देश में इन दिनों हिंसा की एक सीरिज चल पड़ी है। पिछले 15 दिनों में एक के बाद एक कई राज्य सांप्रदायिक हिंसा की चपेट में आ चुके है। राजस्थान के करौली, मध्यप्रदेश के खरगोन, दिल्ली के जहांगीरपुरी, कर्नाटक के हुबली सहित कई राज्यों में सामाजिक सौहार्द बिगाड़ने के लिए हिंसा हो चुकी है। अगर हिंसा की इन घटनाओं की पड़ताल करें तो इनका पैटर्न कमोबेश एक जैसा ही दिखता है। राजस्थान के करौली में नवसंवत्सर, मध्यप्रदेश के खरगोन में रामनवमी के जुलूस और दिल्ली में हनुमान जयंती पर निकली शोभायात्रा पर पथराव, आगजनी और दो समुदायों के बीच हिंसा।
भले ही प्रशासन इन घटनाओं के कारण अलग बता रहे हो लेकिन हिंसा की इन घटनाओं के पीछे एक कारण सबसे कॉमन है वह है सोशल मीडिया की भूमिका। बात चाहे खरगोन की हिंसा को हो या दिल्ली के जहांगीर पुरी की हिंसा की एक छोटी से घटना ने समाज को दंगे की आग में झोंक दिया। कर्नाटक के हुबली में एक युवक ने सोशल मीडिया पर फेक पोस्ट कर दी जिससे हिंसा भड़क गई। ऐसे सवाल उठ रहा है कि क्या आज सामाजिक सौहार्द पर सोशल मीडिया भारी पड़ रहा है। वेबदुनिया की खास कवर स्टोरी में आज हिंसा के सोशल मीडिया कनेक्शन की पूरी पड़ताल करेंगे।
हिंसा भड़काने का टूल बना सोशल मीडिया?- सोशल मीडिया आज हिंसा और दंगे बढ़ाने में एक टूल के रूप में नजर आ रहा है। आज सोशल मीडिया अफवाहों का एक ऐसा प्लेटफॉर्म बन गया है जो सांप्रदायिक सौहार्द पर भारी पड़ने लगा है। सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले फेक वीडियो उत्तेजना के माहौल को और गर्मा देते है। हिंसा और दंगे की घटनाओं में सोशल मीडिया की भूमिका बहुत अहम होती है। सोशल मीडिया हिंसा और दंगे भड़काने के मामले एक ऐसा टूल हो गया है जो अब सरकार प्रशासन के लिए चुनौती बन गया है।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राज्यों के पुलिस अधिकारियों को सोशल मीडिया पर शरारतपूर्ण बयान जारी करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई के निर्देश दिए है। तो वहीं खरगोन हिंसा के बाद मध्यप्रदेश के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा ने प्रदेश के सभी पुलिस अधीक्षकों को निर्देश दिए है कि सोशल मीडिया पर कोई भी अफवाह फैलाने वाला वीडिया पाया जाता है या कूट रचित फेक वीडियो कोई डालता है तो उनके खिलाफ वैधानिक कार्रवाई की जाएगी।
आज राज्य सरकारों के सामने सोशल मीडिया पर स्मार्ट फोन से फैलाया जाने वाला जहर एक चुनौती बन गया है। उत्तरप्रदेश के पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह कहते हैं कि दंगे के पीछे सोशल मीडिया की बहुत बड़ी भूमिका है। वह कहते हैं कि 2009 में जब से स्मार्ट फोन आया तब से दंगों के साथ पत्थरबाजी की संख्या अप्रत्याशित तरीके से बढ़ी है। इसका मूल कारण है कि शरारती तत्व सोशल मीडिया पर भरपूर उपयोग कर फेक न्यूज और डी फेक न्यूज को वायरल कर लोगों की भावनाओं को भड़काने का काम कर रहे है। आज सोशल मीडिया भ्रामक समाचारों का फैलाने का एक टूल बन गया है और यह एक खतरे की घंटी है।
वेबदुनिया से बातचीत में विक्रम सिंह आगे कहते हैं कि जहां तक फेक न्यूज पर नियंत्रण की बात है तो अगर फेक न्यूज फैलाने वाले हिंदुस्तान में है तो ऐसे शरारती तत्वों के खिलाफ आईपी एड्रेस के माध्यम से सुरक्षा एजेंसियां उनके खिलाफ कार्रवाई कर सकती है लेकिन अगर कोई नेपाल, पाकिस्तान या बांग्लादेश में बैठ कर रहा है तो यह जानबूझकर किया जा रहा है।
वह आगे कहते हैं कि ऐसे में उन पत्थरबाजों के खिलाफ और जो इन पत्थरबाजों को पैंसा दे रहा है और जो नजायज जुलूस निकलवा रहा है उसके खिलाफ तो कार्रवाई कर ही सकते है। आज बड़ा सवाल यह है कि हम सब कुछ नहीं कर सकते है लेकिन जो कर सकते है उसको भी नहीं कर रहे है। पत्थरबाज और हवाला से पत्थरबाजों को पैसा भेजने वालों के खिलाफ तो कार्रवाई कर सकते है, ऐसे में पुलिस को अपना होमवर्क करना चाहिए।
भोपाल में जागरण लेकसिटी यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर डॉ. संदीप शास्त्री कहते हैं कि आज सोशल मीडिया की पहुंच हर व्यक्ति तक है। सोशल मीडिया का उपयोग करने वाला शख्स वहीं मैसेज या वीडियो देखते या सुनते है जो उनकी विचारधारा को सपोर्ट करता है और उसी वीडियो या मैसेज को फारवर्ड करते है। इसके विपरीत अगर कुछ आता है तो उसको तुरंत डिलीट कर देते है।
वह आगे कहते हैं कि किसी भी घटना को देखिए दो तरह के वीडियो सोशल मीडिया पर स्प्रेड हो रहे है। लोग अपनी विचारधारा से मेल खाने वाले वीडियो ही देखते है तो इससे ध्रुवीकरण ज्यादा हो रहा है और यह एक संघर्ष का वातावरण बन रहा है और इसमें सोशल मीडिया की एक भूमिका है।
डॉ. संदीप शास्त्री आगे कहते हैं कि सोशल मीडिया पर एक नियंत्रण आना चाहिए। हम जिस पर रिएक्ट कर रहे है कि क्या वह सत्य है या फेक है उसको चेक करने के लिए फैक्ट चेक जैसे टूल को बढ़ावा देना होगा। सोशल मीडियो को लेकर स्पष्ट रेगुलेशन होना चाहिए। जो लोग फॉल्स न्यूज को स्प्रेड कर रहे है या तथ्यों को पूरा दिखाने की बजाए थोड़े-थोड़े हिस्सों को स्प्रेड कर रहे है उन पर सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए।
इसके साथ एक कैंपेन समाज में शुरु होना चाहिए। आज समाज WE और THEY में बंट गया है यानि हम लोग और वह लोग में बंट गया है। जबिक इसकी जगह हम सब की बात हो तो शांति का माहौल बना सकते है। जबकि हमें संविधान के पहले तीन शब्द WE THE PEOPLE को बढ़ावा देना चाहिए।
हिंसा में सोशल मीडिया की भूमिका को लेकर मनोचिकित्सक डॉक्टर सत्यकांत त्रिवेदी कहते हैं कि यह समाज के खराब मानसिक स्वास्थ्य का प्रतीक है। अपनी कुंठा को व्यक्त करने का सोशल मीडिया सबसे आसान साधन है क्योंकि यहां पर व्यक्ति अपने को सुरक्षित महसूस करता है।
वह कहते हैं कि आज सोशल मीडिया पर घटनाओं की तस्वीरों और वीडियो को जिस तरह से वायरल किया जाता है उससे एक तरह से इनका महिमामंडन होता है और वह दूसरे लोगों के लिए मॉडल का काम करता है। सोशल मीडिया पर घटनाओं को प्रचारित करना भी उनको प्रेरित करने का काम करता है।
सोशल मीडिया पर क्या है कानून?-सोशल मीडिया पर ऐसी अफवाहें जिसे हिंसा या दंगे भड़के उसे साइबर अपराध माना जाता है। पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह कहते है कि अगर कोई हेटफुल स्पीच देता है तो आईटी एक्ट के साथ-साथ IPC की धारा 153 A के तहत कार्रवाई की जा सकती है। ऐसे कार्य करने वालों को आईटी एक्ट 2008 के तहत साधारण से लेकर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है। कानून के जानकार कहते हैं कि अगर कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने के उद्देश्य से अफवाह फैलाते है तो उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 153-A के तहत केस दर्ज किया जा सकता है।
अगर कोई व्यक्ति बोलकर, लिखकर या इशारे से या फिर किसी दूसरे तरीके से अफवाह फैलाकर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने की कोशिश करता तो उसके आईपीसी की धारा 505 के तहत केस दर्ज किया जा सकता है। इसके साथ सोशल मीडिया की मदद से होने वाले अपराध को रोकने के लिए साल 2000 में इनफॉर्मेशन एक्ट बनाया गया। इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट-2000 की धारा 67 के तहत सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक, भड़काऊ या अलग-अलग समुदायों के बीच नफरत पैदा करने वाले पोस्ट, वीडियो या तस्वीर शेयर करते है तो तीन साल से आजीवन करावास तक की सजा हो सकती है।