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Written By Author जयदीप कर्णिक

संगीत के मार्तण्ड का शब्दाभिषेक

पंडित जसराज से मुलाकात

संगीत के मार्तण्ड का शब्दाभिषेक - pandit jasraj classical vocalist, interview
उनकी गहरी, साफ़ और भावपूर्ण आवाज़ को कितनी ही बार सुना और गुना। उनके कृष्ण भजन और शास्त्रीय गीत तो सुने ही उनका गाया शिवमहिम्न स्त्रोत वर्षों से घर की सुबह का हिस्सा है। इसीलिए इस आध्यात्मिक और पवित्र आवाज़ के मालिक, सरस्वती पुत्र, संगीत मार्तण्ड, पद्म विभूषण पंडित जसराज से रुबरू मिलना मेरे लिए ना केवल बिरला और महत्वपूर्ण संयोग था बल्कि ये बेहद रोमांचित करने वाला भी था।
इंदौर के यशवंत क्लब में पंडितजी और उनकी सुपुत्री दुर्गा जसराज की ‘आइडिया जलसा’ के लिए चल रही पत्रकार वार्ता ख़त्म होने का हम बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। हम यानी मेरे साथ वेबदुनिया के दो कैमरामेन साथी और देवास से ख़ास तौर पर पंडितजी और इस मुलाकात को शूट करने आईं सुश्री मधुलिका चौधरी। हम वहाँ रेस्टोरेंट में कुर्सियाँ और गुलदस्ता जमाए बैठे थे। वहाँ की लाइटिंग से कैमरामैन और मधुलिका जी दोनों संतुष्ट नहीं थे। पर्दे खोलकर रोशनी बढ़ाई तो कुछ मामला ठीक हुआ। बाहर धूप तेज़ थी और शायद पंडितजी के लिए ठीक नहीं होगा इसलिए बाहर शूट करने का ख़याल छोड़ दिया।
 
ख़ैर, सभी पत्रकारों के सवालों का जवाब पूरी तसल्ली से देने के बाद हमारी बारी आ ही गई। रेस्टोरेंट का वो भारी दरवाज़ा खुला और पंडितजी तेज़ कदमों से चलते हुए आए। थोड़ा भीतर आते ही वो एकदम फिर दरवाज़े की तरफ पलट गए और बोले – मैं यहाँ नहीं बैठूँगा!! .... हम सब सन्न, क्या ग़लती हो गई? फिर तुरंत बोले यहाँ प्याज की गंध आ रही है। मैं सहन नहीं कर पाऊँगा, कहीं और बैठते हैं। और बाहर निकल गए। हम अपना ताम-झाम उठा कर उनके पीछे भागे। उनके लिए यशवंत क्लब का पुस्तकालय खुलवाया गया। वो जगह उन्हें ठीक लगी। आराम से बैठ गए। मैंने चरण छुए और बात शुरू की। उनकी सुपुत्री दुर्गा जसराज भी साथ ही बैठकर साक्षात्कार में शरीक हो गईं।
(पंडित जी के साथ विस्तृत बातचीत के लिए देखें वीडियो)
कई सोचे हुए सवालों पर मेरी पंडितजी से मुलाकात का उत्साह भारी पड़ा और जो तय किया था वो छोड़कर मैं जो मन में आया पूछता चला गया। उन्होंने भी उतने ही सहज भाव से जवाब दिए। पत्रकार वार्ता में उन्होंने बड़े अदब से उस्ताद अमीर खाँ साहब को याद किया था और कहा था कि उन्हें पता नहीं कि अमीर खाँ साहब यहीं पैदा हुए थे या नहीं पर इंदौर को हम उनके और लताजी के नाम से जानते हैं।
 
मैंने बातचीत शुरू करने से पहले पंडितजी को बताया कि अमीर खाँ साहब का जन्म इंदौर में ही हुआ था और वो भी 15 अगस्त 1912 को। सुनकर वो बड़े प्रसन्न हुए और बोले मेरी एक शिष्या हैं, अंकिता जोशी उनका जन्म भी 15 अगस्त का है और बहुत अच्छा गाती हैं। 
 
पंडितजी के गायन पर क्या उपमा दी जाए और क्या बात की जाए? वो तो अपने सुरों से साक्षात ईश्वर का अभिषेक करते चलते हैं। हाँ, उनके इस सुराभिषेक को शब्दों के ज़रिए जानने की कोशिश में भी एक अलग आल्हाद था। उनके शब्दाभिषेक में भी आप वही स्पंदन और आध्यात्मिक ऊर्जा महसूस कर सकते हैं जो उनके सुरों में है। 86 वर्ष की उम्र में इस चेतना और प्रवाह के साथ, अधिकार के साथ बोलना वर्षों के तप और दैवीय शक्ति से ही संभव है।
 
पंडितजी की याददाश्त भी एकदम दुरुस्त। जैसे मैंने जब उनसे उस किस्से का ज़िक्र किया जब 1996 में वो बनारस में गा रहे थे और एक हिरण आ गया था, तो वो तपाक से बोले 96 नहीं 87 की बात है। और बनारस के संकटमोचन मंदिर की उस सुबह और उस सभा का ज़िक्र उन्होंने ज्यों का त्यों कर दिया। हिरण के इस किस्से का महत्व 16वीं सदी के दो महान गायकों तानसेन और बैजू बावरा के बीच आगरा के जंगल में हुए ऐतिहासिक मुकाबले के किस्से से जुड़ा है। किंवदंती के मुताबिक तानसेन के राग तोडी गाते ही हिरणों का झुंड वहाँ आ गया था। तानसेन ने एक हिरण के गले में अपनी माला डाल दी थी। कहा जाता है कि अपनी बारी आने पर बैजू बावरा ने राग मृग-तोडी गाया और केवल वो ही हिरण वापस आया जिसके गले में तानसेन ने माला डाली थी। इस किस्से का सच तो नहीं पता पर अगर पंडित जसराज के राग तोडी गाने पर एक हिरण सचमुच वहाँ आ गया था। ये हमारी उस महान संगीत परंपरा को ना केवल पुष्ट करता है बल्कि इस संगीत मार्तण्ड के उस परंपरा के ध्वजवाहक होने पर मुहर भी लगाता है।
(दुर्गा जसराज के साक्षात्कार के लिए देखें वीडियो)
जब पंडितजी कहते हैं कि कई बार गाते समय ध्यान लग जाता है और ईश्वर उनको आँख के सामने 70 एमएम के बड़े पर्दे पर चल रही फिल्म की तरह साफ दिखाई देते हैं तो सुर के ईश्वर और शब्द के ब्रम्ह होने का प्रमाण हमें मिल जाता है। जब दुर्गा जसराज कहती हैं कि रात में भी कई बार बाबूजी की अंगुलियाँ मात्राएँ गिनने के लिए चलती रहती हैं तो पंडित जसराज के संगीत में आकंठ डूबे होने का मतलब हमें पता चलता है। दुर्गा जी ये भी बताती हैं कि घर में 24 घंटे तानपुरा बजता रहता था। कभी ख़ुद बाबूजी तो कभी शिष्य रियाज़ करते रहते। तानपुरा कभी बंद नहीं होता। जब बाबूजी की नींद खुलती तो वो जो रियाज़ कर रहा होता उस शिष्य को और बारीकियाँ सिखाने में जुट जाते हैं।
 
जब पंडित जसराज कहते हैं कि पहले का गायन हिमालय के उत्तुंग शिखर की तरह था और आज का गायन विशाल फैले हुए समुद्र की तरह है तो उनकी उस बात की गहराई समझ पाना आसान नहीं है।  इसे और तफसील से जानने के लिए मैंने उनके सुशिष्य इंदौर के ही गौतम काले से जब पूछा तो वो भी इतना ही बोले गुरुजी की बात पर वो क्या बोल सकते हैं? .... सच है जिसने ख़ुद अपने गले से हिमालय की ऊँचाई और सागर की गहराई को नापा हो उसकी थाह हम दुनियावी लोग इतनी आसानी से पा लेंगे क्या भला? उनके सुरों में चंद गोते लगाकर हम उस दैवीय भाव का आचमन भर कर लें तो जीवन सफल है।