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चमलियाल मेले में गले मिले, पर दिल नहीं मिल पाए...

चमलियाल मेले में गले मिले, पर दिल नहीं मिल पाए... - National News, Cmaliyal Mela, India Pakistan border, Indian Army, Pakistani army
चमलियाल सीमा चौकी (जम्मू फ्रंटियर)। बंटवारे के बाद बंटवारे के 69 सालों से चली आ रही परंपरा का निर्वाह करते हुए पाकिस्तानी व भारतीय सेनाओं के जवानों ने इस सीमा चौकी पर ‘शक्कर’ और ‘शर्बत’ बांटकर उन हजारों लोगों को सुकून तो पहुंचाया, जो चौकी पर स्थित बाबा दिलीप सिंह सिंह मन्हास अर्थात बाबा चमलियाल की दरगाह पर माथा टेकने आते हैं, लेकिन बावजूद इस आदान-प्रदान के इच्छाएं बंटी हुई हैं। यह इच्छाएं उन पाकिस्तानियों की हैं जो 1947 के बंटवारे के बाद उस ओर चले तो गए लेकिन बचपन की यादें आज भी ताजा हैं।
बाबा चमलियाल की दरगाह पर चढ़ाने के लिए पवित्र चादर लाने वाले बाबा की आंखों से उस समय आंसू आ गए थे जब उससे बाबा चमलियाल की दरगाह के बारे में पूछा था। उसने कहा, मैं कैसे भूल सकता हूं सामने वाले गांव में ही तो मेरा घर है। पांच साल का था जब मैं बंटवारे के कारण पाकिस्तान में चला आया था।
 
20 सालों से लगातार बाबा चमलियाल की दरगाह के लिए पवित्र चादर ला रहा था। अब उसके साथ उसका बेटा भी था जफ्फर अब्बास। खुशी उसे भी है। खुशी अगर भारतीय क्षेत्रों को इतने पास से देखने की थी तो बाबा चमलियाल के दर्शनों की आस भी है। वह यह भी आस लगाए बैठा था कि चंद कदमों की दूरी पर स्थित वह अपने दादाजान के उस घर को देख सके, जिसकी कहानियां आज भी उसके गांव में सुनाई जाती हैं।
 
चमलियाल बाबा की दरगाह पर जाकर माथा टेकने और दुआएं मांगने की इच्छाएं सिर्फ इन्हीं लोगों की नहीं थीं बल्कि पाकिस्तानी रेंजर्स के चिनाब रेंजर्स के कमांडिंग अफसरों की भी थीं जो पिछले कई सालों से दरगाह पर चढ़ाने के लिए पवित्र चादरें तो ला रहे हैं पर दरगाह तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। उनकी इच्छा भी पूरी नहीं हो पा रही। 
 
दूसरे शब्दों में कहें तो इच्छाएं बंटी हुई हैं। इच्छाओं के बंटवारे के लिए भी वही सीमारेखा जिम्मेदार थी, जिस पर दोनों मुल्कों के जो मुट्ठीभर लोग खड़े होकर एक-दूसरे की जमीन को देखने और जीरो लाइन की मिट्टी की खुशबू को पहचानने की कोशिश कर रहे थे वे भी यह तय नहीं कर पाए थे,आखिर दोनों अलग-अलग मुल्कों के नागरिक क्यों कहलाते हैं?
 
कुछ अलग किसी को नजर नहीं आया। न ही कुछ महसूस हुआ। सिवाय इसके कि दोनों मुल्कों के सैनिकों द्वारा अपनी कलाइयों पर बांधी गईं घड़ियों के सिर्फ समय ही उन्हें बार-बार याद दिलाते थे कि वे अलग-अलग मुल्कों के वाशिंदें हैं। हालांकि पाक रेंजर्स के कमांडिंग ऑफिसर अपने परिवार समेत बाबा चमलियाल की दरगाह पर आकर माथा टेकने की इच्छा को पूरा करने की खातिर ‘निवेदन’ तो कर चुके थे, लेकिन वह स्वीकार नहीं हो पाया था।
 
दोनों मुल्कों की जनता के बीच यूं तो शक्कर और शर्बत को बांटकर बंटवारे के दुख को कम करने का प्रयास जरूर हो रहा था मेले में, पर जमीनी हकीकत यही थी कि गले मिलने के बावजूद दिल नहीं मिल पा रहे थे। हर कोई एक-दूसरे को शक की निगाह से देखता था। अगर इस ओर के सुरक्षाधिकारी पाक रेंजरों से बातचीत पर ध्यान देने की कोशिश करते तो पाकिस्तानी रेंजर अपने नागरिकों को कुछ भी ‘सच’ नहीं बताने की हिदायत भी देते थे।
 
लेकिन यह सब कब और कहां तक चलता। उस ओर बाबा की दरगाह में रहने वाला साईं रहमत (पाकिस्तानी नागरिकों के लिए वह पीर-फकीर है) ने सच बोलते हुए यह बताने की कोशिश की कि वह पिछले साल भीतर तक आया था तो पाक रेंजरों ने उसे झाड़ दिया। तब तो वह खामोश रहा लेकिन वापस लौटने पर उसने अपना गुस्सा ‘अली-अली’ की आवाज में जरूर दिखाया था।
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