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Written By स्मृति आदित्य

Sakshi Mishra : आखिर लड़कियां घर से भागती क्यों हैं?

Sakshi Mishra : आखिर लड़कियां घर से भागती क्यों हैं? - Sakshi Mishra
स्मृति आदित्य
 
सुना आपने? बरेली के भाजपा विधायक की बेटी साक्षी घर से भाग गई!!! कान खड़े हुए, आंखें चौड़ी हुई, मुंह खुला रह गया, खबरों पर मक्खियां टूट पड़ीं... क्या हम जानते हैं क्या होता है घर से बेटी का भाग जाना? क्या हमारे किसी करीबी के घर में कभी देखा-सुना है हमने बेटी को भागते हुए...क्या कोई पहली बार घर से भागी है? इससे पहले भी घर से भाग कर शादी हुई हैं, फिर आखिर साक्षी के मामले में इतना रस, इतना स्वाद, इतना चटखारा क्यों? 
 
यह किसी का नितांत व्यक्तिगत मामला है जिसे एक बार 'पब्लिक डोमेन' में ले जाओ तो फिर ऐसे मामलों की जो धज्जियां उड़ती हैं, उससे हम सभी अवगत हैं।
 
मान-मर्यादा, इज्जत, प्रतिष्ठा, सम्मान यह सिर्फ शब्द भर नहीं है, अपनी संपूर्ण अर्थवत्ता के साथ इन्हें हम,हमारा परिवार, हमारा समाज और हमारे रिश्ते जीते हैं, महसूस करते हैं.. लोकप्रियता मिल सकती है पर प्रतिष्ठा एक दिन में नहीं मिलती, और मिलती नहीं है उसे 'हासिल' करना होता है.. रत्ती-रत्ती देकर समाज में एक रूतबा हासिल किया जाता है... 
 
फिर पूरे परिवार की जवाबदेही होती है कि अपने पारिवारिक मूल्यों, नियमों और आदर्शों की परंपरा का निर्वहन करें लेकिन किसी एक की गलती, किसी एक की क्षणिक कमजोरी, वैचारिक दुर्बलता, गलत फैसले से जब इनमें बिखराव होता है तो कष्ट तो होता है।    
 
कई-कई स्तरों पर बहुत कुछ टूटता-बिखरता और किरचें-किरचें होता है जब किसी एक की गलती का खामियाजा कई-कई पीढ़ियां झेलती हैं। आप स्वतंत्र हैं। आपने निर्णय लिया तो फिर अपना कलेजा भी मजबूत रखिए। हर सुख, दुख, आपत्ति, विपत्ति झेलने के लिए तैयार रहिए.. ये कैसी गुहार कि पापा हमको अपना लीजिए.. काहे भाई, जब आप अपने 'पापा' की तकलीफों को अपना नहीं सकीं तो ये कैसी बचकानी पुकार है...? 
 
पहली बात तो हमें अपने परिवारों में झांकना होगा कि लड़कियां किन परिस्थितियों में घर से भागती हैं? 
 
कुछ कारण सहजता से सामने आएंगे, परिवार में संवाद का अभाव, प्रतिष्ठा के नाम पर अभिमान का अतिरेक, भय और आतंक का माहौल, फिल्मों के सुनहरे छलावे, नैतिक दृढ़ता का अभाव, अच्छा-बुरा समझने की क्षमता का अभाव, दुरगामी परिणामों से अनजान, क्षणिक भावावेश, आधुनिका होने का गुमान या दबाव, प्रेम के स्थान पर दैहिक आकर्षण की प्रबलता, परिवार में विसंगतियां.... यह सूची अंनत है ठीक उसी तरह जैसे घर से भागी हर लड़की की कहानी एक नहीं है और न एक हो सकती है पर हर पीड़ित 'परिवार' की कहानी लगभग एक सी ही है ... 
 
ऐसा कतई नहीं है कि घर से भागी हुई हर लड़की दुखी है पर यह सच है कि जिस घर से लड़की भागती है वहां कई पीढ़ियों तक दुख पसरा रहता है।
 
राखी पर बहन के हाथों से लगने वाला मंगल तिलक जब कलंक का टीका बनता है तो रिश्ते चटकते ही हैं.. लेकिन इसकी परिणति ऑनर कीलिंग में हो मैं इसकी भी हिमायती नहीं हूं। बात सिर्फ इतनी भर है कि लड़कियां घर में विश्वास अर्जित करें, और परिवार भी लड़कियों पर तनाव, दबाव, शासन करने के स्थान पर उनकी भावनाओं को समझें, कच्ची उम्र में कौन नहीं बहकता या भटकता लेकिन अनुशासन की परिधि और संस्कारों की सीमाएं पुन: सही-गलत का आभास करवा देती हैं। 
 
विधायक महोदय ने भी पैसे तो बच्ची पर खूब लुटाए पर संस्कारों का धन देने में पीछे रह गए... 
 
परिवार में इतनी दूरी क्यों कि मन की बात ही न कही जा सके। स्प्रिंग को जितना दबाया जाता है वह उतना जोर से उछलती है। दबाव की जगह हर मुद्दे, हर रिश्ते पर खुल कर बात करने की परंपरा आज भी घरों में क्यों नहीं पनपी?   
 
मैं भी इसी देश की बेटी हूं और जानती हूं कि यहां की नस-नस में कैसी सोच, मानसिकता और समझ है. .. लेकिन घर से भागने का फैसला एक लड़की कब लेती है?

तब जब उसे सिर्फ अपने आप पर और अपने प्यार पर भरोसा होता है, तब जब उसे अपने परिवार की प्रतिष्ठा और परिजनों की तकलीफों से कोई लेना देना नहीं होता, तब जब वह प्रेम के पाश में निहायत ही स्वार्थी हो जाती है। तब जब वह बिलकुल अकेली पड़ जाती है... 
 
लेकिन मैंने देखा है प्रतिष्ठित परिवारों के दबंग भाइयों को फूट-फूट कर रोते हुए...मैंने देखा है बहुत प्यार करने वाले पिताओं को अपनी ही जीवित बेटी का श्राद्ध करते हुए, मैंने देखा है जीवन भर अपने मायके से जुड़ने के लिए छटपटाती बहनों को टूटकर बिलखते हुए... 
 
मैं यह कतई नहीं कहती कि प्यार न करो, मैं तो यह भी नहीं कहती कि घर से मत भागो पर यह जरूर कहती हूं कि एक बार पीछे मुड़कर अपने रिश्तों के आंसुओं की कल्पना अवश्य करो... एक बार यह जरूर सोचों कि हमारी जिंदगी और कितनी जिंदगियों से जुड़ी हैं, उनके प्रति हम कौन सी जिम्मेदारी निभा रही हैं, नितांत व्यक्तिगत सुख पाने की यह कौन सी लालसा है जो हमें अपनों के प्रति लापरवाह बनाती हैं...  
 
फिर जब कदम उठा लिया तो फिर उठा लिया .. फिर परिवार के पास जाने की ललक क्यों? जब आप परिवार से दूर रह ही नहीं सकती तो दूर जाने का कदम उठाना कहां तक वाजिब था?

मैं प्यार की विरोधी नहीं, मैं किसी भी जाति के जीवनसाथी की भी विरोधी नहीं, मैं घर से जाकर शादी करने की भी विरोधी नहीं, पर मेरा विरोध है इस बात से कि अपने कदम के साथ परिवार को भी शामिल करने की जिद करना, मेरा विरोध इस बात से है कि पूरे समाज में परिवार की किरकिरी कराने के बाद कुतर्क रखना और यह अपेक्षा करना कि सब लोग सबकुछ भूल जाए... ऐसा नहीं हो सकता... एक्शन हुआ है तो रिएक्शन तो होगा... हर व्यक्ति की अपनी सोच, समझ, मान्यता और वैचारिकता है... मूल्य है.. उस पर बाध्यता आप नहीं बना सकती....   
 
साक्षी मिश्रा मामले में चैनल की 'गति' और एंकर अंजना ओम कश्यप की 'अति' ने मामले को इतना विकृत कर दिया है कि जितना अंजना लड़की के पक्ष में बहस उठाने की कोशिश कर रही हैं और उतनी ही दुगनी गति से लड़की को गालियां मिल रही है, जितना वे विधायक को विलेन बताने में पसीना बहा रही हैं उतना ही उनके पक्ष में बयार चल रही है... बिना जांच-पड़ताल और बिना मुद्दे को समझे हड़बड़ी में ऑनस्क्रीन किए इस एपिसोड का नतीजा यह हुआ है कि मीडिया भी गाली खा रहा है और कहानी के किरदार भी... 
 
वैसे एक कहानी है न कि एक चोर को जब सजा मिल रही थी तब उसने अपनी आखिरी इच्छा में अपनी मां से मिलना चाहा। मां जब आई तो उसने  मां के कान काट लिए, लोग हतप्रभ कि ऐसा क्यों? चोर बोला, अगर यह पहली बार मेरी चोरी पर मुझे टोकती तो आज मैं यहां नहीं होता, कुल जमा यही मामला है.. घर की स्त्रियां मुखर होतीं, अपनी राय रख पातीं, प रिवार के मूल्य समझाए गए होते, जीवन संघर्ष का मतलब बताया होता, उनमें आपसी स्वस्थ संवाद होता तो शायद साक्षी इस तरह के हथकंडे नहीं अपनाती...
 
वैसे यह भी विचारणीय है कि यह मामला पूरे देश की चिंता नहीं बन सकता है जबकि देश में बाढ़ से हालात बदतर हो रहे हो पर ना मैं मीडिया को समझा सकती हूं न अंजना को... ना ही साक्षी को.. पर बात तो होनी ही चाहिए कि आखिर लड़कियां घर से भागती क्यों हैं? 
वेबदुनिया फीचर डेस्क  
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