क्या कामयाब हो पाएगा 'कोपेनहेगन'...
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वेबदुनिया डेस्क जलवायु परिवर्तन को लेकर कोपेनहेगन में अगले माह 7-18 दिसंबर तक होने जा रहा सम्मेलन सफल हो पाएगा या नहीं, इसे लेकर दुनियाभर में आशंका मिश्रित अनिश्चितता बरकरार है। इसकी कामयाबी कितनी संदिग्ध है, इसका अंदाजा संरा महासचिव बान की मून की उस हालिया अपील से लगाया जा सकता है, जिसमें उन्होंने इस पर राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाने की बात कही थी।कोपेनहेगन सम्मेलन का किसी नतीजे पर पहुँचना पूरी तरह विकसित और धनी देशों पर निर्भर करता है। अगर ब्रिटेन, रूस, कनाडा और उनका झंडाबरदार अमेरिका अपने आर्थिक हितों से समझौता कर ले तो दुनिया को ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे से बचाया जा सकता है। भारत ने कोपेनहेगन के राजनीतिक एजेंडे को मानने से इनकार कर दिया है। उसका कहना है भारत की ऊर्जा खपत इतनी ज्यादा नहीं है कि उसे कम किया जाए। अगर ऐसा किया गया तो यह उसके औद्योगिक विकास के लिए घातक होगा।
कोपेनहेगन सम्मेलन क्यों : कोपेनहेगन में क्योटो की तर्ज पर जलवायु परिवर्तन को लेकर नया राजनीतिक समझौता लाने का प्रस्ताव है। इसके मुताबिक तमाम विकसित और धनी देश 2020 तक अपने कार्बन उत्सर्जन में कटौती कर करेंगे। इसके अलावा उन्हें जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए विकासशील राष्ट्रों को मदद की घोषणा भी करना होगी। अगर सभी 192 राष्ट्र ताजा एजेंडे पर सहमत हो जाते हैं तो 2010 में इसे कानूनी जामा पहनाते हुए संधि की शक्ल दी जाएगी, जिसके बाद हर राष्ट्र के लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती बाध्यकारी होगी। इससे पहले 11 दिसंबर 1997 को जापान के क्योटो में पृथ्वी को ग्रीन हाउस गैसों के प्रभाव से बचाने के लिए एक सम्मेलन हुआ था। उसमें हुए समझौते को 16 फरवरी 2005 को अमल में लाया गया। जलवायु परिवर्तन के क्या मायने हैं : जलवायु परिवर्तन से तात्पर्य प्रकृति में लगातार बढ़ती गर्मी से है। मनुष्य की विलासितापूर्ण जीवन शैली (एयरकंडीशनर, फ्रीज, माइक्रोवेव...), उद्योग व वाहनों से निकलने वाले धुएँ और पेड़ों की अंधाधुँध कटाई के कारण ग्रीन हाउस गैसों (सीएफसी : क्लोरो फ्लोरो कार्बन) का प्रभाव बढ़ रहा है। इसमें कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन, नाइट्रस आक्साइड और वाष्प शामिल है। सीएफसी के कारण धरती के तापमान में खतरनाक ढंग से बढ़ोतरी हो रही है। तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। उनका पानी समुंदरों में समा रहा है। नतीजतन विश्व के अधिकांश देशों के डूबने का खतरा पैदा हो गया है। कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाएँ भी नियमित अंतराल पर सामने आ रही हैं। मनुष्य की विलासितापूर्ण जीवन शैली, उद्योग व वाहनों से निकलने वाले धुएँ और पेड़ों की अंधाधुँध कटाई के कारण ग्रीन हाउस गैसों का प्रभाव बढ़ रहा है। इसके कारण धरती के तापमान में खतरनाक ढंग से बढ़ोतरी हो रही है।
कहाँ पेश आ रही है अड़चन : कोपेनहेगन सम्मेलन को लेकर सबसे बड़ी परेशानी विकसित देशों का कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए राजी नहीं होना है, क्योंकि ऐसा करने के लिए उन्हें अपनी ऊर्जा खपत कम करना होगी। इसका अर्थ होगा अपने आर्थिक हित और ऐशो आराम को तिलांजलि देना। अमेरिका, चीन, और रूस जैसे देशों ने इसे लेकर अपना रुख साफ नहीं किया है। अमेरिका ने तो अभी भी क्योटो प्रोटोकॉल पर भी दस्तखत नहीं किए हैं। उसकी अपनी ही संसद में ऊर्जा खपत को लेकर एक विधेयक लंबित है। इसके मुताबिक 2050 तक कार्बन उत्सर्जन में 80 फीसदी की कटौती करने का लक्ष्य है। सम्मेलन को लेकर विश्व चार हिस्सों में बँटा है। पहले वे राष्ट्र हैं, जिन पर जलवायु परिवर्तन का खतरा मँडरा रहा है। दूसरी श्रेणी ऐसे विकासशील राष्ट्रों की है, जो इसे आत्मसात करना चाहते हैं लेकिन उनकी अपनी आर्थिक मजबूरियाँ हैं। तीसरी पंक्ति में वे धनी देश हैं जो इसकी भयावहता को जानते हुए इसे हर हाल में लागू कराना चाहते हैं। चौथी जमात में ऐसे 37 औद्योगिक राष्ट्र शामिल हैं, जो कार्बन उत्सर्जन में सबसे आगे हैं लेकिन अपने हितों से समझौता नहीं करना चाहते। क्या चाहता है भारत : भारत ने कोपेनहेगन के राजनीतिक एजेंडे को मानने से इनकार कर दिया है। उसका कहना है हमारी ऊर्जा खपत इतनी ज्यादा नहीं है कि उसे कम किया जाए। अगर ऐसा किया गया तो यह उसके औद्योगिक विकास के लिए घातक होगा। आँकड़े भी देते हैं भारत का साथ : रिपोर्टों के मुताबिक घरेलू बिजली और दूसरी मूलभूत आवश्यकताओं के लिए भारत की प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत 1 टन है, जबकि अमेरिका 24 और कनाडा में यह मात्रा 23 टन है। विश्व की कुल जनसंख्या का 18 फीसदी होने के बावजूद भारत में कार्बन का उत्सर्जन केवल चार फीसदी है, जबकि अमेरिका और चीन पूरे का 16-16 फीसदी उत्सर्जित करते हैं। क्या भारत को ऊर्जा उत्सर्जन की छूट : हालाँकि ऐसा नहीं है कि भारत ने खुद को बेतहाशा ऊर्जा उत्सर्जन की छूट दे दी है। उसने कहा है कि वह अपने स्तर पर कार्बन उत्सर्जन में पूरी कमी लाएगा, लेकिन किसी प्रतिबंध में नहीं बंधेगा। हालाँकि भारत भी जानता है कि अगर ऊर्जा खपत में कटौती नहीं की गई तो उसका हाल भी चीन की तरह होगा। चीन ने औद्योगिक विकास काफी तेजी से किया, लेकिन आज दुनियाभर में सबसे प्रदूषित देश भी वही है। भारत ने इससे सबक लेते हुए भारतीय राष्ट्रीय ऊर्जा मिशन भी शुरू किया है। इसके तहत 2020 तक 20 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य रखा गया है। इतना ही नहीं वायु प्रदूषण को देखते हुए उसने 2011 से देश के 11 बड़े शहरों में यूरो-4 मानक लागू करने का निर्णय लिया है। शेष शहर यूरो-3 मानकों का पालन करेंगे। बहरहाल कोपेनहेगन सम्मेलन सफल हो, यह समूची मानव जाति के लिए श्रेयस्कर होगा। उम्मीद की जाना चाहिए कि सभी देश इस पर राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए एकजुट होंगे।