हाल ही में महामहिम उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और कानून मंत्री किरेन रिज़िजू तथा कुछ अन्य राजनेताओं ने उच्चतम न्यायालय के कॉलेजियम द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की कड़ी आलोचना की है। दरअसल, उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने 16 अक्टूबर, 2015 को संसद द्वारा निर्मित न्यायाधीशों की नियुक्ति विषयक राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 को संविधान सम्मत न मानते हुए 4-1 के बहुमत से निरस्त कर दिया था।
उक्त अधिनियम के प्राविधान जटिल, विलम्बकारी और प्रारम्भिक स्तर से ही चयन में काफ़ी कुछ सरकारी दखल वाले लगते हैं। किसी भी तरह कॉलेजियम से बेहतर नहीं है। इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि कॉलेजियम व्यवस्था में भी नियुक्ति का अन्तिम निर्णय सरकार का ही होता है। सरकार का दायित्व है कि वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता और गरिमा को बरकरार रखे।
व्यवस्था कोई भी हो, उसमें समय के साथ परिवर्तन, परिवर्धन और बेहतरी की गुंजाइश बनी रहती है। न्यायिक व्यवस्था इसका अपवाद नहीं है। न्यायाधीशों के चयन में ज़्यादा लोकतांत्रिकता और ज़्यादा पारदर्शिता की ज़रूरत है, ऐसा न्यायिक जगत और उसके बाहर भी महसूस किया जाता रहा है। राज्य सभा में 15 जुलाई, 2019 को भाजपा सदस्य अशोक बाजपेयी ने यह मुद्दा उठाते हुए कहा कि कॉलेजियम व्यवस्था में जातिवाद, परिवारवाद से से लेकर पेशेवर निकटता जैसे पहलुओं का बोलबाला रहता है। इसके फलस्वरूप सामान्य परिवार से क़ानून के क्षेत्र में आए लोगों के लिए उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनना अत्यन्त कठिन है।
उनका सुझाव था कि केन्द्रीय न्यायिक आयोग का गठन कर उसके माध्यम से न्यायाधीशों का चयन किया जाए। उनकी मांग से राजद के मनोज कुमार झा, सपा के रामगोपाल यादव आदि ने राज्य सभा में अपनी सहमति जताई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रंगनाथ पांडेय ने 2019 में अपनी सेवानिवृत्ति के ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र लिखा था कि वर्तमान व्यवस्था में परिवारवाद, जातिवाद और सम्पर्कों के आधार पर न्यायाधीशों की नियुक्ति होने से न्यायिक व्यवस्था में बदहाली और अयोग्यता बढ़ रही है।
न्यायाधीशों की नियुक्ति को लेकर वर्तमान में गतिरोध की स्थिति है। न्यायपालिका और सरकार की गरिमा बनी रहे और चयन में लोकतांत्रिक और पारदर्शी निर्णय हों, इसे देखते हुए मेरा सुझाव है कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का चयन अगर संघ लोकसेवा आयोग के माध्यम से किया जाए, तो यह ज़्यादा सरल, सहज, पारदर्शी और स्वीकार्य होगा। संघ लोकसेवा आयोग का ढांचा पहले से बना हुआ है। उसे उच्च प्रशासनिक, तकनीकी और विशिष्ट पदों के चयन का लम्बा अनुभव है। उसकी विश्वसनीयता भी है।
न्यायाधीशों के चयन में व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि उसमें न्यायिक जगत के अधिसंख्य लोगों को भाग लेने का खुला सुअवसर मिल सके। इस संबंध में उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय में न्यूनतम 10 वर्ष तक अधिवक्ता के रूप में कार्य कर चुके और न्यायिक सेवाओं में न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के पद पर दस वर्ष तक कार्य कर चुके अभ्यर्थियों को पात्रता की श्रेणी में रखा जाए। न्यूनतम आयु 45 वर्ष रखी जा सकती है जैसा कि वर्तमान में है।
उच्चतम न्यायालय की संस्तुति पर भारत सरकार पात्रता के सुझाव में यथावश्यक परिवर्तन कर सकती है। उच्चतम न्यायालय में सीधे चयन की प्रक्रिया को समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि ऐसे चयन में बहुत शिकवा-शिकायत होती रहती है। प्रारंभिक चयन उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में ही होना चाहिए।
लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यर्थियों का साक्षात्कार ऐसी समिति करे जिसमें अनुभवी और वरिष्ठ न्यायाधीशों का वर्चस्व रहे। इसके लिए साक्षात्कार समिति में उच्चतम न्यायालय के छह सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और संघ लोकसेवा आयोग के एक सदस्य को मनोनीत किया जा सकता है। इस व्यवस्था से न्यायाधीशों के चयन में अनुभवी और वरिष्ठ न्यायाधीशों की भूमिका क़रीब-क़रीब कोलिजियम जैसी बनी रहेगी।
न्यायाधीशों के चयन के बाद उनकी नियुक्ति, पदोन्नति और अन्य प्रशासकीय मामलों में कोलिजियम की भूमिका पूर्ववत बनी रहे। अगर ऐसा होता है, तो न्यायाधीशों के चयन में समान अवसर की भावना को बल मिलेगा, ज़्यादा पारदर्शिता और लोकतांत्रिकता आएगी और पिक एंड चूज़ के आरोपों से मुक्ति मिलेगी। यह लम्बे समय तक याद रखा जाने वाला महत्वपूर्ण सुधार होगा। बहरहाल, इस विषय में कोई भी निर्णय उच्चतम न्यायालय और भारत सरकार के हाथ में है। (यह लेखक के अपने विचार हैं)