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Last Modified: शनिवार, 29 दिसंबर 2018 (19:13 IST)

कुंभ मेले में माटी के चूल्हे और गोबर के उपले कर रहे कल्पवासियों की प्रतीक्षा

कुंभ मेले में माटी के चूल्हे और गोबर के उपले कर रहे कल्पवासियों की प्रतीक्षा - Kumbh Mela
प्रयागराज। विश्व के सबसे बड़े आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समागम कुंभ मेले में दूरदराज से आने वाले कल्पवासियों का मिट्टी से बने चूल्हे और गोबर के उपले बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे हैं।
 
 
संगम की रेती पर दूरदराज से आकर श्रद्धालु एवं साधु-महात्मा एक मास का कल्पवास करते हैं। उस दौरान यहां पर मिट्टी से बने चूल्हे, बोरसी और गोबर से बने उपलों की मांग अधिक हो जाती है। चूल्हे पर खाना पकाने, बोरसी में उपला जलाकर हाथ-पैर सेंकने की कड़ाके की सर्दी में आवश्यकता पड़ती है।
 
संगम की रेती पर धूनी लगाने के लिए कल्पवासी, साधु-संत और महात्मा कल्पवास के दौरान 1 मास तक चूल्हे का ही प्रयोग करते हैं। वे संगम में डुबकी लगाने के साथ मिट्टी के चूल्हे पर बने भोजन से दिन की शुरुआत करते हैं जिसमें दान, ध्यान और मोक्ष की प्राप्ति करने का मार्ग छिपा होता है। शुद्धता को पहली प्राथमिकता माना जाता है जिसमें मिट्टी के बने चूल्हे और गोबर के बने उपले शुद्धता की कसौटी पर खरे माने जाते हैं।
 
माटी के चूल्हे और गोबर की पवित्रता को थोड़े में ही समझा जा सकता है। छठ महापर्व पर चढ़ने वाला प्रसाद खजूरी-ठेकुआ बनाने में माटी के बने नए चूल्हे का ही प्रयोग किया जाता है। शाम को गाय के दूध में गुड़ डाल खीर और सोहारी (रोटी) बनता है। इससे पहले गोबर से खासकर गाय के गोबर से आंगन को लीपा जाता है, जहां पूजा की शुरुआत होती है। गोबर से लीपे हुए स्थान पर पूजा एक शुद्धता की पहचान है।
 
संगम क्षेत्र के आसपास रहने वाले लोग सालभर तक मेले की प्रतीक्षा करते हैं। ये लोग मिट्टी के चूल्हे और गोबर से बने उपलों को बेचकर अपना जीवन यहीं यापन करते हैं और अगले साल के माघ मेले, कुंभ या अर्द्ध कुंभ का इंतजार करते हैं।
 
दारागंज में दशाश्वमेघ घाट के आस-पास और शास्त्री पुल के नीचे झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग माटी के चूल्हे और गोबर से उपले पाथने में व्यस्त हैं। कुंभ मेला ऐसे लोगों के लिए रोजगार का अवसर होता है, जो संगम के इर्द-गिर्द रहकर संगम में श्रद्धालुओं को रोजमर्रा के सामान बेचने के लिए छोटी-छोटी दुकान खोलकर परिवार की गुजर-बसर करते हैं। दारागंज से शास्त्री पुल के नीचे तक रहने वाले बड़ी संख्या में परिवारों का गुजारा इन्हीं से चलता है।
 
धूप का आनंद ले रहीं बुजुर्ग फूलमती देवी ने बताया कि 'हम गंगा माई से मनाई था कि एक साल में नहीं, हर 3 महीना मा मेला लगावै, हमन गरीब का पेट भरै का व्यवस्था हो जात है, बाबू। हमनन का पारीश्रम ही लागत है। माटी गंगा के किनारे से लावत हैं और गोबर आस-पास से ले आवत हैं। हमार घर की बहुरिया भी सर्दी में गोबर पाथैय का काम करत हैं। चूल्हा तो हम ही बनाई हैं। मूला खतम होई के बाद एक-दू महीना आराम करन के बाद फिर से अगले साल का तैयारी में जुटत हैं। घर के मरद दूसरन काम करत हैं।'
 
फूलमती ने बताया कि 'गोबर से बने उपलन बड़ी ही शालीनता से पाथने के बाद कई-कई दिनों तक धूप में सुखवाया जाता है। इन उपलन को वर्तमान में 50 रुपए में एक सैकड़ा बिक जात है। मेला शुरू होतन ही एकर दाम बढ़ जाई। तब यह 50 रुपया से बढ़कर 100 रुपया सैकड़ा बिकी। माटी का चूल्हा भी 20 से 30 रुपए में उपलब्ध हो जाता है, जो बाद में 25 से 50 रुपए तक बिक जात है।'
 
एक अन्य महिला संतोषी देवी ने अपना दर्द बयां किया कि 'सालभर का हमार मेहनत का लाभ सालभर उपलन पाथने व मेहनत का चूल्हा बनाकर सुखाने और उसे सुरक्षित रखने वालों को नहीं मिलता। मेले के दौरान बड़े व्यापारी सैकड़े के हिसाब से चूल्हा 10 से 15 रुपए और उपले 50 रुपए में खरीदते हैं और उसे दुगने से तिगुने मूल्य तक बेचते हैं। अब तो हम लोग भी अपना माल खुद ही मेले में किसी किनारे बैठकर बेचते हैं।
 
इन परिवारों की स्त्रियां और पुरुष कुंभ मेले के दौरान आय के स्रोत का मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहते इसलिए मिट्टी से बने चूल्हे और गोबर से बने उपलों को पाथने में ये लोग जुटे हैं। चूल्हा गंगा की चिकनी और काली मिट्टी से तैयार किया जाता है और उसके बाद इस पर पीली मिट्टी का लेप लगाकर सुखाया जाता है। उन्होंने चूल्हे की खासियत बताई कि ये गरम होने के बाद चटकते नहीं।
 
आसपास के लोगों का कहना है कि दूरदराज से आने वाले श्रद्धालुओं के लिए वे पहले से बनाकर अपने घास-फूस के बने उपडौर में रख लेते हैं। इसमें उनकी सालभर की कठिन मेहनत छिपी होती है। दांत किटकिटाती सर्दी में श्रद्धालुओं को यह आसानी से उपलब्ध हो जाती है। गोबर से बने उपलों की मांग मिट्टी के बने चूल्हे से बढ़ जाती है, जो भोजन बनाने के साथ ही ठंड से राहत दिलाने में बेहद कारगर साबित होती है।
 
उन्होंने बताया कि चूल्हे और उपलों से माघ मेला, कुंभ और अर्द्धकुंभ में आने वाले श्रद्धालुओं से उन्हें अच्छी कमाई हो जाती है। माघ मेले की तुलना में अर्द्धकुंभ और कुंभ मेले में बड़ी तादाद में श्रद्धालुओं के आने से अच्छी आमदनी हो जाती है। (वार्ता)
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