भारत देश एक बहु-सांस्कृतिक परिदृश्य के साथ बना एक ऐसा राष्ट्र है जो दो महान नदी प्रणालियों, सिंधु तथा गंगा, की घाटियों में विकसित हुई सभ्यता है, यद्यपि हमारी संस्कृति हिमालय की वजह से अति विशिष्ट भौगोलीय क्षेत्र में अवस्थित, जटिल तथा बहुआयामी है, लेकिन किसी भी दृष्टि से अलग-थलग सभ्यता नहीं रही। भारतीय सभ्यता हमेशा से ही स्थिर न होकर विकासोन्मुख एवं गत्यात्मक रही है। भारत में स्थल और समुद्र के रास्ते व्यापारी और उपनिवेशी आए। अधिकांश प्राचीन समय से ही भारत कभी भी विश्व से अलग-थलग नहीं रहा।
इसके परिणामस्वरूप, भारत में विविध संस्कृति वाली सभ्यता विकसित होगी जो प्राचीन भारत से आधुनिक भारत तक की अमूर्त कला और सांस्कृतिक परंपराओं से सहज ही परिलक्षित होता है, चाहे वह गंधर्व कला विद्यालय का बौद्ध नृत्य, जो यूनानियों के द्वारा प्रभावित हुआ था, हो या उत्तरी एवं दक्षिणी भारत के मंदिरों में विद्यमान अमूर्त सांस्कृतिक विरासत हो। भारत का इतिहास पांच हजार से अधिक वर्षों को अपने सांस्कृतिक खंड में समेटे हुए अनेक सभ्यताओं के पोषक के रूप में विश्व के अध्ययन के लिए उपस्थित है। यहां के निवासी और उनकी जीवनशैलियां, उनके नृत्य और संगीत शैलियां, कला और हस्तकला जैसे अन्य अनेक तत्व भारतीय संस्कृति और विरासत के विभिन्न वर्ण हैं, जो देश की राष्ट्रीयता का सच्चा चित्र प्रस्तुत करते हैं।
डॉ. एएल बाशम ने अपने लेख 'भारत का सांस्कृतिक इतिहास' में यह उल्लेख किया है, जबकि सभ्यता के चार मुख्य उद्गम केंद्र पूर्व से पश्चिम की ओर बढ़ने पर, चीन, भारत, फर्टाइल क्रीसेंट तथा भूमध्य सागरीय प्रदेश, विशेषकर यूनान और रोम हैं, भारत को इसका सर्वाधिक श्रेय जाता है, क्योंकि इसने एशिया महादेश के अधिकांश प्रदेशों के सांस्कृतिक जीवन पर अपना गहरा प्रभाव डाला है। इसने प्रत्यक्ष ओर अप्रत्यक्ष रूप से विश्व के अन्य भागों पर भी अपनी संस्कृति की गहरी छाप छोड़ी है। संस्कृति से अर्थ होता है कि किसी समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र रूप जैसे जो उस समाज के सोचने, विचारने, कार्य करने, खाने-पीने, बोलने, नृत्य, गायन, साहित्य, कला, वास्तु आदि में परिलक्षित होती है।
‘संस्कृति’ शब्द संस्कृत भाषा की धातु ‘कृ’ (करना) से बना है। इस धातु से तीन शब्द बनते हैं ‘प्रकृति’ (मूल स्थिति), ‘संस्कृति’ (परिष्कृत स्थिति) और ‘विकृति’ (अवनति स्थिति)। जब ‘प्रकृत’ या कच्चा माल परिष्कृत किया जाता है तो यह संस्कृत हो जाता है और जब यह बिगड़ जाता है तो ‘विकृत’ हो जाता है। अंग्रेजी में संस्कृति के लिए 'कल्चर' शब्द प्रयोग किया जाता है जो लैटिन भाषा के ‘कल्ट या कल्टस’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है जोतना, विकसित करना या परिष्कृत करना और पूजा करना। संक्षेप में, किसी वस्तु को यहां तक संस्कारित और परिष्कृत करना कि इसका अंतिम उत्पाद हमारी प्रशंसा और सम्मान प्राप्त कर सके। यह ठीक उसी तरह है जैसे संस्कृत भाषा का शब्द ‘संस्कृति’।
संस्कृति का शब्दार्थ है- उत्तम या सुधरी हुई स्थिति। मनुष्य स्वभावतः प्रगतिशील प्राणी है। यह बुद्धि के प्रयोग से अपने चारों ओर की प्राकृतिक परिस्थिति को निरन्तर सुधारता और उन्नत करता रहता है। ऐसी प्रत्येक जीवन-पद्धति, रीति-रिवाज रहन-सहन आचार-विचार नवीन अनुसंधान और आविष्कार, जिससे मनुष्य पशुओं और जंगलियों के दर्जे से ऊंचा उठता है तथा सभ्य बनता है, सभ्यता और संस्कृति का अंग है। सभ्यता (Civilization) से मनुष्य के भौतिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है जबकि संस्कृति (Culture) से मानसिक क्षेत्र की प्रगति सूचित होती है।
भारतीय संस्कृति अपनी विशाल भौगोलिक स्थिति के समान अलग-अलग है। यहां के लोग अलग-अलग भाषाएं बोलते हैं, अलग-अलग तरह के कपड़े पहनते हैं, भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं, अलग-अलग भोजन करते हैं किन्तु उनका स्वभाव एक जैसा होता है। तो चाहे यह कोई खुशी का अवसर हो या कोई दुख का क्षण, लोग पूरे दिल से इसमें भाग लेते हैं, एक साथ खुशी या दर्द का अनुभव करते हैं। एक त्यौहार या एक आयोजन किसी घर या परिवार के लिए सीमित नहीं है। पूरा समुदाय या आस-पड़ोसी एक अवसर पर खुशियां मनाने में शामिल होता है, इसी प्रकार एक भारतीय विवाह मेलजोल का आयोजन है, जिसमें न केवल वर और वधु, बल्कि दो परिवारों का भी संगम होता है। चाहे उनकी संस्कृति या धर्म का मामला हो। इसी प्रकार दुख में भी पड़ोसी और मित्र उस दर्द को कम करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
वर्तमान समय में भारत की वैश्विक छवि एक उभरते हुए और प्रगतिशील राष्ट्र की है। सच ही है, भारत में सभी क्षेत्रों में कई सीमाओं को हाल के वर्षों में पार किया है, जैसे कि वाणिज्य, प्रौद्योगिकी और विकास आदि, और इसके साथ ही उसने अपनी अन्य रचनात्मक बौद्धिकता को उपेक्षित भी नहीं किया है। हमारे राष्ट्र ने विश्व को विज्ञान दिया है, जिसका निरंतर अभ्यास भारत में अनंतकाल से किया जाता है। आयुर्वेद पूरी तरह से जड़ी-बूटियों और प्राकृतिक खरपतवार से बनी दवाओं का एक विशिष्ट रूप है जो दुनिया की किसी भी बीमारी का इलाज कर सकती है। आयुर्वेद का उल्लेख प्राचीन भारत के एक ग्रंथ रामायण में भी किया गया है। और आज भी दवाओं की पश्चिमी संकल्पना जब अपने चरम पर पहुंच गई है, ऐसे लोग हैं जो बहु प्रकार की विशेषताओं के लिए इलाज की वैकल्पिक विधियों की तलाश में हैं।
भारतीय नागरिकों की सुंदरता उनकी सहनशीलता, लेने और देने की भावना तथा उन संस्कृतियों के मिश्रण में निहित है जिसकी तुलना एक ऐसे उद्यान से की जा सकती है जहां कई रंगों और वर्णों के फूल है, जबकि उनका अपना अस्तित्व बना हुआ है और वे भारत रूपी उद्यान में भाईचारा और सुंदरता बिखेरते हैं। इन सब गुणों के बावजूद वर्तमान दौर में भारत में अपनी ही संस्कृति को विखंडित और विलोपित करने की कवायदें आरंभ हो चुकी हैं, जिसके दुष्परिणामस्वरूप भारत केवल एक ऐसा भूमि का टुकड़ा बच जाएगा जिसके सतही तल पर तो अधिकार हमारा होगा किन्तु मानसिक स्तर पर उस पर आधिपत्य पाश्चात्य के राष्ट्रों का होगा। इस विकराल समस्या को हमें भारत की सांस्कृतिक अखंडता पर मंडरा रहे खतरे के तौर पर स्वीकार करना चाहिए और उसके उपचार हेतु शीघ्रातिशीघ्र प्रयास प्रारंभ करना होगा।
सांस्कृतिक अखंडता को बनाए रखने के लिए प्राथमिक तौर पर हर भारतवंशी में राष्ट्रप्रेम की जागृति लाना होगी। 'पहले राष्ट्र' की मूलभावना को रगों में दौड़ने के लिए भारतीय भाषाओं को संरक्षित करना परम आवश्यक है। जब भारत आजाद होने वाला था उसके पहले 18 जुलाई 1947 को इंग्लैंड की संसद में 'भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947' पास हुआ, यदि उसे पड़ा जाए और उसके बाद लार्ड मैकाले और एटमी के संवादों की तरफ दृष्टि डाली जाए तो हमें यह ज्ञात होगा कि भारत को आजादी शर्तों और अनुबंध के आधार पर दी गई है, और एटमी के अनुसार तो भारत को अंग्रेजों से आज़ाद करके अंग्रेजियत का गुलाम बनाया गया है। हमें इसको तोड़कर भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देना होगा, बाजार पर जिस अंग्रेजियत का कब्ज़ा है उसे हटाकर भारतीयता का साम्राज्य स्थापित करना होगा। बच्चों के बस्ते से गायब हुई नैतिक शिक्षा की किताब भी भारत की सांस्कृतिक अखंडता को बचाने में अग्रणी थी, उसे वापस अनिवार्य शिक्षा की धारा में लाना होगा।
इसी के साथ हमें सांप्रदायिक सौहार्द की स्थापना करनी होगी, क्योंकि भारत में धर्म और जाति के नाम पर झगड़े तो उन हथियारों के व्यापारियों की कारस्तानी और मंशा है जिनका व्यापार ही हथियार बेचना है, जिनमें अमेरिका अग्रणी राष्ट्र है। हमें हमारे त्यौहारों पर भी चाइनीज भागीदारी को समाप्त करना होगा, आज हमारे त्योहारों की समझ हमसे ज्यादा चाइना की है क्योंकि वह एक व्यापारी देश है जो अपना माल विश्व के दूसरे बड़े बाजार के तौर पर स्थापित भारत में खपाना चाहता है। महात्मा गांधी ने आज़ादी के पहले विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन इसलिए ही चलाया था क्योंकि हम ही हमारी गाढ़ी कमाई से हमारी सांस्कृतिक हत्या के लिए साधन जुटाने हेतु उन्हें पोषित करते हैं। इन्ही सब महत्वपूर्ण उपायों से भारत की सांस्कृतिक विरासत को बचाया जा सकता है वरना हमारे पास शेष हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ न बचेगा, जब राष्ट्र ही नहीं बचेगा।