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Written By BBC Hindi
Last Modified: बुधवार, 26 दिसंबर 2007 (17:18 IST)

किशोरावस्था की जिज्ञासाएँ और समलैंगिकता

किशोरावस्था की जिज्ञासाएँ और समलैंगिकता -
-सुनील गुप्ता
BBCBBC
बचपन के दिनों में जो अनुभव अपने परिवार के एक बुजुर्ग से छह-सात बरस की उम्र में मिला वो वहीं नहीं रुका। यह सिलसिला 14 बरस की उम्र तक जारी रहा। वो अकसर दिल्ली आते थे। उनके पास यहाँ घर भी था, गाड़ी थी और दिल्ली में रहते हुए वो गाड़ी भेजकर मुझे बुला लेते थे।

उनकी उम्र काफी हो चली थी इसलिए उन्होंने अपनी सेक्स इच्छाओं को शांत करने का एक और तरीका भी खोज निकाला। वो किसी और जवान व्यक्ति को बुलवाते थे और उसके साथ मेरी यौन गतिविधियों को बैठकर देखते थे।

इन्हीं दिनों मैं सेक्स को लेकर अपनी समझ भी बना रहा था और कुछ प्रयोग भी कर रहा था। इस उम्र में मैं भी कुछ खेल रहा था। मैंने स्कूल में कभी भी बाकी लड़कों के साथ ऐसा कहने या करने की कोशिश नहीं की, लेकिन अपने मोहल्ले में ऐसा हो जाता था।

किशोरावस्था के खेल : मेरे पड़ोस के एक घर में दो भाई थे। छोटा वाला भाई सात बरस का रहा होगा जब मैं 11 बरस का था। उसके साथ मैंने कुछ ऐसे खेल खेले।

लड़कियाँ हमारी जिंदगी में तब तक थी नहीं। जो थीं वो मेरी बहन, जो मुझसे बड़ी हैं, उनकी सहेलियाँ थीं। वो उम्र में बड़ी थीं और इसलिए हम उनसे नहीं खेलते थे बल्कि वे हमारे साथ खेलती थीं।

वे हमारे साथ डॉक्टर-डॉक्टर का खेल खेलती थीं। वे इस खेल में हमें मरीज की भूमिका देती थीं और हमारे सारे कपड़े उतारकर हमें मेज पर लिटा दिया जाता था।

हाँ, एक बात मुझे याद है। एक लड़की हमारी उम्र की भी थी। इसी डॉक्टर-डॉक्टर के खेल की तर्ज पर मैंने उसके साथ इसे दोहराया। मैंने उससे कहा कि मैं डॉक्टर हूँ और तुम मरीज हो। मुझे तुम्हारा चेकअप करना पड़ेगा और इसके लिए तुम्हें कपड़े उतारकर लेटना होगा।

यह पहली बार था जब मुझे यह समझने का मौका मिला कि किसी लड़की का शरीर किस तरह से लड़कों से अलग है। तब ऐसा लगता था कि जो हम कर रहे हैं वो सही नहीं था पर वो बुरा भी नहीं लगता था। दरअसल, कोई इस बारे में बात ही नहीं करता था। बस इतना जरूर भान हुआ कि लड़कियों के साथ नहीं जाना है।

सेक्स की चाहत : 11 से 15 की उम्र के बीच सेक्स के प्रति गतिविधियाँ काफी तेज हो गई थीं और हम लोगों के साथ इसके लिए मिलने लगे।

मैंने खुद कई लोगों से इसके लिए संपर्क करना शुरू किया और किसी ने भी मना नहीं किया। मुझे लगा कि शायद यह अवसर मिलने की बात है। हाँ, इनमें वे लोग शामिल नहीं थे जो मेरे परिवार के थे या दोस्त थे। अकसर ऐसा उनके साथ हुआ जो अपरिचित थे या फिर जिनसे थोड़ा-बहुत संवाद हुआ था।

जैसे एक बार कोई टैक्स वसूलने वाला हमारे घर आया था। उस वक्त घर पर कोई नहीं था। शायद मैंने ही पहल की होगी और फिर हमारे बीच कुछ यौन संपर्क कायम हुआ। जैसे-जैसे यह आगे बढ़ता गया, हमारी हिम्मत बढ़ती गई। कोई भी आता था तो हम उसके साथ संपर्क बनाने की कोशिश करते थे।

इन गतिविधियों के लिए स्कूल में भी दोपहर को रुक जाते थे। बस से हमारा घर वापस आना होता था और बस में घर पहुँचने तक तो ऐसा हमेशा ही होता था कि हम कुछ यौन गतिविधियाँ, छेड़खानी करते थे।

एक रेलगाड़ी भी चलती थी उन दिनों नई दिल्ली से लाजपत नगर के बीच। उसमें मिंटो ब्रिज से हम चढ़ते थे अपने घर निज़ामुद्दीन तक आने के लिए। इस ट्रेन में भी हमारी ऐसी गतिविधियाँ रहती थीं। ट्रेन पर कभी यात्रियों, कभी गार्ड तो कभी पुलिसवालों से हमारा यौन संपर्क बनता रहा।

दिक्कत : इस दौरान एक बार कुछ दिक्कत भी आई। हमारे मोहल्ले का एक लड़का था जो मुझ से काफी बड़ा था, उससे हमारा बहुत जल्दी-जल्दी मिलना होता था।

हमारे मिलने में एक समस्या थी जगह की। हम दोनों ही अपने-अपने परिवारों के साथ रहते थे इसलिए अपनी सेक्स गतिविधियों के लिए हमें कभी-कभी बाहर भी जाना पड़ता था।

इसके लिए जगह का संकट बाहर था भी नहीं। हुमायूँ के मकबरे का बड़ा-सा प्रांगण था और वहाँ काफी जगह थी जहाँ छिपकर हम ऐसी गतिविधियाँ कर सकते थे। (मैं आजतक उस मकबरे की तस्वीरें खींचता रहता हूँ क्योंकि कितनी ही स्मृतियाँ जुड़ी हैं उस मकबरे से हमारी।)

हुमायूँ के मकबरे के पास अब जहाँ एक गुरुद्वारा है, वहाँ पहले जंगल था। एक टूटी हुई दीवार थी जिसे लाँघकर वहाँ जाया जा सकता था और वहाँ कम ही लोग जाते थे।

एक बार हम वहाँ पहुँचे और कुछ शुरू भी नहीं किया था कि तीन-चार पुलिसवाले वहाँ पहुँच गए और हमें धमकियाँ देने लगे। वे बोले कि हम लोगों को पकड़ लिया गया है। हम डर गए, यह विचार नहीं आया कि हम तो कुछ करते हुए पकड़े नहीं गए हैं।

इसके बाद उन पुलिसवालों ने हम लोगों को मारा। यह पहली और आखिरी बार था जब हमें इस वजह से किसी ने मारा हो। मारपीट के बाद उन्होंने हमसे कुछ पैसे की भी माँग रखी।

यहाँ एक बात और समझ में आई और वो थी वर्ग-भेद की। मेरा साथी एक कम आमदनी वाले घर से था। उसे पुलिसवालों ने न तो मारा और न पैसे माँगे। मार भी मुझे पड़ी और उन्होंने पैसे भी मुझसे ही माँगे।

मैंने एक बार उन्हें पैसे दिए पर यह सिलसिला बंद नहीं हुआ। पुलिस वाले मुझसे पैसे माँगते रहे। एक बार पैसों के लिए मैंने अपने घर के पास के बाजार के एक व्यवसायी से मदद माँगी। फिर उस व्यवसायी के माध्यम से पुलिस वालों को मैं पैसे देने लगा।

मुझे लगता है कि पुलिस वाले तो चले गए पर पुलिस वालों के नाम पर वो व्यवसायी मुझसे पैसे लेता रहा। यह सिलसिला दो बरस तक चला....(आगे, अगले अंक में)

(बीबीसी संवाददाता पाणिनी आनंद की सुनील से बातचीत पर आधारित)