• Webdunia Deals
  1. सामयिक
  2. ओशो वाणी
  3. ओशो वाणी
  4. ओशो की नजर में कबीर : कबीर ऐसे हैं, जैसे पूर्णिमा का चांद
Written By ओशो

ओशो की नजर में कबीर : कबीर आग है एक घूंट भी पी लो तो अग्नि भभक उठे

Sant Kabir Jayanti | ओशो की नजर में कबीर : कबीर ऐसे हैं, जैसे पूर्णिमा का चांद
ओशो रजनीश ने कबीर पर बहुत कुछ कहा, उनके प्रवचनों पर ही आधारित कई पुस्तकों का निर्माण हुआ। जैसे 'कहे कबीर दिवाना', 'सुनो भाई साधो', 'लिखा लिखी की है नहीं', 'गूंगे केरी सरकरा', 'कहै कबीर मैं पूरा पाया' 'कबीर वाणी' आदि कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। ओशो कहते हैं कि संत कई हुए हैं, लेकिन कबीर मानो पूर्णिमा का पूरा चांद। साधारण भाषा के असाधारण संत कबीर दास पर ओशो के प्रारंभिक प्रवचनों के अंश यहां प्रस्तुत हैं।
 
 
कबीर! संत तो हजारों हुए हैं, पर कबीर ऐसे हैं, जैसे पूर्णिमा का चांद- अतुलनीय, अद्वितीय! जैसे अंधेरे में कोई अचानक दीया जला दे, ऐसा यह नाम है। जैसे मरुस्थल में कोई अचानक मरुद्यान प्रकट हो जाए, ऐसे अद्भुत और प्यारे उनके गीत हैं!  मैं कबीर के शब्दों का अर्थ नहीं करूंगा। शब्द तो सीधे-सादे हैं। कबीर को तो पुनरुज्जीवित करना होगा। 
 
व्याख्या नहीं हो सकती उनकी, उन्हें पुनरुज्जीवन दिया जा सकता है। उन्हें अवसर दिया जा सकता है कि वे मुझसे बोल सकें। तुम ऐसे ही सुनना, जैसे यह कोई व्याख्या नहीं है; जैसे बीसवीं सदी की भाषा में, पुनर्जन्म है। जैसे कबीर का फिर आगमन है। और बुद्धि से मत सुनना। कबीर का कोई नाता बुद्धि से नहीं। 
 
कबीर तो दीवाने हैं। और दीवाने ही केवल उन्हें समझ पाए और दीवाने ही केवल समझ पा सकते हैं। कबीर मस्तिष्क से नहीं बोलते हैं। यह तो हृदय की वीणा की अनुगूंज है। और तुम्हारे हृदय के तार भी छू जाएं, तुम भी बज उठो, तो ही कबीर समझे जा सकते हैं। यह कोई शास्त्रीय, बौद्धिक आयोजन नहीं है। कबीर को पीना होता है, चुस्की-चुस्की। और डूबना होता है, भूलना होता है अपने को, मदमस्त होना होता है। 
 
 
भाषा पर अटकोगे, तो चूकोगे; भाव पर जाओगे तो पहुंच जाओगे। भाषा तो कबीर की टूटी-फूटी है। बिना पढ़े-लिखे थे। लेकिन भाव अनूठे हैं कि उपनिषद फीके पड़ें, कि गीता, कुरान और बाइबिल भी साथ खड़े, होने की हिम्मत न जुटा पाएं। भाव पर जाओगे तो...। भाषा पर अटकोगे तो कबीर साधारण मालूम होंगे। 
 
 
कबीर ने कहा भी- लिखा-लिखी की है नहीं, देखा-देखी बात। नहीं, पढ़कर नहीं कह रहे हैं। देखा है आंखों से। जो नहीं देखा जा सकता, उसे देखा है, और जो नहीं कहा जा सकता, उसे कहने की कोशिश की है। बहुत श्रद्धा से ही कबीर समझे जा सकते हैं। 
 
शंकराचार्य को समझना हो, श्रद्धा की ऐसी जरूरत नहीं। शंकराचार्य का तर्क प्रबल है। नागार्जुन को समझना हो, श्रद्धा की क्या आवश्यकता! उनके प्रमाण, उनके विचार, उनके विचार की अद्भुत तर्कसरणी- वह प्रभावित करेगी। कबीर के पास न तर्क है, न विचार है, न दर्शनशास्त्र है। 
 
शास्त्र से कबीर का क्या लेना-देना! कहा कबीर ने- ‘मसि कागद छुओ नहीं।’कभी छुआ ही नहीं जीवन में कागज, स्याही से कोई नाता ही नहीं बनाया। सीधी-सीधी अनुभूति है; अंगार है, राख नहीं। राख को तो तुम सम्हाल कर रख सकते हो। अंगार को सम्हालना हो तो श्रद्धा चाहिए, तो ही पी सकोगे यह आग।
 
कबीर आग हैं। और एक घूंट भी पी लो तो तुम्हारे भीतर अग्नि भभक उठे- सोई अग्नि जन्मों-जन्मों की। तुम भी दीए बनो। तुम्हारे भीतर भी सूरज उगे। और ऐसा हो, तो ही समझना कि कबीर को समझा। 
 
ऐसा न हो, तो समझना कि कबीर के शब्द पकड़े, शब्दों की व्याख्या की, शब्दों के अर्थ जाने; पर वह सब ऊपर-ऊपर का काम है। जैसे कोई जमीन को इंच-दो इंच खोदे और सोचे कि कुआं हो गया। गहरा खोदना होगा। कंकड़-पत्थर आएंगे, कूड़ा-कचरा आएगा। मिट्टी हटानी होगी। धीरे-धीरे जलस्रोत के निकट पहुंचोगे।
 
(साभार: पुस्तक 'भारत एक सनातन यात्रा' से ओशो द्वारा संत कबीर पर दिए गए प्रवचन का अंश)