कैप्टन लक्ष्मी सहगल की कहानी, उन्हीं की ज़बानी
भारत कुछ ही दिनों में अपनी स्वाधीनता की 65वीं जयंती मनाएगा। उचित ही है कि देश के भीतर स्वाधीनता संग्राम को उसकी परिणति तक पहुंचाने का श्रेय महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी में उनके अनुयायियों को दिया जाता है। पर, यह संग्राम देश के बाहर भी चल रहा था। नेताजी सुभाषचंद्र बोस और उनकी आज़ाद हिंद फौज के वे हज़ारों पुरुष और महिलाएं भी इस श्रेय के अधिकारी हैं, भाग्य ने जिनका साथ नहीं दिया। कैप्टन लक्ष्मी सहगल एक ऐसा ही नाम है। मूल नाम था लक्ष्मी स्वामिनाथन। जन्म 24 अक्टूबर 1914 को मद्रास (अब चेन्नई) के एक सम्मानित परिवार में हुआ था। पिता डॉ. एस स्वामिनाथन हाईकोर्ट के वकील थे। मां एवी अम्मुकुट्टी (अम्मु स्वामिनाथन) सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्रता सेनानी थीं। लक्ष्मी चाहतीं तो कांग्रेस पार्टी में अपने लिए कोई जगह बना सकती थीं। माता-पिता का कांग्रेस के बड़े-बड़े नेताओं के साथ उठना-बैठना था। पर, उन्होंने ऐसा नहीं किया। क्यों नहीं किया, द्वितीय विश्वयुद्ध की मई 2005 में पड़ी 60वीं वर्षगांठ से कुछ दिन पहले एक लंबी बातचीत में मुझे इस प्रकार बताया :-मुझे तो नेताजी के पीछे चलना हैबात 1928 की है। कलकत्ता में अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन चल रहा था। कांग्रेस सेवादल के अध्यक्ष की हैसियत से नेताजी सुभाषचंद्र बोस भी वहां थे। पहली बार मैंने नेताजी को वहीं देखा। सेवादल के स्वयंसेवक कलकत्ता के मैदान में रोज़ सुबह परेड किया करते थे। परेड देखने के लिए लोग सुबह पांच बजे ही पहुंच जाया करते थे। मैं भी उनमें से एक होती थी।गांधीजी को यह परेडें पसंद नहीं थीं। कहते थे, हमारा आंदोलन अहिंसा का है; इन लोगों को तो हिंसा का रास्ता दिखाया जा रहा है। उसी समय मैं समझ गई कि सुभाषचंद्र बोस अन्य नेताओं से अलग हैं। मुझे तो उन्हीं के पीछे चलना है। मां कांग्रेस पार्टी की एक सक्रिय कार्यकर्ता थीं। पंडितजी (जवाहरलाल नेहरू) और गांधी से काफ़ी परिचित थीं। मेरा भी उनसे कई बार मिलना-जुलना हुआ।लेकिन, मेरा मानना था कि ब्रिटेन जैसे घोर साम्राज्यवादी को केवल सत्याग्रह के द्वारा नहीं हटाया जा सकता। हमें कोई न कोई दूसरा रास्ता भी अपनाना पड़ेगा। लक्ष्मी स्वामिनाथन ने 1938 में मद्रास मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की और सोचने लगीं कि अब उन्हें क्या करना चाहिए, हम गांधीजी की इस सलाह से सहमत नहीं थे कि विद्यार्थी कॉलेज छोड़कर सत्याग्रह आंदोलन में शामिल हो जाएं। हम सोचते थे कि भारत को आज़ादी मिल जाने के बाद हम डॉक्टर, इंजीनियर वगैरह आखिर क्या करेंगे? कैसे देश की सेवा करेंगे? मैंने मेडिकल की अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ी। पढ़ाई पूरी की। उसके बाद दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। भारतीय सेना की मेडिकल सर्विस में महिला डॉक्टरों को भी भर्ती किया जाने लगा। उन दिनों मद्रास में सबसे अधिक महिला डॉक्टर हुआ करती थीं। डर लगा कि हमें ज़बरदस्ती सेना में भर्ती किया जाएगा। दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गयाएक सितंबर 1939 को पोलैंड पर आक्रमण कर जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने दूसरे विश्वयुद्ध का बिगुल बजा दिया था। पोलैंड की सहायता के लिए वचनबद्ध ब्रिटेन ने भी अगले ही दिन जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। साथ ही भारत की ब्रिटिश सरकार भी युद्ध में कूद पड़ी।अगस्त 1945 तक चले इस युद्ध में 230000 से अधिक भारतीय सैनिक विदेशी मोर्चों पर लड़े। 24300 मारे गए। 64400 घायल हुए। 11800 का कोई अता-पता नहीं चला और 79500 शत्रु द्वारा युद्धबंदी बना लिए गए।स्पष्ट है कि अंग्रेज़ों को भारतीय सैनिकों ही नहीं, डॉक्टरों की भी बेहद ज़रूरत थी। लेकिन, लक्ष्मी स्वामिनाथन भारत पर राज कर रहे ब्रिटेन की सेना को अपनी सेवा नहीं देना चाहती थीं। सिंगापुर में हमारे कुछ रिश्तेदार थे। इसलिए डॉक्टर की डिग्री मिलने के बाद 1939 में मैं सिंगापुर चली गई। वहां अपनी प्रैक्टिस शुरू की। वहां और मलाया (मलेशिया) में उस समय जो भारतीय रहते थे, अंग्रेज़ उन्हें ज़बरदस्ती रबर के बगानों में मज़दूरी करने के लिए ले गए थे।युद्ध के कारण रबर की क़ीमत तो बहुत बढ़ गई, पर उनकी मज़दूरी ज्यों की त्यों रही। बगान मज़दूरों ने तब हड़ताल कर दी। अंग्रेज़ों ने बड़ी सख्ती से हड़ताल को कुचल दिया। मज़दूरों के नेताओं को पहले जेल में डाल दिया और फिर भारत वापस भेज दिया। सिंगापुर पर हुआ जापानी क़ब्ज़ासिंगापुर में रहने वाले भारतीय और विश्वयुद्ध के कारण वहाँ तैनात ब्रिटिश सेना के भारतीय सैनिक या तो अंग्रेज़ों से इतना दबते या फिर डरते थे कि किसी राजनीतिक पचड़े में नहीं पड़ना चाहते थे। उनसे की सोच तब बदली, जब 8 दिसंबर 1941 को जापानियों ने वहां हमला कर दिया और जनवरी 1942 में मलाया के पतन के बाद 15 फ़रवरी 1942 तक सिंगापुर पर भी क़ब्ज़ा कर लिया : 'जापनी हमले के समय सैनिक तो वहां बहुत थे- भारतीय, ऑस्ट्रेलियन, अंग्रेज़।लेकिन, अंग्रेज़ खुद लड़ने के बदले भारतीयों को आगे कर देते थे और भारतीय भाग खड़े होते थे। सोचते थे, अंग्रेज़ों की जान बचाने के लिए हम क्यों मरें। जापानी अपने हवाई जहाज़ों से बमों के अलावा पर्चे भी गिराते थे। ये पर्चे अंग्रेज़ी, हिंदुस्तानी और तमिल जैसी भषाओं में भी होते थे। उनमें भारतीय सैनिकों से कहा गाया होता था कि तुम अंग्रेज़ों के गुलाम रहकर कब तक उनके लिए लड़ते रहोगे। अपने हथियार डाल दो। हमारे साथ आ जाओ। तुम्हारे देश को आज़ादी दिलाने में हम तुम्हारी मदद करेंगे। अकेले सिंगापुर में उस समय 85000 ब्रिटिश सैनिक तैनात थे। उनमें से 45000 भारतीय थे। वे पहले तो स्वामीभक्त बने रहे। सिंगापुर में जब तक लड़ाई चलती रही और अंग्रेजों ने हार नहीं मानी, तब तक किसी ने पहलू नहीं बदला। किंतु, स्थिति तब बदल गई, जब जापानियों ने मलाया में तैनात पंजाब रेजिमेंट के कैप्टन मोहनसिंह की पूरी रेजिमेंट को घेर लिया। जान बचाने का कोई रास्ता नहीं बचा। तब, मोहनसिंह ने कहा, हम आत्मसमर्पण के लिए तो तैयार हैं, पर तुम्हारा साथ नहीं देंगे। जापानी भी ऐसे थे कि जैसे ही अंग्रेज़ को देखते थे- चाहे वह अफ़सर था या जवान - उसका सिर काट देते थे। मोहनसिंह अपने 8-10 कमांडिंग अफ़सरों को इस तरह मारे जाने से बचाना चाहते थे। अंत में 15 फरवरी 1942 को ब्रिटिश सैनिकों ने जब आत्मसमर्पण किया, तब जापानियों ने अंग्रेज़ों से कहा कि आप भारतीय सैनिकों को अपनी पांच से अलग कर दें। हम उनका आत्मसमर्पण स्वीकार करेंगे, आपका नहीं।भारतीय सैनिक यह सुन कर घबराने लगे कि अंग्रेज़ों से अलग कर दिए जाने के बाद पता नहीं हमारे साथ क्या होगा। यहीं से अंग्रेज़ों के प्रति घृणा शुरू हुई कि जान देने के लिए तो वे हिंदुस्तानियों को आगे कर देते हैं, जान बचाने के वक्त खुद आगे हो लेते हैं।
युद्धबंदी बने आज़ाद हिंद फ़ौज़ी
बताया जाता है कि जापानी सेना के मेजर फुजीहारा और उनके भारतीय दुभाषिए ज्ञानी प्रीतमसिंह ने कैप्टन मोहनसिंह को समझाया कि दक्षिणपूर्व एशिया में ब्रिटिश सेना के जो भारतीय सैनिक युद्धबंदी बनाए गए हैं, उन्हें साथ लेकर वे एक अलग भारतीय सेना खड़ी करें। मोहनसिंह पहले तो झिझक रहे थे, लेकिन अंत में मान गए। फुजीहारा ने उन्हें 40000 भारतीय युद्धबंदी सौंपे। वे ही भावी 'आज़ाद हिंद फ़ौज' का अंकुर बने।'
आत्मसमर्पण के कुछ दिन बाद कैप्टन मोहनसिंह ने युद्धबंदी भारतीय सैनिकों और अफ़सरों की एक सभा बुलाई। सभा में कहा कि हमें जापानियों के ही साथ जाना चाहिए। अंग्रेज़ों की भला कब तक गुलामी करेंगे। बहादुरी के साथ लड़ते-मरते हम हैं, बेहतर वेतन और सुविधाएं वे पाते हैं। सभा में रासबिहारी बोस की भी चर्चा हुई। जापान में और भी कई भारतीय थे। मंचूरिया में भी 8-10 लोग थे। इस सभा में भी आए थे। रासबिहारी बोस की भूमिकास्मरणीय है कि रासबिहारी बोस और उनके क्रांतिकारी साथियों ने ब्रिटिश राज की भारतीय सेना में घुसपैठ कर फ़रवरी 1915 में सैनिक विद्रोह करवाने का विफल प्रयास किया था। उनके साथी तो पकड़े गए, पर वे गिरफ्तारी से बच निकले और उसी वर्ष जापान पहुंच गए। वहां वे जापानी नागरिक बन गए और कुछ अन्य भारतीय देशप्रेमियों के साथ मिलकर 28 से 30 मार्च 1942 के बीच टोक्यो में एक सम्मेलन बुलाया।सम्मेलन में 'भारतीय स्वाधीनता लीग (इंडियन इंडिपेंडेंस लीग)' नाम से एक संस्था की स्थापना करने और भारत की मुक्ति के लिए एक सेना खड़ी करने का फैसला हुआ। 22 जून 1942 को थाइलैंड की राजधानी बैंकॉक में (थाइलैंड भी जापानी क़ब्ज़े में था) इस लीग का दूसरा सम्मेलन हुआ। इस बार नेताजी सुभाषचंद्र बोस को लीग का अध्यक्ष बनने और उसकी सेना की कमान संभालने का न्योता दिया गया। हिटलर ने किया नेताजी को निराशनेताजी अंग्रेज़ों को चकमा देकर काबुल और मॉस्को के रास्ते से 2 अप्रैल 1941 को बर्लिन पहुँच गए थे। वे जर्मन युद्धबंदी शिवरों के भारतीय बंदियों को मिलाकर एक आज़ाद हिंद रेजिमेंट का गठन करने में लगे थे। लेकिन, अपनी 'अस्थाई आज़ाद हिंद सरकार' के लिए जर्मनी की मान्यता प्राप्त करने में विफल रहने से बहुत असंतुष्ट थे। 29 मई 1942 को हिटलर के साथ जर्मनी प्रवास की अपनी एकमात्र मुलाकात से वे इतने निराश हुए कि जर्मनी छोड़ने का मन बनाने लगे। अंततः फ़रवरी 1943 में वे जर्मनी छोड़ कर जापान चले गए।कैप्टन लक्ष्मी सहगल के अनुसार, कैप्टन मोहनसिंह शायद इस बात से अनभिज्ञ थे कि नेताजी जर्मनी में क्या कर रहे हैं। मोहनसिंह ने अपनी ऊपर वर्णित सभा में कहा था कि वे दक्षिणपूर्वी एशिया में जापान के सभी भारतीय युद्धबंदियों को मिलाकर एक आज़ाद हिद फ़ौज बनाएंगे। क़रीब 60-70 हजार सैनिक जमा भी कर लिए। जापानी उन्हें टोक्यो भी ले गए। वहां के प्रधानमंत्री से भी मिलाया। यह सब तो किया, लेकिन लिखकर यह कभी नहीं दिया कि हम आपको एक आज़ाद फ़ौज मानते हैं। मोहनसिंह और उनके साथी लिखित आश्वासन चाहते थे कि जापानी भारत की आज़ादी को स्वीकार करेगे, यह नहीं कि अंग्रेज़ों को भगा कर वे भारत पर अपना राज थोप देंगे, किंतु जापानियों ने ऐसा लिख कर नहीं दिया।फरवरी 1942 से चल कर सितंबर-अक्टूबर आने तक मोहन सिंह कहने लगे कि मुझे तो लगता है कि जापानी भी हमें धोखा ही देंगे। हमें इस्तेमाल करेंगे, कुछ देंगे नहीं। इनसे नाता तोड़ लेना ही बेहतर है। पर, उनकी सेना के ज़्यादातर लोग इससे सहमत नहीं थे। कह रहे थे, अभी-अभी हमने अंग्रेज़ों का साथ छोड़ा है। अब यदि जापानियों का भी साथ छोड़ देंगे, तो न इधर के रहेंगे और न उधर के। (
अगली किश्त में पढ़ें इधर जापानी, तो उधर जर्मन धोखा)