ऋषि याज्ञवल्क्य ने समझाया आत्मतत्व का महत्व
यह कथा बृहदारण्यक उपनिषद् से ली गई है। ऋषि याज्ञवल्क्य का मन गृहस्थी से ऊब गया। अब वे गृहस्थ-आश्रम में पड़े रहना नहीं चाहते।ऋषि की दो पत्नियां थीं- मैत्रेयी और कात्यायनी।मैत्रेयी से वे कहते हैं- मैं गृहस्थ जीवन छोड़ रहा हूं। आज तेरा कात्यायनी के साथ बंटवारा कर देता हूं। मेरे पास इस आश्रम में जो भी है उसके दो भाग करता हूं, एक भाग तेरा, और दूसरा भाग कात्यायनी का।
मैत्रेयी ने कहा- यदि धन-संपदा से परिपूर्ण यह सारी पृथ्वी मेरी हो जाए तो क्या उससे मैं अमर हो जाऊंगी?- कथं तेन अमृता स्याम्?पृथ्वी की संपूर्ण धन-संपदा से तू अमर नहीं हो सकती। उससे वह परम पद मिलने वाला नहीं, याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया।तब उसे लेकर मैं क्या करूं जिससे मैं अमर नहीं हो सकती? येनाहं नामृता स्याम् किमहं तेन कुर्याम्?। अमर होने का जो उपाय आप जानते हों, वही कृपा कर मुझे बताइए, वही मेरा सच्चा भाग होगा। मैत्रेयी ने निश्चयपूर्वक याज्ञवल्क्य से निवेदन किया।