शुक्रवार, 29 नवंबर 2024
  • Webdunia Deals
  1. खबर-संसार
  2. समाचार
  3. प्रादेशिक
  4. in the era of gps not lost milestones
Written By
Last Updated :नई दिल्ली , रविवार, 22 जुलाई 2018 (12:37 IST)

जीपीएस के जमाने में 'गुम' नहीं हुए हैं मील के पत्थर

जीपीएस के जमाने में 'गुम' नहीं हुए हैं मील के पत्थर - in the era of gps not lost milestones
नई दिल्ली। जीपीएस के इस जमाने में घर से बाहर निकलते ही लोग अपनी मंजिल का पता ढूंढने लगते हैं, लेकिन आज भी बहुत से लोग ऐसे हैं जो सफर में सड़क किनारे लगे मील के पत्थरों को देखकर इस बात का अंदाजा लगाते हैं कि वे किस रास्ते पर हैं और उनकी मंजिल अभी कितनी दूर है।
 
 
सड़क चाहे छोटी हो या बड़ी, उसके किनारे पर एक निश्चित दूरी पर अलग-अलग रंग के मील के पत्थर लगे दिखाई देते हैं, जिन पर आगे आने वाले किसी स्थान का नाम और वह स्थान कितने किलोमीटर की दूरी पर है वह संख्या लिखी रहती है। इनकी ऊंचाई लगभग समान होती है और आकार भी एक जैसा ही होता है, लेकिन इनके ऊपरी गोलाकार सिरे का रंग अलग होता है।

किसी का रंग हरा होता है तो किसी का नारंगी। कोई नीला होता है, कोई पीला तो कोई काला। ऐसे में बहुत से लोगों के दिल में यह ख्याल आता होगा कि यह पत्थर लगाने का सिलसिला आखिर कब से शुरू हुआ और इनके अलग अलग रंग का मतलब क्या है।
 
 
दरअसल संगमील अर्थात मील का पत्थर लगाने का चलन दुनियाभर में सदियों से है। भारत में 16वीं शताब्दी में अफगान शासक शेर शाह सूरी ने और उसके बाद मुगल बादशाहों ने मुख्य मार्गों पर दूरी का पता देने के लिए कोस मीनार के नाम से मीनारनुमा संगमील लगाना शुरू किया।

यह पत्थर से बने तकरीबन 30 फुट की ऊंचाई के मजबूत ढांचे हुआ करते थे, जिन्हें बाकायदा ईंटों से बने चबूतरे पर लगाया जाता था ताकि यह दूर से दिखाई दें। उस समय यह मीनार विशाल साम्राज्य में संचार और आवागमन में बहुत मददगार साबित होते थे। दिल्ली में आज भी कई स्थानों पर जीर्ण-शीर्ण हालत में कोस मीनार देखे जा सकते हैं।
 
 
भारत में कोस दूरी नापने की एक प्राचीन इकाई हुआ करती थी और इसके सही माप के बारे में राय अलग अलग है। कुछ का कहना है कि यह आज के 1.8 किलोमीटर के बराबर है तो कुछ अन्य इसे 3.2 किलोमीटर के बराबर मानते हैं। अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि सन् 1575 में मुगल बादशाह अकबर ने यह आदेश दिया था कि यात्रियों की सुविधा के लिए आगरा से अजमेर के रास्ते में हर कोस पर एक कोसमीनार का निर्माण कराया जाए। 
 
 
अंग्रेजों के आने के बाद देश में दूरी नापने के लिए किलोमीटर को इकाई बनाया गया और आज देश की अधिकतर छोटी-बड़ी सड़कों पर हर किलोमीटर पर अलग-अलग रंग के मील के पत्थर लगाने का चलन है।
 
सड़क पर किसी मार्कर या मार्गदर्शक की तरह खड़े पत्थर का ऊपरी सिरा जब पीला हो तो समझ जाइए कि आप राष्ट्रीय राजमार्ग पर हैं। केंद्र सरकार द्वारा संचालित लंबी दूरी की सड़क को राष्ट्रीय राजमार्ग कहा जाता है जो राज्यों और शहरों को जोड़ते हैं।

भारत का सबसे बड़ा राजमार्ग राष्ट्रीय राजमार्ग 7 है, जो उत्तरप्रदेश के वाराणसी शहर को भारत के दक्षिणी कोने, तमिलनाडु के कन्याकुमारी शहर से जोड़ता है। इन राजमार्गों के दोनों ओर पीले रंग वाले मील के पत्थर आपको रास्ते का पता देते हैं।
अपने गंतव्य पर पहुंचने के लिए आप अगर सड़क बदलते हैं तो किनारे लगे पत्थर का रंग भी बदल जाता है। अगर पत्थर का रंग पीले से हरा हो जाए तो आप राष्ट्रीय राजमार्ग से राज्य राजमार्ग पर आ चुके हैं। यह वह सड़कें हैं जो राज्यों के विभिन्न जिलों को आपस में जोड़ने का काम करती हैं और इनकी साज संभाल की जिम्मेदारी राज्य सरकार पर होती है।
 
 
अपने गंतव्य की तरफ आगे बढ़ते हुए अगर संगमील काले रंग में रंगा दिखे तो अब आप सफर करते हुए किसी बड़े शहर या जिले में प्रवेश कर चुके हैं। यहां की सड़कों की जिम्मेदारी जिला प्रशासन की होती है और नारंगी रंग के मील के पत्थर का अर्थ है कि आप किसी गांव में पहुंच चुके हैं। ये सड़कें प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अंतर्गत बनाई जाती हैं।
 
अब अगर आप किसी सफर पर निकलें तो सड़क किनारे खड़े इन पत्थरों को अनदेखा न करें क्योंकि रास्ता बताने वाले आधुनिक साधन पता नहीं कब आपका साथ छोड़ दें, लेकिन सदियों से आपको मंजिल का पता देने वाले ये खामोश मील के पत्थर आज भी आपको बताएंगे कि ‘दिल्ली अब दूर नहीं है।’ (भाषा)
ये भी पढ़ें
दिग्विजय ने शिवराज को उनके खिलाफ कार्रवाई करने की चुनौती दी