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योगी सरकार में नौकरशाही ने खूब कराई किरकिरी

योगी सरकार में नौकरशाही ने खूब कराई किरकिरी - Yogi Adityanath, Uttar Pradesh Government, BJP
- अजय कुमार, लखनऊ
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का छह माह का कार्यकाल पूरा हो चुका है। प्रदेश की जनता पहली बार एक संत की सत्ता का अनुभव प्राप्त कर रही है। संत की सत्ता के कई अच्छे पहलू हैं तो कुछ खामियां भी नजर आ रही हैं। पिछली सरकारों के मुकाबले इस सरकार के कामकाज का तरीका काफी बदला-बदला है। विकास को प्राथमिकता दी जा रही है। भयमुक्त प्रदेश बनाने के लिए अपराधियों से सख्ती से निपटा जा रहा है। प्रदेश के विकास के लिए कटिबद्ध सीएम योगी अपने स्वभाव के अनुसार सरकारी मशीनरी के पेंच कस रहे हैं तो अपने मंत्रियों के कामकाज पर भी उनकी पैनी नजर है।
कई नामी बदमाश और अपराधी या तो पुलिस मुठभेड़ में मार दिए गए हैं तो बाकी को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया है। भूमि, खनन, नकल जैसे माफियाओं की कमर तोड़ दी गई है तो खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वालों पर भी शिकंजा कसा गया है। प्रदेश के विकास के लिए कटिबद्ध सीएम योगी अपने स्वभाव के अनुसार सरकारी मशीनरी के पेंच कस रहे हैं तो अपने मंत्रियों के कामकाज पर भी उनकी पैनी नजर है, ताकि सरकार की विकास योजनाओं को आसानी से धरातल पर उतारा जा सके। उत्तर प्रदेश की जनता ने अखिलेश के सीएम बनने के दौरान वह दौर थी देखा था जब अखिलेश के सत्ता संभालते ही सपा के नेता और कार्यकर्ता गुंडागर्दी पर उतारू हो गए थे। जगह-जगह मारपीट की खबरें आ रही थीं, परंतु भाजपा की सरकार बनने के बाद ऐसा नजारा देखने को नहीं मिला। योगी के मंत्री भी फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं। 
 
योगी सरकार और संगठन के लोग जानते हैं कि प्रदेश में जब कानून का राज स्थापित होगा और जनता को विकास का फायदा मिलेगा तभी 2019 की राह आसान हो पाएगी। इसके लिए जरूरी है कि सरकार के साथ-साथ ब्यूरोक्रेसी भी अपना काम पूरी ईमानदारी से करे। खाकी वर्दी सीधे-सादे लोगों पर दबंगई दिखाने की बजाए अपराधियों पर शिकंजा कसे। यह सब तभी हो सकता है जब सीएम योगी नौकरशाही की लगाम कस पाएंगे। इसके साथ-साथ उन्हें ऐसे नौकरशाहों को आगे लाना होगा, जिनकी सरकारी तंत्र पर पकड़ मजबूत हो और छवि बेदाग। नौकरशाहों के ऊपर किसी पार्टी या जाति विशेष का ठप्पा न लगा हो। मगर इस मोर्चे पर अभी योगी सरकार खरी नहीं उतरती दिख रही है, जिसको लेकर कई सवाल भी खड़े हो रहे हैं।
 
बात विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान की थी, तब तत्कालीन मुख्य सचिव राहुल भटनागर और डीजीपी रिजवान अहमद के खिलाफ भाजपा नेताओं/कार्यकर्ताओं ने चुनाव आयोग से शिकायत की थी कि दोनों अधिकारी सपा के एजेंट के रूप में काम कर रहे हैं। बीजेपी के पक्ष में जब नतीजे आए  तो यह कयास लगाना शुरू हो गया कि सत्ता संभालते ही योगी सबसे पहले मुख्य सचिव राहुल भटनागर और डीजीपी रिजवान अहमद की छुट्टी करेगी, लेकिन ऐसा करने की बजाए योगी ने घोषणा कर दी कि वे इसी नौकरशाही से काम चलाएंगे, इसके साथ ही योगी ने फरमान सुना दिया कि अधिकारी बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं के दबाव में न आएं। इसका नतीजा यह हुआ कि बीजेपी वालों की इन अधिकारियों ने सुनना ही बंद कर दिया। योगी के इस एक फरमान से बीजेपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया। यह मामला बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के सामने भी पहुंचा था। इस पर शाह ने सभी मंत्रियों को आदेश दिया था कि वह पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं से मिलने का समय निकाले, ताकि जनता की समस्याओं का निराकरण हो सके।
 
खैर, बात सीएम योगी के ब्यूरोक्रेसी में बदलाव नहीं करने वाले फैसले की की जाए तो इससे संगठन में यह संदेश गया कि सरकार को कार्यकर्ताओं की भावनाओं की कद्र नहीं है। भ्रष्टाचार को लेकर योगी सरकार सख्त नहीं है। दरअसल, यह धारणा मुख्य सचिव राहुल भटनागर को नहीं हटाए जाने के कारण बन रही थी। यहां राहुल भटनागर की चर्चा करना जरूरी है। राहुल भटनागर कभी अपनों के बीच 'शूगर डैडी' के नाम से मशहूर हुआ करते थे, उनके चीनी मिल मालिकों से बहुत अच्छे संबंध थे। राहुल भटनागर को करीब तीन माह के बाद काफी फजीहत उठाने के बाद योगी ने चलता किया और उनकी जगह राजीव कुमार को मुख्य सचिव की कुर्सी सौंपी गई।
 
बहरहाल, योगी सरकार के छह माह के शासनकाल में नौकरशाहों की लापरवाही के कारण सरकार की काफी किरकिरी हो चुकी है। विधानसभा में मिले सफेद पाउडर को खतरनाक पीटीईएन पाउडर बताना, किसानों का लोन माफ करने में की गई लापरवाही का प्रकरण अथवा सरकारी अस्पतालों में बच्चों की मौत के मामलों सहित अन्य कुछ घटनाओं के कारण योगी सरकार की फजीहत को भुलाया नहीं जा सकता है। नौकरशाह मनमानी तो कर ही रहे हैं। मुख्यमंत्री को गुमराह करने का भी कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। इसका उदाहरण बना वाणिज्य विभाग। मुख्यमंत्री योगी के अधीन आने वाले वाणिज्य कर विभाग में एक हजार वैट अधिकारियों के स्थानांतरण व तैनाती को लेकर खींचतान चल रही थी, लंबे मंथन के बाद विभाग के 84 ज्वाइंट कमिश्नरों की सूची गोपनीय ढंग से जारी की गई, कई अधिकारियों के लिए पद भी खाली छोड़े गए, लेकिन शासन में बैठे अधिकारियों ने सीएम को जो जानकारी दी, वह हकीकत से कोसों दूर थी। 
 
सीएम को बताया गया कि अगर विभाग में अधिकारियों की तैनाती में फेरबदल किए गए तो इसका प्रभाव जीएसटी के अनुपालन पर पड़ेगा और ये फेल हो सकती है। वाणिज्य कर विभाग के एक हजार अधिकारियों पर करीब आधा शैक्षिक सत्र खत्म हो जाने के बाद भी स्थानान्तरण की तलवार लटकी हुई है, जबकि एक ही जिले में तीन साल का कार्यकाल पूरा कर चुके अधिकारियों की स्थानान्तरण सूची 30 जून तक जारी हो जानी थी, जो कि अभी तक नहीं जारी हो सकी है। मुख्यमंत्री को जो कारण बताए गए हैं उनकी हकीकत एकदम भिन्न थी, जिन 84 ज्वाइंट कमिश्नरों की तैनाती में फेरबदल किए गए थे, वे वर्षों से नहीं, बल्कि सिर्फ तीन साल का कार्यकाल पूरा कर चुके थे।
    
योगी सरकार में तमाम ऐसे अधिकारी हैं, जो उनके निर्देशानुसार नहीं चलते हैं। फिर कारण चाहे पंचम तल पर बैठे अधिकारी हों या जिलों में तैनात नौकरशाह। अधिकारियों की लापरवाही के चलते सरकारी फाइलों की रफ्तार सुस्त पड़ी है। कानून व्यवस्था, ऊंचाहार सामूहिक हत्याकांड गोरखपुर मेडिकल कॉलेज में बच्चों की मौत और 24 घंटे बिजली सप्लाई में आ रही अड़चन राज्य सरकार के लिए मुश्किल सबब बने हुए हैं। इसी तरह की अन्य समस्याओं की जड़ में कहीं न कहीं नौकरशाही का ढीला रवैया ही सामने आ रहा है।
 
योगी सरकार और पीएम मोदी की महत्वाकांक्षी किसानों का ऋण माफी योजना में भी नौकरशाही के कारण ही सरकार की किरकिरी हुई है। अधिकारी अपने काम के प्रति जरा भी जागरूक होते तो ऐसे हालात पैदा नहीं हो सकते थे। दो, पांच, दस-बीस रुपए का कर्ज माफ करने के नाम पर जो नौटंकी देखने को मिल रही है इसकी जद में नौकरशाह ही हैं। योजना बनाकर ऐसे लोन खत्म कर दिए जाने चाहिए थे। कुछ रुपयों के लोन खत्म कराने के लिए बैंकों पर दबाव डाला जा सकता था। तब ऐसे किसानों के नाम ही कम्प्यूटर से तैयार सूची में नहीं आते जिनकी वजह से आज सरकार का मजाक उड़ाया जा रहा है। किसी का पांच, दस रुपए का कर्जा माफ करने का ढिंढोरा पीटा जाएगा तो सरकार की फजीहत तो होगी ही। जितना कर्ज नहीं माफ हुआ, उससे कहीं अधिक खर्चा ऐसे प्रमाण पत्र आदि बनाने में आ गया होगा। अगर बैंकों पर सरकार का जोर नहीं चला तो भी कम से कम ऐसे किसानों को ऋणमाफी समारोह में बुलाने से तो बचा ही जा सकता था जो मात्र दो-चार, दस-बीस रुपए के ही कर्जदार थे।
      
नौकरशाह लगातार सरकार की किरकिरी कराते जा रहे तो दूसरी तरफ योगी सरकार एक भी ब्यूरोकेट्स को निलंबित करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही। उलटे आईएएस अधिकारियों को बर्खास्त करने की बात कहकर सीएम योगी ने अपनी किरकिरी जरूर करा ली। मालूम हो कि आईएएस/आईपीएस अधिकारियों को बर्खास्त करने का अधिकार सिर्फ केन्द्र के ही पास है। तमाम किन्तु-परंतुओें के साथ-साथ जरूरी यह भी है कि केन्द्र योगी को काम करने, फैसले लेने की पूरी छूट प्रदान करे, जैसा अभी होता नहीं दिख रहा है। इसकी बानगी तब देखने को मिली जब सीएम योगी चाहकर भी अपनी पसंद का प्रमुख सचिव नहीं नियुक्त कर सके। 
 
योगी ने सत्ता संभालते ही कभी गोरखपुर के जिलाधिकारी रह चुके आईएएस अवनीश अवस्थी को अपना प्रमुख सचिव बनाने के लिए दिल्ली से यूपी बुलाया था। दो माह तक अवस्थी हाथ-पैर मारते रहे, लेकिन योगी की एक नहीं चली। अंत में पीएमओ की दखलंदाजी के चलते यूपी कैडर के आईएएस अधिकारी एसपी गोयल को दिल्ली से लखनऊ भेजा गया, जिन्हें योगी का अपना प्रमुख सचिव बनाना पड़ा। इससे जनता और ब्यूरोक्रेसी के बीच योगी सरकार को लेकर गलत संदेश गया। दिल्ली से योगी की सरकार को कंट्रोल करने की बात उठी। कहा तो यहां तक गया कि पीएमओ में बैठे नृपेन्द्र मिश्रा के हाथों में यूपी के अफसरों की कमान रहती है। आरोप यह भी लग रहे हैं कि योगीराज में एक वर्ग विशेष के अधिकारियों को काफी संरक्षण मिल रहा है।
 
बहरहाल, लब्बोलुआब यही है कि नौकरशाही योगी सरकार के लिए एक 'महामारी' जैसी है जो सब कुछ खत्म कर सकती है। योगी को ध्यान रखना होगा कि उनके पहले की सरकारें अगर सत्ता से बेदखल होती रही हैं तो इसका कारण सरकार की नाकामी के साथ-साथ नौकरशाहों की मनमानी भी बड़ा कारण रही है। नवंबर में निकाय चुनाव सरकार के माध्यम से योगी सरकार की पहली परीक्षा होने जा रही है। सरकार चुनाव से पहले नगरों में सफाई अभियान चला रही है, लेकिन उससे पहले उसे अपने प्रशासनिक तंत्र की भी सफाई करनी होगी। आज स्थिति यह है कि नौकरशाह जिलों में तैनाती पर जाना ही पसंद नहीं कर रहे हैं। वे या तो सचिवालय में पोस्टिंग की जुगाड़ में रहते हैं या फिर दिल्ली कूच करने को उतावले रहते हैं। सचिवालय या दिल्ली में तैनाती का फायदा यह होता है कि जिलों में तैनाती के मुकाबले यहां तैनाती से जवाबदेही काफी कम हो जाती है।
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