गणतंत्र इसलिए गणतंत्र है क्योंकि यहां पर सभी अपने स्वतंत्रता से जीने का अधिकार होने के साथ ही संविधान में उल्लिखित अधिकार प्राप्त है, लेकिन क्या इन अधिकारों का दुरुपयोग किया गया? क्या मौलिक अधिकार के नाम पर कुछ नागरिकों ने देश को जाति तंत्र या भीड़तंत्र में धकेल दिया? क्या हम अब ऐसे चौराहे पर खड़े हैं जबकि हमें गणतंत्र पर संदेश होने लगा है?
हम संभवत: सवा सौ करोड़ देशवासी हैं। देशवासी हैं या कि भीड़ हैं? अभी तो यह जातियों में बंटी भीड़ ज्यादा नजर आती है। किसी को आरक्षण चाहिए, किसी को कर्जमाफी चाहिए तो किसी को देश से अलग होना है। दरअसल, देश की इस भीड़ को कभी भी एक राष्ट्रीय सोच में नहीं बदला गया। अब सवाल यह उठता है कि कैसे इस बुद्धिहीन भीड़ को मैनेज किया जाए? हालांकि राजनीतिज्ञ लोग इसे मैनेज करने में सफल रहे हैं? उन्होंने इसे जातियों में तोड़कर मैनेज किया है लेकिन भीड़ तो अभी भी भीड़ ही है फिर वह जातियों को भीड़ ही क्यों न हो।
भीड़तंत्र या जाति तंत्र के चलते कानून असफल हो रहे हैं। लोग, नेता, पुलिस और मीडिया मनमानी करने लगे हैं। फेक न्यूज का जमाना है। नतीजा यह है कि अब समझदार लोग सोचने लगे हैं कि कैसे यहां से निकल लिया जाए, कैसे इसे सुधारा जाए या क्यों नहीं किसी गुफा में जाकर धूनी रमा ली जाए? यह भी की अपना कलेजा जलाने से अच्छा है कि घर का चूल्हा जलता रहे। हालांकि इससे उलट अधिकतर लोग सोचते होंगे कि कैसे, किसे और कब लूटा जाए। सत्ता कैसे हथियाई जाए? चाहे इसके लिए झूठ बोलने के अलावा वह सब कुछ करना पड़े जिससे भले ही देश टूट जाए। क्योंकि तोड़कर और बांटकर भी सत्ता और ताकत हासिल की जा सकती है।
दरअसल, यह सारी गड़बड़ी वहां से प्रारंभ होती जहां गणतंत्र को वोट का आधार मान लिया गया। अब वक्त है कि गणतंत्र को गुणों (गुणतंत्र) पर आधारित किया जाए। यदि ऐसा होगा तो किसी आईएस के ऊपर कोई अनपढ़ विधायक, सांसद या अफसर नहीं बैठ पाएगा। हम अपनी जिंदगी खफा दें कलेक्टर बनने में और वह हमारे ऊपर बैठ जाए जातिवाद, दंगे या झूठ फैलाकर? क्यों नहीं विधायक, सांसदों की पहले आईएएस लेवल की परीक्षा हो? फिर चुनाव लड़ने का अधिकार मिले।
प्राचीन काल के हमारे संतों ने गुणतंत्र के आधार पर गणतंत्र की कल्पना की थी, लेकिन हमारे इस गणतंत्र में कोई अंगूठा टेक भी प्रधानमंत्री बनकर हमारी छाती पर मूंग दल सकता है। यह हालात किसी तानाशाही तंत्र से भी बुरे हैं। न ढंग से जी रहे हैं और न मर रहे हैं। निश्चित ही अब लोग सोचने लगे हैं कि या तो गणतंत्र बदलो या चुनाव प्रक्रिया को सुधारों। लेकिन किसी के सोचने से कुछ नहीं होता क्योंकि इस देश के कर्णधारों और महापुरुषों को भी जातियों में बांट दिया गया है। जैसे मान लो की अब यदि किसी महापुरुष ने कोई कार्य उस काल की तात्कालिक परिस्थिति के अनुसार किया है और अब उसे बदलने का वक्त है तो नहीं बदला जा सकता क्योंकि यदि आप उसे बदलने गए तो उस महापुरुष की जाति वाले लोग सड़कों पर उतर आते हैं।
एक प्रसिद्ध राजा ने पहाड़ से गिरे पत्थर को सड़क पर से हटाकर सड़क के किनारे रखवा दिया था। वर्षों बाद जब सड़क को नई बनाकर चौड़ा करने की बात हुई तो इंजीनियर लोग उस पत्थर को हटवाने लगे। लेकिन लोग सड़क पर उतर आए और कहने लगे कि यह तो पवित्र पत्थर है। हमारे बाप-दादाओं ने इसे यहां रखवाया था। आप इसे हटा नहीं सकते। यदि हटाया तो आंदोलन कर देंगे। बस, फिर क्या था आज भी वह पत्थर वहीं पड़ा हुआ है।
इससे उलट भ्रष्टाचार, अव्यवस्था और जंगल राज के खिलाफ चले आंदोलन असफल हो गए हैं, क्योंकि हमने देखा कि कैसे जेपी आंदोलन से पार्टियां बनी और वे सत्ता में आकर कुछ नहीं बदल पाई। कैसे अन्ना आंदोलन से एक पार्टी बनी और वह सत्ता में आकर क्या कर पाई?..दरअसल, सभी को सत्ता और शक्ति चाहिए। वह चाहे फिर किसी भी रास्ते से मिले। अच्छे सपने दिखाकर भी सत्ता में आया जाता है।
राजनीतिज्ञों, पत्रकारों, वकीलों और माननीय उद्योगपतियों के हाथों में शक्ति है जिसका वे अच्छे और सभ्य तरीके से दुरुपयोग करना सीख गए हैं। वे सीधे-सीधे तानाशाह नहीं है, लेकिन अघोषित रूप से सब कुछ है। सभी मिलकर हवा का रुख बदलना अच्छी तरह जानते हैं, क्योंकि सभी जानते हैं कि भीड़ को जो समझा दिया जाएगा वे वह समझ जाएगी। भीड़ का तो दिमाग होता ही नहीं है।
अभी नए तरह की भीड़ अस्तित्व में आई है जिसे सोशल मीडिया कहते हैं। यह धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म सिद्ध करने में माहिर है। यह नए तरह का तंत्र लोकतंत्र को शक्तिशाली बनाने के बजाय उसे नुकसान ज्यादा पहुंचा रहा है या नहीं? इस पर अभी शोध करने की जरूरत है।
धर्मनिरपेक्ष, राष्ट्रवाद और साम्यवाद तो सिर्फ शब्द भर हैं। ऊपर जाकर सभी की सोच मध्ययुगीन बन जाती है। चुनाव लड़ते समय भी सभी इसी सोच से ग्रस्त रहते हैं। गणतंत्र तो दिखावे के लिए है, राष्ट्रगान करने और झंडा वंदन करने के लिए है। एक सभ्य और लोकतांत्रिक देश घोषित करने के लिए है। असल में यहां हर राज्य, पार्टी, भाषा, जाति और धर्म का अलग-अलग तंत्र हो चला है।
मीडिया अब पुलिस, जज और वकीलों का काम भी करने लगी है। नेता अपने हित के लिए कुछ भी करने को तैयार है। चुनाव में लाखों रुपया खर्च होता है। जातियां ब्लैकमेल करने लगी है। सभी को चाहिए आरक्षण, सुविधा, धन, ऋण, शक्ति और पद। भाई साहब किसे मालूम है कि मंदिर के सामने एक महिला भूख से मर गई? फुटपाथ पर सोया व्यक्ति ठंड से मर गया और लोगों को पता ही नहीं चला। तीन साल की बच्ची के रैप की घटनाओं से अब लोगों को फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आए दिन यह छपता रहता है तो अब संवेदनाएं भी मर गई है। 16 दिसंबर 2012 से अब तक कुछ नहीं बदला है।
खैर, भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं और इस दौरान लोगों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति असंतोष भी व्याप्त होता गया। असंतोष का कारण भ्रष्ट शासन और प्रशासन तथा राजनीति का जातिवादी और अपराधीकरण माना जाता है। भारत में बहुत से ऐसे व्यक्ति और संगठन हैं जो भारतीय संविधान के प्रति श्रद्धा नहीं होंगे? हालांकि इस असंतोष को समय-समय पर एक अच्छे नारे, नए सपने से दबा दिया गया।
समझने वाली बात यह है कि लादी गई व्यवस्था या तानाशाह कभी दुनिया में ज्यादा समय तक नहीं चल पाया। माना कि लोकतंत्र की कई खामियां होती है, लेकिन तानाशाही या धार्मिक कानून की व्यवस्था व्यक्ति स्वतंत्रता का अधिकार छीन लेती है, यह हमने देखा है। जर्मन और अफगानिस्तान में क्या हुआ सभी जानते हैं। सोवियत संघ क्यों बिखर गया यह भी कहने की बात नहीं है।
सवाल यह है कि कब हम गणतंत्र की अहमियत समझेंगे? कब हम इसे गुणतंत्र में बदलेंगे? कब हम जातिवादी सोच से बाहर निकलकर एक राष्ट्रीय सोच को अपनाएंगे? वह दिन कब आएगा जबकि अच्छा काम करने वाले सत्ता पक्ष को विपक्ष का समर्थन मिलेगा? वह दिन कब आएगा जबकि शिक्षा के बारे में जानने वाला ही शिक्षा मंत्री और रक्षा के बारे में ज्ञान रखने वाला ही रक्षा मंत्री बनेगा? निश्चित ही कभी तो 26 जनवरी जैसी गणतंत्र में भी सुहानी सुबह होगी।