जानिए नाग पूजा की पृष्ठभूमि...
नाग जाति का इतिहास भारत के प्राचीन गौरव का प्रतीक है। नागों का नाम उनकी नाग पूजा के कारण नहीं, अपितु नाग को अपना कुल देवता तथा रक्षक मानने के कारण हुआ है। वैदिक युग से ही नाग पूजा का प्रारंभ माना जाता है।
गृह यसूर्पा की नाग पूजा तथा प्राचीन कोल-मील आदि जातियों की नाग पूजा के स्वरूप में महान अंतर है। एक नाग देवताओं की पूजा है, जबकि दूसरी यथार्थ में सर्पों की पूजा है।
प्राचीन नाग जाति भारतीय आर्यों की ही एक शाखा थी। पौराणिक आधार पर कश्यप ऋषि नागों के पिता थे। बाद में नाग जाति एक बहुत बड़ा समुदाय बन गया।
पुराणों एवं नागवंशीय शिलालेखों के अनुसार 'भोगवती' नागों की राजधानी है। प्राचीन मगध में राजगृह के निकट भी नागों का केंद्र था। जरासंध पर्व के अंतर्गत उन स्थानों का भी उल्लेख मिलता है, जहां नाग लोग रहते थे। महाभारत काल में श्रीकृष्ण ने अर्जुन तथा भीम को नागों का जो केंद्र दिखाया था, उन स्थानों के नाम अर्बुद, शक्रवापी, स्वस्तिक तथा मणिनाग थे। नागराज कपिल मुनि का आश्रम गंगा के डेल्टा के निकट था। नागकन्या उपली के पिता नागराज कौरव्य की राजधानी गंगाद्वार या हरद्वार थी। (आदिपर्व अध्याय 206, श्लोक 13-17) भद्रवाह, जम्मू, कांगड़ा आदि पहाड़ी देशों में जो नाग राजाओं की मूर्तियां पाई जाती हैं, वे बहुधा प्राचीन हैं। यद्यपि यह बताना आज भी कठिन है कि वासुकी, तक्षक नाग या तरंतनाग, शेषनाग आदि नाग राजाओं की ये मूर्तियां वास्तविक प्रतीक हैं या स्थानीय व्यक्तियों ने उन्हें देवता मानकर उनकी मूर्तियों की स्थापना की। कितनी शताब्दियों से इनकी पूजा होती चली आ रही है, यह बता पाना भी प्राय: कठिन है।