पौराणिक ग्रंथों के अनुसार रक्षाबंधन से संबंधित कई कथाएं हमें पढ़ने और सुनने को मिलती हैं। जिनका धार्मिक महत्व होने के साथ-साथ भाई-बहन के प्रेम के अनोखे रिश्ते को निभाने से लेकर उनकी रक्षा करने तक का महत्व दर्शाती हैं। यहां पढ़ें रक्षाबंधन से जुड़ी प्रचलित और पौराणिक कहानियां-history behind celebrating rakhi
1. श्री कृष्ण-द्रौपदी कथा :
एक बार भगवान श्री कृष्ण के हाथ में चोट लग गई तथा खून की धार बह निकली। यह सब द्रौपदी से नहीं देखा गया और उसने तत्काल अपनी साड़ी का पल्लू फाड़कर भगवान श्री कृष्ण के हाथ में बांध दिया, फलस्वरूप खून बहना बंद हो गया। जिस दिन यह प्रसंग हुआ था, उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा थी।
कुछ समय पश्चात जब दुःशासन ने द्रौपदी की चीरहरण किया तब श्री कृष्ण ने चीर बढ़ाकर इस बंधन का उपकार चुकाया। तभी से इसी दिन रक्षाबंधन मनाया जाता है और सभी बहनें 'द्रौपदी' की ही तरह अपने भाइयों को रक्षासूत्र बांधती हैं और भाई भी 'श्री कृष्ण' की तरह ही बहनों की रक्षा का वचन देते हैं।
2. मुगल शासक की कथा :
भारतीय इतिहास के अनुसार मुसलमान शासक भी रक्षाबंधन की धर्मभावना पर न्योछावर थे। जहांगीर ने एक राजपूत स्त्री का रक्षा सूत्र पाकर समाज को विशिष्ट आदर्श प्रदान किया। इस संदर्भ में पन्ना की राखी विशेषतः उल्लेखनीय है। एक बार राजस्थान की दो रियासतों में गंभीर कलह चल रहा था।
एक रियासत पर मुगलों ने आक्रमण कर दिया। अवसर पाकर दूसरी रियासत वाले राजपूत मुगलों का साथ देने के लिए सैन्य सज्जा कर रहे थे। पन्ना भी इन्हीं मुगलों के घेरे में थी। उसने दूसरी रियासत के शासक को, जो मुगलों की सहायतार्थ जा रहा था, राखी भेजी। राखी पाते ही उसने उलटे मुगलों पर आक्रमण कर दिया। मुगल पराजित हुए। इस तरह रक्षाबंधन के कच्चे धागे ने दोनों रियासतों के शासकों को पक्की मैत्री के सूत्र में बांध दिया।
3. हुमायूं कर्णावती कथा :
यह मध्यकालीन इतिहास की घटना है। चित्तौड़ की हिन्दूरानी कर्णावती ने दिल्ली के मुगल बादशाह हुमायूं को अपना भाई मानकर उनके पास राखी भेजी थी। हुमायूं ने रानी कर्णावती की राखी स्वीकार की और समय आने पर रानी के सम्मान की रक्षा के लिए गुजरात के बादशाह से युद्ध किया।
4. इंद्रदेव के सफलता की कहानी :
एक बार युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा- 'हे अच्युत! मुझे रक्षाबंधन की वह कथा सुनाइए जिससे मनुष्यों की प्रेतबाधा तथा दुख दूर होता है।' भगवान कृष्ण ने कहा- हे पांडव श्रेष्ठ! एक बार दैत्यों तथा सुरों में युद्ध छिड़ गया और यह युद्ध लगातार बारह वर्षों तक चलता रहा। असुरों ने देवताओं को पराजित करके उनके प्रतिनिधि इंद्र को भी पराजित कर दिया। ऐसी दशा में देवताओं सहित इंद्र अमरावती चले गए।
उधर विजेता दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। उसने राजपद से घोषित कर दिया कि इंद्रदेव सभा में न आएं तथा देवता व मनुष्य यज्ञ-कर्म न करें। सभी लोग मेरी पूजा करें। दैत्यराज की इस आज्ञा से यज्ञ-वेद, पठन-पाठन तथा उत्सव आदि समाप्त हो गए। धर्म के नाश से देवताओं का बल घटने लगा।
यह देख इंद्र अपने गुरु बृहस्पति के पास गए तथा उनके चरणों में गिरकर निवेदन करने लगे- गुरुवर! ऐसी दशा में परिस्थितियां कहती हैं कि मुझे यहीं प्राण देने होंगे। न तो मैं भाग ही सकता हूं और न ही युद्धभूमि में टिक सकता हूं। कोई उपाय बताइए। बृहस्पति ने इंद्र की वेदना सुनकर उसे रक्षा विधान करने को कहा। श्रावण पूर्णिमा को प्रातःकाल निम्न मंत्र से रक्षा विधान संपन्न किया गया।
मंत्र- 'येन बद्धो बलिर्राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामभिवध्नामि रक्षे मा चल मा चलः।'
इंद्राणी ने श्रावणी पूर्णिमा के पावन अवसर पर द्विजों से स्वस्तिवाचन करवा कर रक्षा का तंतु लिया और इंद्र की दाहिनी कलाई में बांधकर युद्धभूमि में लड़ने के लिए भेज दिया। 'रक्षाबंधन' के प्रभाव से दैत्य भाग खड़े हुए और इंद्र की विजय हुई। राखी बांधने की प्रथा का सूत्रपात यहीं से होता है।
5. मां लक्ष्मी और राजा बली :
रक्षाबंधन से जुड़ी एक कहानी यह भी है कि एक बार राजा बली ने भगवान विष्णु की कठोर उपासना की और उनसे वचन ले लिया कि वे हमेशा ही उनके साथ रहेंगे। फिर विष्णु जी बली के साथ रहने लगे। ऐसे में माता लक्ष्मी परेशान हो गईं और उन्होंने राजा बली की कलाई पर रक्षा सूत्र बांध दिया और उपहार में अपने पति को वापस मांग लिया। उस दिन भी श्रावण मास की पूर्णिमा ही थी।