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Written By WD

अच्छे लोगों के हाथों में हो राजनीति

- ओशो रजनीश

Osho discourse | अच्छे लोगों के हाथों में हो राजनीति
15 अगस्त को भारत को राजनीतिक स्वतंत्रता मिली लेकिन क्या स्वतंत्र भारत को स्वस्थ राजनीति नसीब हुई? पढ़ें ओशो की अंतर्दृष्टि की राजनीति के विषय में।

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अच्छे लोगों के हाथों में राजनीति आ जाए तो अभूतपूर्व परिवर्तन हो सकते हैं। क्यों? कुछ थोड़ी-सी बातें हम खयाल में ले लें। बुरा आदमी बुरा सिर्फ इसलिए है कि अपने स्वार्थ के अतिरिक्त वह कुछ भी नहीं सोचता। अच्छा आदमी इसलिए अच्छा है कि अपने स्वार्थ से दूसरे के स्वार्थ को प्राथमिकता देता है। तो बड़ा फर्क पड़ेगा। अभी 'राजनीति' व्यक्तियों का निहित स्वार्थ बन गई है, तब राजनीति समाज का स्वार्थ बन सकती है- एक बात।

बुरा आदमी सत्ता में जाने के लिए सब बुरे साधनों का उपयोग करता है और एक बार सत्ता में जाने में, अगर बुरे साधनों का उपयोग शुरू हो जाए तो जीवन की सब दिशाओं में बुरे साधन प्रयुक्त हो जाते हैं। जब एक राजनीतिज्ञ बुरे साधन का प्रयोग करके मंत्री हो जाए, तो एक गरीब आदमी बुरे साधनों का उपयोग करके अमीर क्यों न हो जाए? और एक शिक्षक बुरे साधनों का उपयोग करके वाइस-चांसलर क्यों न हो जाए? और एक दुकानदार बुरे साधनों को उपयोग करके करोड़पति क्यों न हो जाए? क्या बाधा है?

'राजनीति' थर्मामीटर है पूरी जिंदगी का। वहाँ जो होता है, वह सब तरफ जिंदगी में होना शुरू हो जाता है। तो राजनीति में बुरा आदमी अगर है तो जीवन के सभी क्षेत्रों में बुरा आदमी सफल होने लगेगा और अच्छा आदमी हारने लगेगा। और बड़े से बड़ा दुर्भाग्य हो सकता है किसी देश का, कि वहाँ बुरा होना असफलता लाता हो, भला होना असफलता ले आता हो।

आज इस देश में भला होना असफलता की पक्की 'गारंटी' है। किसी को असफल होना हो, तो भले होने से अच्छा 'गोल्डन रूल' नहीं है। बस भला हो जाए, असफल हो जाएगा। और जब भला होना असफलता बन जाए, और बुरा होना सफलता की सीढ़ियाँ बनने लगे, तो जिंदगी सब तरफ विकृत और कुरूप हो जाए, तो आश्चर्य क्या है!

राजनीति जितनी स्वस्थ हो, जीवन के सारे पहलू उतने ही स्वस्थ हो सकते हैं। क्योंकि राजनीति के पास सबसे बड़ी ताकत है। ताकत अशुभ हो जाए तो फिर कमजोरों को अशुभ होने से नहीं रोका जा सकता है। मैं मानता हूँ कि राजनीति में जो अशुद्धता है, उसने जीवन के सब पहलुओं को अशुद्ध किया है।

सत्ता जिसके पास है, वह दिखाई पड़ता है पूरे मुल्क को, और जाने-अनजाने हम उसकी नकल करना शुरू कर देते हैं। सत्ता की नकल होती है, क्योंकि लगता है कि सत्ता वाला आदमी ठीक होगा। अंग्रेज हिंदुस्तान में सत्ता में थे, तो हमने उनके कपड़े पहनने शुरू किए। वह सत्ता की नकल थी। वे कपड़े भी गौरवपूर्ण, प्रतिष्ठापूर्ण मालूम पड़े।

अगर अंग्रेज सत्ता में न होते और चीनी सत्ता में होते तो मैं कल्पना नहीं कर सकता कि हमने चीनियों की नकल न की होती। हमने चीनियों के कपड़े पहने होते। सत्ता में अंग्रेज था, तो उसकी भाषा हमें ज्यादा गौरवपूर्ण मालूम होने लगी। सत्ता के साथ सब चीजें नकल होनी शुरू हो जाती हैं। सत्ताधिकारी जो करता है, वह सारा मुल्क करने लगता है।

जब एक बार अनुयायी को यह पता चल जाए, कि सब नेता बेईमान हैं, तो अनुयायी को कितनी देर तक ईमानदार रखा जा सकता है। नहीं, अच्छे आदमी के आने से आमूल परिवर्तन हो जाएँगे।

अच्छा आदमी कुर्सी को पकड़ता नहीं : फिर अच्छे आदमी की बड़ी से बड़ी जो खूबी है, वह यह है कि वह कुर्सी को पकड़ नहीं लेगा, क्योंकि अच्छा आदमी कुर्सी की वजह से ऊँचा नहीं हो गया है। ऊँचा होने की वजह से कुर्सी पर बिठाया गया है। इस फर्क को हमें समझ लेना चाहिए। बुरा आदमी कुर्सी पर बैठने से ऊँचा हो गया है, वह कुर्सी छोड़ेगा, फिर नीचा हो जाएगा। तो बुरा आदमी कुर्सी नहीं छोड़ना चाहता है।

अच्छा आदमी, अच्छा होने की वजह से कुर्सी पर बिठाया गया है। कुर्सी छोड़ने से नीचा नहीं हो जाने वाला है। अच्छा आदमी कुर्सी को छोड़ने की हिम्मत रखता है। और जो लोग कुर्सी को छोड़ने की हिम्मत रखते हैं, किसी भी चीज को चुपचाप छोड़ सकते हैं, बिना किसी जबर्दस्ती किए उनके साथ, वह मुल्क की जीवनधारा का अवरोध नहीं बनते।

लेकिन बुरा आदमी पकड़ लेता है, छोड़ता नहीं है। अच्छा आदमी जब भी पाएगा कि मुझसे बेहतर आदमी काम करने आ रहा है, तो वह कहता है, अब आ जाओ, मैं हट जाता हूँ। अच्छे आदमी की हटने की हिम्मत, बड़ी कीमत की चीज है। बुरे आदमी की हटने की हिम्मत ही नहीं होती है। वह जोर से पकड़ लेता है। एक ही रास्ते से हटता है वह। उसको या तो बड़ी कुर्सी दो, तो वह हट सकता है, नहीं तो नहीं हट सकता, और या फिर मौत आ जाए, तो मजबूरी में हटता है।

अच्छा आदमी सत्ता में होगा तो अच्छे आदमी को पैदा करने की व्यवस्था करता है। क्योंकि बुरा आदमी जो प्रतिक्रिया पैदा करता है, उससे और बुरे आदमी पैदा होते हैं। और यह भी ध्यान रहे कि बुरा आदमी जब चलन में हो जाता है तो अच्छे आदमी को चलन से बाहर करता है, खोटे सिक्के की तरह।

अगर खोटा सिक्का बाजार में आए तो अच्छा सिक्का एकदम बाजार से नदारद हो जाता है। खोटा सिक्का चलने की कोशिश करता है, अच्छे सिक्कों को हटा देता है। बुरे आदमी जब ताकत में हो जाते हैं, तो अच्छे आदमी को जगह-जगह से हटा देते हैं।

जीसस को किसने मारा? बुरे आदमियों ने, एक अच्छे आदमी की संभावना को! सुकरात को किसने जहर दिया? बुरे आदमियों ने, 'पोलिटीशियंस' ने, एक अच्छे आदमी को! अच्छा आदमी बुरे आदमियों के लिए बहुत अपमानजनक है। इसलिए अच्छे की संभावना तोड़ता है, जगह-जगह से तोड़ता है। बुरा आदमी अपने से भी बुरे आदमी चाहता है, जिनके बीच वह अच्छा मालूम पड़ सके। और इसलिए बुरा आदमी अपने चारों तरफ, अपने से बुरे आदमी इकट्ठे कर लेता है। बुद्ध अपने से ज्यादा बुद्ध इकट्ठा कर लेता है, उनका गुरु हो सकता है।

व्यक्ति को चुनिए, न कि पार्टी को : किसी देश में आज तक ऐसा नहीं है, कि हम अच्छे और बुरे आदमी को चुनने का विचार करें और इसलिए किसी देश में अभी भी ठीक लोकतंत्र पैदा नहीं हो सका है। लेकिन यह हो सकता है। लेकिन एक खयाल जकड़ जाता है, तो उससे अन्यथा सोचने में हमें कठिनाई मालूम पड़ती है। दल का एक खयाल पकड़ गया है कि दल के बिना राजनीति हो नहीं सकती। दल अगर होगा तो अच्छा आदमी कभी प्रवेश नहीं कर सकता। दल प्रवेश करेगा, आदमी का सवाल नहीं है।

यह सारी दुनिया की तकलीफ है, भारत की नहीं है। क्या हर्ज है, अगर पूरा मुल्क अच्छे आदमियों को चुने? उनके अपने विचार होंगे, अपनी धारणाएँ होंगी। हम 'पार्टी बेसिस' पर उन्हें नहीं चुनते। उनके अच्छे होने की वजह से चुनते हैं।

वे पचास आदमी इकट्ठे होकर दिल्ली में निर्णय करेंगे, वे पचास आदमी अपने बीच से चुनेंगे, वे ही निर्णय करेंगे। वहाँ दिल्ली की उनकी लोकसभा में पार्टियाँ हो सकती हैं, लेकिन पूरा मुल्क अच्छे आदमी की चिंता करके चुनेगा। दस अच्छे सोशलिस्ट चुने जाएँगे, दस अच्छे कांग्रेसी चुन जाएँगे। वे ऊपर जाकर निर्णय करेंगे। हमारे चुनाव का आधार पार्टी नहीं होगी, आदमी होगा। ऊपर पार्टियाँ होंगी, वह अपना निर्णय करेंगी, अपना प्रधानमंत्री बनाएँगी। वह दूसरी बात है।

मुल्क अच्छे आदमी की दृष्टि से चुनाव करेगा तो बड़ा परिवर्तन हो जाएगा, बड़ी क्रांति हो जाएगी। अच्छे आदमियों की बड़ी जमात वहाँ इकट्ठी हो। तो मैं नहीं मानता हूँ, कि कोई पार्टी की सरकार होनी भी जरूरी है। अगर अच्छे लोगों की जमात हो तो अच्छे लोगों की सरकार हो सकती है। वह मिली-जुली हो सकती है। और मिली-जुली सरकार अच्छे आदमियों की हो सकती है। बुरे आदमियों की तो मिली-जुली सरकार नहीं हो सकती, असंभव है।

मेरा मानना यह है कि पार्टियों के दल पर देश को चुनाव करना नहीं चाहिए। देश का आम जन तो व्यक्ति की फिक्र करे, कि कैसा व्यक्तित्व, उसको चुने। ऊपर पार्टियाँ हो सकती हैं, वे मिल-जुलकर ही काम कर सकती हैं, इकट्ठे भी काम कर सकती हैं।

और भारत जैसे देश में मिल-जुलकर ही काम हो तो अच्छा है। एक पार्टी अगर मुल्क के अच्छे की बात भी करे, तो दूसरी पार्टी को सिर्फ इसलिए विरोध करना पड़ता है कि वह विरोधी है। उसे सब बाधाएँ खड़ी करनी पड़ती हैं, सब विरोध करना पड़ता है। सारे राजनीतिज्ञ चिल्लाते हैं, लोगों को समझाते हैं, 'को-आपरेशन' चाहिए, लेकिन उनसे पूछना चाहिए कि तुम्हारे बीच कितना 'को-आपरेशन' है। वहाँ कितना तुम मिल-जुलकर काम कर सकते हो। अगर कोई बढ़िया आदमी है, और वह दूसरी तरफ से आया है, दूसरी दिशा से, तो तुम कितना उसका उपयोग कर सकते हो?

पार्टी कहाँ ले गई आपको? वह तो एक पार्टी थी, तो ठीक था। कोई अव्यवस्था नहीं मालूम पड़ती थी। अब बराबर वजन की दस पार्टियाँ हो जाएँगी, तो रोज सरकार बदलेगी। और भारत जैसे गरीब मुल्क में, रोज सरकार का बदलना बहुत महँगा है। और रोज सरकार बदलें तो विकास क्या हो? गति क्या हो?

मेरी दृष्टि यह है कि पार्टी के ढंग से आपने चुनाव किया, तो अच्छे आदमी की खोज बहुत मुश्किल है। अच्छे आदमी की खोज पर चुनाव होने चाहिए, चाहे वह किसी पार्टी का हो।

'स्वर्णपाखी था जो कभी' पुस्तक से/सौजन्य ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन