गधों को चना खिलाने से होती हैं मुरादें पूरी...
हमारे देश की संस्कृति में प्रत्येक पेड़-पौधे और जीव का महत्व है। इस कारण से देवी, देवताओं से जुड़ी ऐसी काल्पनिक और वास्तविक कहानियां का जन्म हुआ है जोकि यह बताने के लिए होती हैं कि दरअसल समूची प्रकृति ही एक दूसरे पर निर्भर है और इस मामले में गधे जैसे प्राणी को पूरी तरह से बेकार या अनुपयोगी नहीं समझा जाना चाहिए।
हमारे देश के कई भागों में चैत्र कृष्ण अष्टमी तिथि को शीतलाष्टमी मनाई जाती है। इस दिन माता शीतला की पूजा होती है। शास्त्रों में बताया गया है कि देवी शीतला रोगों से मुक्ति दिलाने वाली देवी हैं। ऐसी मान्यता है कि चेचक रोग, शीतला माता के नाराज होने से होता है इसलिए बहुत से लोग अभी भी चेचक को रोग मानने की बजाय माता भी कहते हैं। शास्त्रों में बताया गया है कि माता के हाथों में शुद्धता का प्रतीक झाडू़ होता है और यह गर्दभ यानी गधे की सवारी करती हैं।
वैसे पुराणों में देवी कालरात्रि का वाहन भी गर्दभ बताया गया है। ऐसे में धार्मिक दृष्टि से गधा काफी महत्वपूर्ण जानवर हो जाता है। कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी जिले के कड़ा धाम की अधिष्ठात्री देवी मां शीतला की पूजा तब तक अधूरी मानी जाती है जब तक कि उनके वाहन गर्दभ को भक्त चना और हरी घास का भोग नहीं लगा देते। जानकार बताते हैं कि इसी तरह से गधों का अनोखा मेला दुनिया में और कहीं नहीं लगता।
इस मेले में बेचे गए गधों, खच्चरों और घोड़ों की कुल कीमत करोड़ों में पहुंच जाती है। गर्दभ मेले की एक और खूबी है कि धोबी समाज के लोग अपने वैवाहिक रिश्ते भी यहां तय करते हैं। यह रिश्तों की बातचीत के लिए यह उनके लिए भी पूरी तरह से उपयुक्त स्थान होता है, इसीलिए लोग मेले का पूरे वर्ष इंतजार करते हैं।
मेले की चर्चा इस समाज के लोगों में देश के कोने-कोने तक फैली हुई है। शीतला धाम शक्तिपीठ के मुख्य पुजारी मदन लाल के मुताबिक, मान्यता है कि, शीतला धाम में तय किया गया रिश्ता अटूट होता है। वास्तव में देश में शीतला माता धाम कम से कम पांच स्थानों पर हैं जिनमें से एक हरियाणा के गुड़गांव, बिहार के देवघर और अन्य स्थानों पर भी पशु मेले लगते हैं।