झारखंड विधानसभा चुनाव को लेकर तमाम एग्जिट पोल के अनुमान बता रहे थे विधानसभा त्रिशंकु रहेगी और भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी। संभवत: यही अंदाजा भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी था। इसी आधार पर उम्मीद जताई जा रही थी कि जिस तरह पिछले दिनों हरियाणा में और उससे पहले गोवा में भाजपा ने सरकार बनाई थी, उसी तरह झारखंड में भी उसकी सरकार बन जाएगी। इसीलिए पार्टी की ओर से ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) और झारखंड विकास मोर्चा के नेताओं से बातचीत शुरू हो गई थी।
झारखंड के लिए भाजपा के केंद्रीय प्रभारी ओम माथुर और कुछ अन्य नेता भी मतगणना वाले दिन सुबह ही रांची पहुंच गए थे। मतगणना के दौरान शुरुआती दौर में टेलीविजन चैनलों पर भाजपा के तमाम प्रवक्ता कह भी रहे थे कि सबसे बड़े दल के रूप में राज्यपाल की ओर से सबसे पहले सरकार बनाने का न्योता भाजपा को ही दिया जाएगा।
लेकिन, जब दोपहर बाद तस्वीर साफ हो गई और यह भी साफ हो गया कि झारखंड के मतदाताओं ने सूबे की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को इस कड़ाके की सर्दी में आधी रात तक जागने या तड़के नींद से उठने की तकलीफ नहीं दी है। यानी झारखंड मुक्ति मोर्चा जेएमएम, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के महागठबंधन को स्पष्ट बहुमत से ज्यादा सीटें मिल गईं और विधानसभा में अकेले सबसे बड़ा दल भी जेएमएम ही रहा।
शबरी और केवट की संतानों ने बता दिया कि उन्हें राम मंदिर से पहले रोटी, रोजगार और खेत के लिए पानी चाहिए। उन्होंने बता दिया कि उन्हें विभाजनकारी नागरिकता कानून और एनआरसी नहीं बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सुकून और भाईचारा चाहिए। उन्होंने यह भी बता दिया कि गौरक्षा के नाम पर झारखंड को सांप्रदायिक गुंडागर्दी बर्दाश्त नहीं है।
उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि उन्हें विकास के नाम पर राज्य के जल-जंगल-जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की कॉरपोरेट घरानों को खुली छूट देना स्वीकार नहीं है। नक्सली उन्मूलन के नाम पर बेगुनाह आदिवासियों को मारा जाना भी उन्होंने मंजूर नहीं किया। उन्होंने एक देश-एक विधान के नाम पर जम्मू-कश्मीर के दो टुकड़े कर उसका विशेष राज्य का दर्जा खत्म करने की कवायद को भी खारिज कर दिया। कुल मिलाकर जिन-जिन मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने भाजपा के लिए वोट मांगे थे, आदिवासी बहुत झारखंड की जनता ने उन सभी मुद्दों को सिरे से खारिज कर दिया।
पिछले एक साल में झारखंड ऐसा पांचवा राज्य है, जहां भाजपा को सत्ता से बेदखल होना पडा है। पिछले साल दिसंबर में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा था। फिर लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें महाराष्ट्र भाजपा के हाथ से निकल गया और हरियाणा में वह अपनी हार के बावजूद चुनाव नतीजों के बाद गोवा की तर्ज पर खरीद-फरोख्त और जोड़तोड़ के सहारे सरकार बनाने में कामयाब हो गई।
दरअसल झारखंड में भाजपा की पिछले पांच साल से चल रही राज्य सरकार के पास अपनी ऐसी कोई उपलब्धि नहीं थी, जिसके लिए वह जनता से वोट मांगती। पिछले पांच साल के दौरान इस आदिवासी बहुल राज्य में भाजपा की सरकार आदिवासियों के हितों के खिलाफ जितने काम कर सकती थी और गरीब आदिवासियों का जितना ज्यादा उत्पीड़न कर सकती थी, उसने किया। इसी वजह से झारखंड के आदिवासियों में नाराजगी थी।
रघुबरदास सरकार ने आदिवासियों की हजारों एकड़ जमीन एक पूंजीपति घराने को बिजली घर लगाने के लिए दे दी थी और उनके विरोध को बेरहमी से कुचल दिया था। उन 10 हजार से ज्यादा आदिवासियों पर देशद्रोह का मामला दर्ज कर दिया था, जिन्होंने अपने घर के बाहर पत्थरों पर यह लिख दिया था कि जो संविधान में आदिवासियों को अधिकार दिए हैं, हम उसकी बात करेंगे और उन अधिकारों के खिलाफ सरकार के किसी भी फैसले को मंजूर नहीं करेंगे। किसान विरोधी काश्तकारी कानून में बदलाव को भी सूबे के लोगों ने पसंद नहीं किया।
सूबे की सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों की बहाली का मुद्दा बार-बार उठता रहा। हाई स्कूल शिक्षकों की नियुक्ति में दूसरे राज्यों के उम्मीदवारों को अवसर दिए जाने का मामला भी खूब उछला। राज्य लोकसेवा आयोग की एक भी परीक्षा पिछले पांच सालों में नहीं हो पाई। अस्थायी शिक्षकों, आंगनबाड़ी सेविकाओं और सहायिकाओं पर लाठीचार्ज की घटनाओं से भी राज्य सरकार के प्रति नाराजगी थी।
पिछले पांच साल के दौरान नफरत से प्रेरित अपराधों और अपराधियों के लिए यह राज्य अभ्यारण्य बन गया था। पूरे पांच साल के दौरान मॉब लिंचिंग की 22 घटनाएं सूबे में हुईं और इन घटनाओं को अंजाम देने वाले तत्वों को न सिर्फ राज्य सरकार की सरपरस्ती हासिल रही बल्कि केंद्र सरकार के मंत्री भी मॉब लिंचिंग के गुनहगारों का सार्वजनिक तौर फूलमाला पहनाकर अभिनंदन करते रहे।
ऐसा नहीं है कि भाजपा नेतृत्व को झारखंड की सियासी हवा का अंदाजा नहीं था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष तथा गृहमंत्री अमित शाह को अच्छी तरह मालूम था कि वहां इस बार का चुनावी मैदान भाजपा के लिए बहुत आसान नहीं है और कोई चमत्कार ही भाजपा की सत्ता में वापसी करा सकता है। खुफिया एजेंसियों के जरिए भी उन्हें लगातार जमीन हकीकत की जानकारी मिल रही थी। इसीलिए झारखंड का चुनाव महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ नहीं कराया गया, जबकि प्रधानमंत्री मोदी पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने की बात अक्सर करते रहते हैं।
झारखंड का चुनाव अगर महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव के साथ कराया जाता तो मोदी और शाह चुनाव प्रचार के लिए झारखंड को पर्याप्त समय नहीं दे पाते। लिहाजा भाजपा के इन दोनों शीर्ष नेताओं की सुविधा का ध्यान रखते हुए चुनाव आयोग ने पूरी तरह से भाजपा के सहयोगी दल की भूमिका निभाई। महज 81 सीटों वाली विधानसभा का चुनाव उसने तीन सप्ताह में पांच चरणों में कराया, ताकि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को वहां चुनाव प्रचार के लिए ज्यादा से ज्यादा समय मिल सके। हालांकि चुनाव आयोग की यह हिकमत अमली भी भाजपा के किसी काम नहीं आ सकी।
बहरहाल, दोनों नेताओं ने अपने आपको पूरी तरह चुनाव प्रचार में झोंका और अपनी तयशुदा रणनीति के तहत अनुच्छेद 370, तीन तलाक कानून, राम मंदिर, नागरिकता संशोधन कानून, एनआरसी जैसे केंद्र सरकार के प्रमुख फैसलों पर लोगों से वोट मांगे। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पैदा करने और नफरत भरे भाषण देने के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी चुनाव प्रचार में उतारा गया। प्रधानमंत्री मोदी ने कुल नौ, जबकि अमित शाह और योगी ने 11-11 रैलियां कीं।
चूंकि मोदी और शाह को मतदान के पहले और दूसरे चरण में ही भाजपा के बुरी तरह पिछडने के संकेत मिल गए थे, लिहाजा मतदान के तीसरे चरण के पहले ही ताबड़तोड़ नागरिकता संशोधन विधेयक संसद में पेश कर उसे नौ दिसंबर को लोकसभा में 12 दिसंबर को राज्यसभा पारित कराया गया। नौ दिसंबर के बाद मतदान के तीन चरणों के लिए हुए चुनाव प्रचार में मोदी और शाह ने अपनी सरकार के इस फैसले का जोर-शोर से उल्लेख किया। पूरे पांच चरणों के चुनाव प्रचार के दौरान दोनों नेताओं ने बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार का भूलकर भी जिक्र नहीं किया।
जब तीसरे चरण के संकेत भी भाजपा के अनुकूल नहीं मिले और फीडबैक यह मिला कि मुख्यमंत्री समेत प्रमुख उम्मीदवार पिछड़ रहे हैं तथा पार्टी को पिछली बार से भी कम सीटें मिलने जा रही हैं तो आखिरी के दो चरणों में मोदी और शाह ने आक्रामक प्रचार की रणनीति अपनाते हुए खुद ही खुलकर हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का कार्ड खेला। वैसे आखिरी दो चरण की 31 सीटों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का कार्ड पहले भी काम करता रहा है क्योंकि उनमें कई विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां मुस्लिम आबादी अच्छी खासी है।
आखिरी दो चरणों की अपनी चुनावी रैलियों में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि चार महीने में अयोध्या में आसमान छूने वाला राम मंदिर बन जाएगा। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी मंदिर के नाम पर वोट मांगे। उन्होंने सीधे तौर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का श्रेय भाजपा को देते हुए कहा कि मंदिर बनवाने वाली पार्टी को वोट दे। खुद प्रधानमंत्री ने 15 दिसंबर को दुमका की चुनावी रैली में नागरिकता कानून का विरोध करने वालों को इशारों-इशारों में मुस्लिम बताते हुए कहा कि इस कानून के खिलाफ आंदोलन कर रहे लोगों को उनके कपडों से पहचाना जा सकता है।
मोदी कहीं भी चुनाव प्रचार करें और पाकिस्तान का जिक्र न करे, यह तो हो ही नहीं सकता। उस रैली में भी वे यहां तक कह गए कि पाकिस्तानी मूल के लोग ही इस कानून का विरोध कर रहे है। जाहिर है कि सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण के लिए मुस्लिम पहनावे और पाकिस्तान में जन्मे लोगों की मिसाल दी गई। इतना ही नहीं, मोदी अपनी आदत के मुताबिक यहां भी विपक्षी नेताओं को पाकिस्तान और आतंकवादियों का समर्थक बताने से बाज नहीं आए।
इस सबके बावजूद झारखंड की जनता ने भाजपा को बुरी तरह नकार दिया। राज्य सरकार के कई मंत्री ही नहीं, मुख्यमंत्री, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष और विधानसभा अध्यक्ष तक अपनी सीट नहीं बचा पाए। सबसे शर्मनाक हार मुख्यमंत्री रघुबर दास की हुई, जिन्हें उन्हीं की सरकार में मंत्री रहे और पार्टी का टिकट न मिलने पर निर्दलीय उम्मीदवार के तौर मैदान में उतरे वरिष्ठ नेता सरयू राय ने 15 हजार वोटों के अंतर से पराजित किया। यही नहीं, भाजपा को उन छह सीटों पर भी करारी हार का सामना करना पडा, जहां प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावी रैलियां की थीं।
दूसरी ओर भाजपा का मुकाबला कर रहे झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के महागठबंधन ने समय से सीटों का बंटवारा और मुख्यमंत्री पद को लेकर सहमति कायम कर ली थी। पिछले चुनाव में इन तीनों दलों ने अलग-अलग रहकर लड़ने का नतीजा देख लिया था और उससे सबक लेकर पहले से ही सचेत हो गए थे।
महागठबंधन ने पूरा चुनाव स्थानीय मुद्दों पर लडा, जिसका उन्हें फायदा भी मिला। झारखंड में 26.3 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है और 28 सीटें उनके लिए आरक्षित हैं। महागठबंधन ने झारखंड मुक्ति मोर्चा के आदिवासी नेता आदिवासी नेता हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया, जबकि भाजपा ने लगातार दूसरी बार गैर आदिवासी रघुबर दास को ही इस पद के लायक समझा।
कुल मिलाकर झारखंड में भाजपा को मिली हार स्पष्ट तौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह की निजी हार है। सूबे की जनता ने उनके फैसले को और उनके एजेंडे को सिरे से खारिज कर दिया। पिछले एक साल में पांच राज्य और उसमें भी मोदी के दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के सात महीने के भीतर ही दो राज्यों का भाजपा के हाथ से निकल जाना पूरी पार्टी और खासकर मोदी-शाह की जोड़ी के लिए साफ इशारा है कि वह अति-आत्मविश्वास और आत्म-मुग्धता की कैद से बाहर निकलें और यह मुगालता दूर कर लें कि उनके हर फैसले और विभाजनकारी एजेंडे पर पूरा देश उनसे सहमत है।