नि:शब्द प्रेम प्रतिज्ञा
- सुधीर पाण्डेय
सीले सिरहाने पर रख छोड़ा हैएक तेरा स्वप्न अधूरा गीला-सा तुम हो जिसमें मैं हूँ और वो वर्षों का एकाकीपन हैतेरी लाज के आँचल पर अब तक ठिठका मेरा मन है।सिमटे सकुचे तुम बैठे थे जैसे उस पहली अपनी मुलाकात में अब भी वैसे ही मिलते हो मुझको हर भीगी सीली श्यामल रात में। अपनी मृग-चंचल आँखों में एक मदहोश शरारत से- नि:शब्द ही कह जाते होचिर-पुरातन अपनी प्रेम-प्रतिज्ञा। जिसके बंधन में ही मेरी मुक्ति का सार छिपा हैजिसकी परिधि में ही मेरा सारा संसार बसा है।अपनी आहों से छूता हूँ हर दिन तेरी कोमल श्र्वासों को अपनी तृष्णा की तृप्ति को पीता हूँ तेरी प्यास के प्यालों को। स्वप्न रहे थे तुम स्वप्नों में ही पाता हू, अपनी नि:शब्द प्रेम प्रतिज्ञा को ऐसे ही हर शाम निभाता हूँ। साभार- गर्भनाल