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19 जनवरी ओशो निर्वाण दिवस : अमेरिकी ज़हर से कहीं ज्यादा खतरनाक है भारतीय ज़हर

19 जनवरी ओशो निर्वाण दिवस : अमेरिकी ज़हर से कहीं ज्यादा खतरनाक है भारतीय ज़हर - Osho Nirvana Day
ओशो रजनीश का जन्म 11 दिसम्बर, 1931 को कुचवाड़ा गांव, बरेली तहसील, जिला रायसेन, राज्य मध्यप्रदेश में हुआ था। उन्हें जबलपुर में 21 वर्ष की आयु में 21 मार्च 1953 मौलश्री वृक्ष के नीचे संबोधि की प्राप्ति हुई। 19 जनवरी 1990 को पूना स्थित अपने आश्रम में सायं 5 बजे के लगभग अपनी देह त्याग दी। उनका जन्म नाम चंद्रमोहन जैन था। आओ जानते हैं उनके पिछले जन्म की 3 खास बातें।
 
ओशो ने कहा था, 'मेरे बारे में जितनी गालियां निकलती है, उतनी शायद ही किसी के बारे में निकलती होगी, लेकिन मेरा कार्य है कि धर्म और राष्ट्र के झूठ को, पाखंड को उजागर करना तो वह मैं करता रहूंगा।...मुझे भारत में समझा जाने लगेगा लेकिन थोड़ी देर से।'
 
यदि आज भी सूली देना प्रचलन में होता तो निश्‍चित ही ओशो को सूली पर लटका दिया जाता लेकिन अमेरिका ऐसा नहीं कर सकता था इसलिए उसने ओशो को थैलियम का एक इंजेक्शन लगाया, जिसकी वजह से 19 जनवरी, 1990 में ओशो ने देह छोड़ दी।
 
अमेरिकी और भारतीय लेखकों की पुस्तकों में लिखे तथ्‍य और तर्क बताते हैं कि अमेरिका में रोनाल्ड रीगन के काल में 12 दिनों तक ओशो को यातना दिए जाने के दौरान थेलिसियम जहर दिया गया था, जिसके कारण वे समय पूर्व ही शरीर छोड़कर अशरीरी हो गए। इस संबंध में मा प्रेम मनीषा और अमेरिकी अटॉर्नी जनरल सू एपलटन की 'दिया अमृत पाया जहर' पुस्तक प्रसिद्ध है इसके अलावा उनके निजी डॉक्टर ने उनके शरीर में हो रहे परिवर्तन के बारे में भी विस्तार से लिखा है।
 
10 हजार सन्यासी, 96 रोड रॉयल्स कारें और इतने ही निजी प्लेन के साथ दुनिया की सबसे अत्याधुनिक और अमीर ओरेगॉन सिटी को एक झटके में धूल में मिला दिया गया। क्यों? क्योंकि सिर्फ अमेरिका ही नहीं दुनियाभर के राष्ट्र और धर्म को ओशो से खतरा होने लगा था।
 
सबसे खतरनाक भारतीय जहर : अमेरिका ने तो जहर देकर ओशो के शरीर को मार दिया लेकिन भारत में? हम भारतीय लोग बड़े चालाक होते हैं। हमें मालूम है कि किसी व्यक्ति को जहर देने या सूली देने से उसका व्यापक पैमाने पर प्रचार-प्रसार हो जाएगा और फिर हम जो चाहते हैं वह नहीं हो पाएगा इसलिए हमने दूसरे रास्ते खोज लिए। पहला रास्ता तर्क के माध्यम से उसके संबंध में भ्रम फैलाओं, दूसरा उसके जैसे ही कई और नकली लोग खड़े कर दो और तीसरा उसे हर तरह के प्रचार माध्यमों से दूर कर दो। बस हो गया हमारा काम खत्म।
 
सुकरात को जहर दिया तो अभी तक उसे याद किया जाता है। जहर देने से कोई विचार खत्म थोड़े ही होता है। विचार को खत्म करने की भारतीय तकनीक कारगर है। गांधी की मूर्ति खड़ी कर दो और उनकी किताबों से लोगों को दूर कर दो। कृष्ण, महावीर और बुद्ध को हमने किस तरह निपटाया है, यह हम अच्छी तरह जानते हैं।
 
बुद्ध आज भी हमारे मुल्क से बाहर हैं। महावीर को मानने वाले कम ही है और कृष्ण के बारे में हमने इतने भ्रम के जाल खड़े कर दिए हैं कि उनके असली संदेश और विचार तक अब हमारी पहुंच में ही नहीं हैं। ओशो के साथ भी भारत में यही किया जाने लगा है तो कोई आश्चर्य नहीं।
 
हमारी मीडिया को चाहिए टीआरपी, हमारे नेताओं को चाहिए वोट, हमारे धर्म के ठेकेदोरों को चाहिए धर्म को बेचने और उसका विस्तार करने की सुविधा। हमारे साधु-संत को देखकर हमें अब शर्म आती है, वे तो पक्के व्यापारी हो चले हैं, उनके चूर्ण, उनकी दो कोड़ी की किताबें और उनकी तथाकथित चोरी की ध्यान और योग विधियों की जो नेटवर्किंग हो चली है, उसके विस्तार और उसकी सुरक्षा के लिए वे भी नेताओं और अभिनेताओं की तरह पीआरओ ऑफिस 'मैनेज' करने लगे हैं।
 
सभी एक दूसरे के स्वार्थ को साथने में लगे हैं। जनता में कुछ मुठ्ठीभर लोग हैं, जो सच में ही लोग हैं बाकी तो सभी भीड़ का हिस्सा मात्र हैं और कहते हैं कि भीड़ का कोई दिमाग नहीं होता। पहले से कहीं ज्यादा भारतीय जनता को भ्रमित कर दिया गया है, लेकिन फिर भी विचार को रोका नहीं जा सका। नकली साधुओं की फौज जो ओशो जैसी ही दाड़ी और चोगा पहनकर प्रवचन देने लगी है, वे भीतर से कितने खोखले हैं यह तो वे ही जानते होंगे आखिर स्वयं से कब तक बचेंगे? उन्होंने धर्म का सत्यानाश करके तो रख ही दिया।
 
बुद्ध के जाने के बाद ही बुद्ध का महत्व समझ में आता है, कृष्ण चले गए तभी समझ में आया कि हम चूक गए एक ऐसे व्यक्ति के चरणों में झुककर उसे सुनने से जो इस धरती पर ईश्वर की प्रतिकृति था। अब कृष्ण या बुद्ध की मूर्ति के दर्शन करने का क्या फायदा?
 
ओशो ने मृत्यु के कुछ दिनों पूर्व ही कहा था कि मेरा कार्य पूरा हो चुका है। मैं दुनिया को जो करके दिखाना चाहता था, वह मैंने दिखा दिया है। मेरे विचार और मेरे संदेश को दूर दूर तक फैलना है। मेरे स्वप्न अब मैं तुम्हें सौपता हूं....। देखना सपना कहीं सपना ही ना रह जाए।
 
जीवन पर्यन्त ओशो हर तरह के 'वाद' का इसलिए विरोध करते रहे कि आज जिस वाद के पीछे दुनिया पागल है दरअसल वह अब शुद्ध रहा कहां। इसलिए ओशो ने जब पहली दफे धर्मग्रंथों पर सदियों से जमी धूल को झाड़ने का काम किया तो तलवारें तन गईं। यह तलवारें आज भी तनी हुई हैं, जबकि दबी जबान से वही तलवारबाज कहते हैं कि कुछ तो बात है ओशो में।