विष्णुशयन एकादशी विशेष: क्यों प्रभु कभी नहीं सोते, पढ़ें रोचक जानकारी
वैदिक पंचांग अनुसार विष्णुशयन एकादशी से भगवान का शयन का प्रारंभ हो जाता है। देवशयन के साथ ही 'चातुर्मास' भी प्रारंभ हो जाता है। देवशयन के साथ ही विवाह, गृहारंभ, गृहप्रवेश, मुंडन जैसे मांगलिक प्रसंगो पर विराम लग जाता है। हमारे सनातन धर्म की खूबसूरती यही है कि हमने देश-काल-परिस्थितिगत व्यवस्थाओं को भी धर्म व ईश्वर से जोड़ दिया।
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धर्म एक व्यवस्था है और इस व्यवस्था को सुव्यवस्थित रूप से प्रवाहमान रखने हेतु यह आवश्यक था कि इसके नियमों का पालन किया जाए। किसी भी नियम को समाज केवल दो कारणों से मानता है पहला कारण है- 'लोभ' और दूसरा कारण है- 'भय', इसके अतिरिक्त एक तीसरा व सर्वश्रेष्ठ कारण भी है वह है-'प्रेम' किन्तु उस आधार को महत्व देने वाले विरले ही होते हैं।
यदि हम वर्तमान समाज के ईश्वर को 'लोभ' व 'भय' का संयुक्त रूप कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हिन्दू धर्म के देवशयन उत्सव के पीछे आध्यात्मिक कारणों से अधिक देश-काल-परिस्थितगत कारण हैं। इन दिनों वर्षा ऋतु प्रारंभ हो चुकी होती है सामान्य जन-जीवन वर्षा के कारण थोड़ा अस्त-व्यस्त व गृहकेन्द्रित हो जाता है।
यदि आध्यत्मिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो देवशयन कभी होता ही नहीं। जिसे निद्रा छू ना सके और जो व्यक्ति को निद्रा से जगा दे वही तो ईश्वर है। विचार कीजिए परमात्मा यदि सो जाए तो इस सृष्टि का संचालन कैसे होगा! 'ईश्वर' निद्रा में भी जागने वाले तत्व का नाम है और उसके प्राकट्य मात्र से व्यक्ति भी निद्रा में जागने में सक्षम हो जाता है।
गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं 'या निशा सर्वभूतानाम् तस्यां जागर्ति संयमी' अर्थात् जब सबके लिए रात्रि होती है योगी तब भी जागता रहता है। इसका आशय यह नहीं कि शारीरिक रूप से योगी सोता नहीं; सोता है किंतु वह चैतन्य के तल पर जागा हुआ होता है।
निद्रा का नाम ही संसार है और जागरण का नाम 'ईश्वर'। आप स्वयं विचार कीजिए कि वह परम जागृत तत्व कैसे सो सकता है! देवशयन; देवजागरण ये सब व्यवस्थागत बातें हैं। वर्तमान पीढ़ी को यदि धर्म से जोड़ना है तो उन्हें इन परम्पराओं के छिपे उद्देश्यों को समझाना आवश्यक है।
-ज्योतिर्विद् पं. हेमन्त रिछारिया
प्रारब्ध ज्योतिष परामर्श केन्द्र