्र अपने धर्म पालन करते हुए कर की मांग करते हैं। इस विषम परिस्थिति में भी राजा का धर्म-पथ नहीं डगमगाया। विश्वामित्र अपनी अंतिम चाल चलते हुए हरीशचंद्र की पत्नी को डायन का आरोप लगाकर उसे मरवाने के लिए हरीशचंद्र को काम सौंपते हैं।

इस पर हरीशचंद्र आंखों पर पट्टी बांधकर जैसे ही वार करते हैं, स्वयं सत्यदेव प्रकट होकर उसे बचाते हैं, वहीं विश्वामित्र भी हरीशचंद्र के सत्य पालन धर्म से प्रसन्न होकर सारा साम्राज्य वापस कर देते हैं। हरीशचंद्र के शासन में जनता सभी प्रकार से सुखी और शांतिपूर्ण थी। यथा राजा तथा प्रजा।

अगले पन्ने पर चौथे राजा...


राजा सुदास : सम्राट भरत के समय में राजा हस्ति हुए जिन्होंने अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई। राजा हस्ति के पुत्र अजमीढ़ को पंचाल का राजा कहा गया है। राजा अजमीढ़ के वंशज राजा संवरण जब हस्तिनापुर के राजा थे तो पंचाल में उनके समकालीन राजा सुदास का शासन था।

राजा सुदास का संवरण से युद्ध हुआ जिसे कुछ विद्वान ऋग्वेद में वर्णित 'दाशराज्य युद्ध' से जानते हैं। राजा सुदास के समय पंचाल राज्य का विस्तार हुआ। राजा सुदास के बाद संवरण के पुत्र कुरु ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया, परंतु कुछ समय बाद ही पंचाल पुन: स्वतंत्र हो गया।

राजा कुरु के नाम पर ही सरस्वती नदी के निकट का राज्य कुरुक्षेत्र कहा गया। माना जाता है कि पंचाल राजा सुदास के समय में भीम सात्वत यादव का बेटा अंधक भी राजा था। इस अंधक के बारे में पता चलता है कि शूरसेन राज्य के समकालीन राज्य का स्वामी था। दाशराज्य युद्ध में यह भी सुदास से हार गया था। इस युद्ध के बाद भारत की किस्मत बदल गई। समाज में दो फाड़ हो गई।

अगले पन्ने पर पांचवें राजा...


भगवान राम : वन से लौटने के बाद जब भगवान राम ने अयोध्या का शासन संभाला तो उन्होंने कई वर्षों तक भारत पर शासन किया और भारत को एकसूत्र में बांधे रखा। राम के काल में रावण, बाली, जनक, अहिरावण और कार्तवीर्य अर्जुन नाम के महान शासक थे, लेकिन सभी का अंत कर दिया गया था।

कार्तवीर्य अर्जुन या सहस्रार्जुन यदुवंश का एक प्राचीन राजा था। वह बड़ा वीर और प्रतापी था। उसने लंका के राजा रावण जैसे प्रसिद्ध योद्धा से भी संघर्ष किया था। कार्तवीर्य अर्जुन के राज्य का विस्तार नर्मदा नदी से हिमालय तक था जिसमें यमुना तट का प्रदेश भी सम्मिलित था। कार्तवीर्य अर्जुन के वंशज कालांतर में 'हैहय वंशी' कहलाए जिनकी राजधानी 'माहिष्मती' (महेश्वर) थी। इन हैहयों से ही परशुराम का 21 बार युद्ध हुआ था। राम के काल के सभी राजाओं का अपना-अपना क्षेत्र था लेकिन राम ने संपूर्ण भारत को एकसूत्र में बांधकर एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की और जनता को क्रूर शासकों से मुक्ति दिलाई।

अगले पन्ने पर छठे राजा...


राजा युधिष्ठिर : पांडव पुत्र युधिष्ठिर को धर्मराज भी कहते थे। इनका जन्म धर्मराज के संयोग से कुंती के गर्भ द्वारा हुआ था। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर ने ही भारत पर राज किया था। 2964 ई. पूर्व युधिष्ठिर का राज्यारोहण हुआ था।

युधिष्ठिर भाला चलाने में निपुण थे। वे कभी मिथ्या नहीं बोलते थे। उनके पिता ने यक्ष बनकर सरोवर पर उनकी परीक्षा भी ली थी। महाभारत युद्ध के बाद युधिष्ठिर को राज्य, धन, वैभव से वैराग्य हो गया था। वे वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करना चाहते थे किंतु समस्त भाइयों तथा द्रौपदी ने उन्हें तरह-तरह से समझाकर क्षात्रधर्म का पालन करने के लिए प्रेरित किया। उनके शासनकाल में संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर शांति और खुशहाली रही।

युधिष्ठिर सहित पांचों पांडव अर्जुन पुत्र अभिमन्यु के पुत्र महापराक्रमी परीक्षित को राज्य देकर महाप्रयाण हेतु उत्तराखंड की ओर चले गए और वहां जाकर पुण्यलोक को प्राप्त हुए। परीक्षित के बाद उनके पुत्र जन्मेजय ने राज्य संभाला। महाभारत में जन्मेजय के 6 और भाई बताए गए हैं। ये भाई हैं- कक्षसेन, उग्रसेन, चित्रसेन, इन्द्रसेन, सुषेण तथा नख्यसेन।

अगले पन्ने पर सातवें सम्राट...


सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य : सम्राट चन्द्रगुप्त महान थे। उन्हें 'चन्द्रगुप्त महान' कहा जाता है। सिकंदर के काल में हुए चन्द्रगुप्त ने सिकंदर के सेनापति सेल्युकस को दो बार बंधक बनाकर छोड़ दिया था। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु चाणक्य थे। चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्युकस की पुत्री हेलन से विवाह किया था। चन्द्रगुप्त की एक भारतीय पत्नी दुर्धरा थी जिससे बिंदुसार का जन्म हुआ।

चन्द्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी थीं। बिंदुसार के समय में चाणक्य उनके प्रधानमंत्री थे। इतिहास में बिंदुसार को 'पिता का पुत्र और पुत्र का पिता' कहा जाता है, क्योंकि वे चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र और अशोक महान के पिता थे।

चाणक्य और पौरस की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य मगध के सिंहासन पर बैठे और चन्द्रगुप्त ने यूनानियों के अधिकार से पंजाब को मुक्त करा लिया। चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबंध बड़ा व्यवस्थित था। इसका परिचय यूनानी राजदूत मेगस्थनीज के विवरण और कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' से मिलता है। उसक राज्य में जनता हर तरह से सुखी थी।

चन्द्रगुप्त मुरा नाम की भील महिला के पुत्र थे। यह महिला धनानंद के राज्य में नर्तकी थी जिसे राजाज्ञा से राज्य छोड़कर जाने का आदेश दिया गया था और वह महिला जंगल में रहकर जैसे-तैसे अपने दिन गुजार रही थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में भारत एक शक्तिशाली राष्ट्र था।

अगले पन्ने पर आठवें सम्राट...


सम्राट अशोक : अशोक महान प्राचीन भारत में मौर्य राजवंश के राजा थे। अशोक के दादा का नाम चन्द्रगुप्त मौर्य था और पिता का नाम बिंदुसार था। बिंदुसार की मृत्यु 272 ईसा पूर्व हुई थी जिसके बाद अशोक राजगद्दी पर बैठे।

अशोक महान के समय मौर्य राज्य उत्तर में हिन्दुकुश की श्रेणियों से लेकर दक्षिण में गोदावरी नदी के दक्षिण तथा मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में अफगानिस्तान तक था। बस वह कलिंग के राजा को अपने अधीन नहीं कर पाया था। कलिंग युद्ध के बाद अशोक महान गौतम बुद्ध की शरण में चले गए थे।

महात्मा बुद्ध की स्मृति में उन्होंने एक स्तंभ खड़ा कर दिया, जो आज भी नेपाल में उनके जन्मस्थल लुम्बिनी में मायादेवी मंदिर के पास अशोक स्तंभ के रूप में देखा जा सकता है।

सम्राट अशोक को अपने विस्तृत साम्राज्य के बेहतर कुशल प्रशासन तथा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जाना जाता है। अशोक के काल में बौद्ध धर्म की जड़ें मिस्र, सऊदी अरब, इराक, यूनान से लेकर श्रीलंका और बर्मा, थाईलैंड, चीन आदि क्षेत्र में गहरी जम गई थीं। उनके काल में इस संपूर्ण क्षेत्र में शांति और खुशहाली व्याप्त हो चली थी। कहीं भी किसी भी प्रकार का युद्ध नहीं सिर्फ बुद्ध की गुंज थी।

अगले पन्ने पर नौवें सम्राट...


सम्राट विक्रमादित्य : विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से 2285 वर्ष पूर्व हुए थे। विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। विक्रमादित्य सम्राट बनें तो भर्तुहरी एक महान सिद्ध संत।

विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था। उल्लेखनीय है कि अशोक और विक्रादित्य के शासन से प्रेरित होकर ही सम्राट अकबर ने अपने पास भी नवरत्न रखे थे।

उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक 'शायर उर ओकुल' में किया है।

विक्रमादित्य के पहले और बाद और ‍भी विक्रमादित्य हुए हैं जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए।

विक्रमादित्य द्वितीय 7वीं सदी में हुए, ‍जो विजयादित्य (विक्रमादित्य प्रथम) के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा।

इसके अलावा एक और विक्रमादित्य हुए। पल्‍लव राजा ने पुलकेसन को परास्‍त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्‍य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्‍यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्‍त किया। यहां तक कि उसका परपोता विक्रमादित्‍य द्वितीय भी महान योद्धा था।

विक्रमादित्य द्वितीय के बाद 15वीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य 'हेमू' हुए। माना जाता है कि उज्जैन के विक्रमादित्य के पूर्व भी एक और विक्रमादित्य हुए थे।

अगले पन्ने पर 10वें सम्राट..


चन्द्रगुप्त द्वितीय : गुप्त काल को भारत का स्वर्ण काल कहा जाता है। गुप्त वंश की स्थापना चन्द्रगुप्त प्रथम ने की थी। आरंभ में इनका शासन केवल मगध पर था, पर बाद में गुप्त वंश के राजाओं ने संपूर्ण उत्तर भारत को अपने अधीन करके दक्षिण में कांजीवरम के राजा से भी अपनी अधीनता स्वीकार कराई।

समुद्रगुप्त का पुत्र 'चन्द्रगुप्त द्वितीय' समस्त गुप्त राजाओं में सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से संपन्न था। शकों पर विजय प्राप्त करके उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। वह 'शकारि' भी कहलाया। मालवा, काठियावाड़, गुजरात और उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिलाकर उसने अपने पिता के राज्य का और भी विस्तार किया। चीनी यात्री फाह्यान उसके समय में 6 वर्षों तक भारत में रहा। चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का शासनकाल भारत के इतिहास का बड़ा महत्वपूर्ण समय माना जाता है।

चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में गुप्त साम्राज्य अपनी शक्ति की चरम सीमा पर पहुंच गया था। दक्षिणी भारत के जिन राजाओं को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन किया था, वे अब भी अविकल रूप से चन्द्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते थे। शक-महाक्षत्रपों और गांधार-कम्बोज के शक-मुरुण्डों के परास्त हो जाने से गुप्त साम्राज्य का विस्तार पश्चिम में अरब सागर तक और हिन्दूकुश के पार वंक्षु नदी तक हो गया था।

गुप्त वंश में अनेक प्रतापी राजा हुए- श्रीगुप्त, घटोत्कच, चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त प्रथम (महेन्द्रादित्य) और स्कंदगुप्त। चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में भारत ने हर क्षेत्र में उन्नति की। उज्जैन के सम्राट गंधर्वसेन के पुत्र राजा विक्रमादित्य के नाम से चक्रवर्ती सम्राटों को ही विक्रमादित्य की उपाधि से सम्माननीय किया जाता था।

मौर्य वंश के बाद भारत में कुषाण, शक और शुंग वंश के शासकों का भारत के बहुत बड़े भू-भाग पर राज रहा। इन वंशों में भी कई महान और प्रतापी राजा हुए। चन्द्रगुप्त मौर्य से विक्रमादित्य और फिर विक्रमादित्य से लेकर हर्षवर्धन तक कई प्रतापी राजा हुए।

ग्यारहवें सम्राट अगले पन्ने पर...


हर्षवर्धन : इस्लाम धर्म के संस्‍थापक हजरत मुहम्मद के समकालीन राजा हर्षवर्धन ने लगभग आधी शताब्दी तक अर्थात 590 ईस्वी से लेकर 647 ईस्वी तक अपने राज्य का विस्तार किया। हर्षवर्धन ने ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’ और ‘नागरानंद’ नामक नाटिकाओं की भी रचना की। हर्षवर्धन का राज्यवर्धन नाम का एक भाई भी था। हर्षवर्धन की बहन का नाम राजश्री था। उनके काल में कन्नौज में मौखरि वंश के राजा अवंति वर्मा शासन करते थे।

हर्ष का जन्म थानेसर (वर्तमान में हरियाणा) में हुआ था। यहां 51 शक्तिपीठों में से 1 पीठ है। हर्ष के मूल और उत्पत्ति के संदर्भ में एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जो कि गुजरात राज्य के गुन्डा जिले में खोजा गया है।

हर्षवर्धन ने पंजाब छोड़कर शेष समस्त उत्तरी भारत पर राज्य किया था। उनके पिता का नाम प्रभाकरवर्धन था। प्रभाकरवर्धन की मृत्यु के पश्चात राज्यवर्धन राजा हुआ, पर मालव नरेश देवगुप्त और गौड़ नरेश शशांक की दुरभि संधिवश मारा गया। हर्षवर्धन 606 में गद्दी पर बैठा।

6ठी और 8वीं ईसवीं के दौरान दक्षिण भारत में चालुक्‍य बड़े शक्तिशाली थे। इस साम्राज्‍य का प्रथम शास‍क पुलकेसन, 540 ईसवीं में शासनारूढ़ हुआ और कई शानदार विजय हासिल कर उसने शक्तिशाली साम्राज्‍य की स्‍थापना की। उसके पुत्रों कीर्तिवर्मन व मंगलेसा ने कोंकण के मौर्यन सहित अपने पड़ोसियों के साथ कई युद्ध करके सफलताएं अर्जित कीं व अपने राज्‍य का और विस्‍तार किया।

कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेसन द्वितीय चालुक्‍य साम्राज्‍य के महान शासकों में से एक था। उसने लगभग 34 वर्षों तक राज्‍य किया। अपने लंबे शासनकाल में उसने महाराष्‍ट्र में अपनी स्थिति सुदृढ़ की व दक्षिण के बड़े भू-भाग को जीत लिया। उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि हर्षवर्धन के विरुद्ध रक्षात्‍मक युद्ध लड़ना थी।

'कादंबरी' के रचयिता कवि बाणभट्ट उनके (हर्षवर्धन) के मित्रों में से एक थे। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति बनी हुई थी। ऐसी स्थिति में हर्ष के शासन ने राजनीतिक स्थिरता प्रदान की। कवि बाणभट्ट ने उसकी जीवनी 'हर्षच चरित' में विस्तार से लिखी है।

अगले पन्ने पर 12वें सम्राट...


राजा भोज (राज भोज) : ग्वालियर से मिले राजा भोज के स्तुति पत्र के अनुसार केदारनाथ मंदिर का राजा भोज ने 1076 से 1099 के बीच पुनर्निर्माण कराया था। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार यह मंदिर 12-13वीं शताब्दी का है। इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल मानते हैं कि शैव लोग आदिशंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं, तब भी यह मंदिर मौजूद था।

कुछ विद्वान मानते हैं कि महान राजा भोज (भोजदेव) का शासनकाल 1010 से 1053 तक रहा। राजा भोज ने अपने काल में कई मंदिर बनवाए। राजा भोज के नाम पर भोपाल के निकट भोजपुर बसा है। धार की भोजशाला का निर्माण भी उन्होंने कराया था। कहते हैं कि उन्होंने ही मध्यप्रदेश की वर्तमान राजधानी भोपाल को बसाया था जिसे पहले 'भोजपाल' कहा जाता था।

भोज के निर्माण कार्य : मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक गौरव के जो स्मारक हमारे पास हैं, उनमें से अधिकांश राजा भोज की देन हैं, चाहे विश्वप्रसिद्ध भोजपुर मंदिर हो या विश्वभर के शिवभक्तों के श्रद्धा के केंद्र उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर, धार की भोजशाला हो या भोपाल का विशाल तालाब- ये सभी राजा भोज के सृजनशील व्यक्तित्व की देन हैं। उन्होंने जहां भोज नगरी (वर्तमान भोपाल) की स्थापना की वहीं धार, उज्जैन और विदिशा जैसी प्रसिद्ध नगरियों को नया स्वरूप दिया। उन्होंने केदारनाथ, रामेश्वरम, सोमनाथ, मुण्डीर आदि मंदिर भी बनवाए, जो हमारी समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर हैं।

राजा भोज ने शिव मंदिरों के साथ ही सरस्वती मंदिरों का भी निर्माण किया। राजा भोज ने धार, मांडव तथा उज्जैन में 'सरस्वतीकण्ठभरण' नामक भवन बनवाए थे जिसमें धार में 'सरस्वती मंदिर' सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। एक अंग्रेज अधिकारी सीई लुआर्ड ने 1908 के गजट में धार के सरस्वती मंदिर का नाम 'भोजशाला' लिखा था। पहले इस मंदिर में मां वाग्देवी की मूर्ति होती थी। मुगलकाल में मंद‍िर परिसर में मस्जिद बना देने के कारण यह मूर्ति अब ब्रिटेन के म्यूजियम में रखी है।

राजा भोज का परिचय : परमारवंशीय राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। उनके ही वंश में हुए परमार वंश के सबसे महान अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से 1055 ईसवीं तक शासन किया।

महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ई. तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त होते हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा, कोंकण, खानदेश, भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह अपनी नई राजधानी धार को बनाया।

ग्रंथ रचना : राजा भोज खुद एक विद्वान होने के साथ-साथ काव्यशास्त्र और व्याकरण के बड़े जानकार थे और उन्होंने बहुत सारी किताबें लिखी थीं। मान्यता अनुसार भोज ने 64 प्रकार की सिद्धियां प्राप्त की थीं तथा उन्होंने सभी विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे जिसमें धर्म, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, वास्तुशिल्प, विज्ञान, कला, नाट्यशास्त्र, संगीत, योगशास्त्र, दर्शन, राजनीतिशास्त्र आदि प्रमुख हैं।

उन्होंने 'समरांगण सूत्रधार', 'सरस्वती कंठाभरण', 'सिद्वांत संग्रह', 'राजकार्तड', 'योग्यसूत्रवृत्ति', 'विद्या विनोद', 'युक्ति कल्पतरु', 'चारु चर्चा', 'आदित्य प्रताप सिद्धांत', 'आयुर्वेद सर्वस्व श्रृंगार प्रकाश', 'प्राकृत व्याकरण', 'कूर्मशतक', 'श्रृंगार मंजरी', 'भोजचम्पू', 'कृत्यकल्पतरु', 'तत्वप्रकाश', 'शब्दानुशासन', 'राज्मृडाड' आदि ग्रंथों की रचना की।

'भोज प्रबंधनम्' नाम से उनकी आत्मकथा है। हनुमानजी द्वारा रचित रामकथा के शिलालेख समुद्र से निकलवाकर धारा नगरी में उनकी पुनर्रचना करवाई, जो हनुमान्नाष्टक के रूप में विश्वविख्यात है। तत्पश्चात उन्होंने चम्पू रामायण की रचना की, जो अपने गद्यकाव्य के लिए विख्यात है।

आईन-ए-अकबरी में प्राप्त उल्लेखों के अनुसार भोज की राजसभा में 500 विद्वान थे। इन विद्वानों में नौ (नौरत्न) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। महाराजा भोज ने अपने ग्रंथों में विमान बनाने की विधि का विस्तृत वर्णन किया है। इसी तरह उन्होंने नाव व बड़े जहाज बनाने की विधि का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने रोबोट तकनीक पर भी काम किया था।

मालवा के इस चक्रवर्ती, प्रतापी, काव्य और वास्तुशास्त्र में निपुण और विद्वान राजा, राजा भोज के जीवन और कार्यों पर विश्व की अनेक यूनिवर्सिटीज में शोध कार्य हो रहा है।

इसके अलवा गौतमी पुत्र शतकर्णी, यशवर्धन, नागभट्ट और बप्पा रावल, मिहिर भोज, देवपाल, अमोघवर्ष , इंद्र द्वितीय, चोल राजा, राजेंद्र चोल, पृथ्वीराज चौहान, विक्रमादित्य vi, हरिहर राय और बुक्का राय, राणा सांगा, अकबर, श्रीकृष्णदेववर्मन, महाराणा प्रताप, गुरुगोविंद सिंह, शिवाजी महाराज, पेशवा बाजीराव और बालाजी बाजीराव, महाराजा रणजीत सिंह आदि के शासन में भी जनता खुशहाल और निर्भिक रही

-प्रस्तु‍ति अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'