मौत के भय की समाप्ति या व्यवस्था के प्रति तिरस्कार!
कोरोना प्रभावितों की संख्या ग्यारह लाख को पार कर गई है! हमें डराया जा रहा है कि दस अगस्त के पहले ही आंकड़ा बीस लाख को लांघ सकता है। यानी हम इस मामले में शीघ्र ही दुनिया में ‘नम्बर वन’ हो जाएंगे। देश में सामुदायिक विकास अभी भी एक अधूरा सपना है पर कहा जा रहा है कि कोरोना का सामुदायिक संक्रमण फैल चुका है।
इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने चिंता ज़ाहिर की है कि हालात बहुत ही ख़राब हैं। संक्रमितों की तादाद तो लगातार बढ़ रही है पर ज़्यादा आश्चर्य यह है कि असंक्रमितों की निश्चिंतता पर इसका कोई असर दिखाई नहीं दे रहा है। लोगों को यह भी याद नहीं है कि कोरोना के सिलसिले में प्रधानमंत्री ने देश को आख़िरी बार कितनी तारीख़ को कितने बजे सम्बोधित किया था और क्या कहा था! मोदी ने हाल ही में इस सिलसिले में जो कुछ कहा उसे ज़रूर याद किया जा सकता है।
प्रधानमंत्री ने यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद) के एक उच्च-स्तरीय सत्र को हाल के अपने वर्चुअल सम्बोधन में बताया कि 'भारत में कोरोना महामारी से लड़ने के लिए इसे एक जन आंदोलन बना दिया गया है, जिसमें सरकार की कोशिशों के साथ-साथ नागरिक समाज भी अपना योगदान दे रहा है।’
कोरोना से लड़ाई निश्चित ही एक जन आंदोलन इस मायने में तो बन ही गई है कि ‘व्यवस्था’ अब अपनी व्यवस्था की ज़िम्मेदारी लोगों की व्यवस्था के हवाले करती जा रही है। लोगों को वर्चुअली सिखाया जा रहा है कि वे अपनी इम्यूनिटी को बढ़ाकर कैसे महामारी को मात दे सकते हैं। हो सकता है आगे चलकर, रहवासी बस्तियों में ही छोटे-छोटे अस्पताल और क्वॉरंटाइन केंद्र स्थायी रूप से बनाने की योजना को भी लागू कर दिया जाए। कोरोना को मात देना जिंगल और गानों में बदला जा रहा है। इसे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ज़मीनी स्तर तक विकेंद्रीकरण भी कहा जा सकता है।
सरकारों और उन्हें चलाने वाली पार्टियों के पास वैसे भी कई और भी महत्वपूर्ण काम करने के लिए होते हैं! और फिर, दिन और रात मिलाकर पास में होते तो चौबीस घंटे ही हैं। इतने में ही महामारी से भी लड़ना है, सीमाओं की रक्षा भी करनी है, अर्थव्यवस्था भी सुधारनी है और चुनी हुई सरकारों को गिराने-बचाने का काम भी तत्परता से किया जाना है। इसलिए ज़रूरी है कि कम से कम एक काम में तो लोगों को आत्मनिर्भर होने को कह दिया जाए। इससे माना जा सकता है कि जब महामारी के लिए जनता सरकार का मुंह देखना बंद कर देती है तो उसके साथ लड़ाई एक जन आंदोलन बन जाती है।
हक़ीक़त यह है कि जितनी रफ़्तार से कोरोना बढ़ रहा है, लोगों का अनुशासन भी उतनी ही तेज़ी से फूटकर सड़कों पर रिस रहा है। यह भी कह सकते हैं कि लोग बैठे-बैठे बुरी तरह थक गए हैं। ऐसा इसलिए है कि कोरोना जैसी वैश्विक महामारी से लड़ना और वह भी किसी वैक्सीन के अभाव में जिस तरह के अनुशासन की मांग करता है उसके लिए एक राष्ट्रीय कर्तव्य के रूप में लोगों को कभी तैयार ही नहीं किया गया। समुद्र तटों पर बसने वाले मछुआरे जन्म-घूंटी के साथ ही तूफ़ानों से लड़ने के लिए दीक्षित होते रहते हैं। अधिकांश जनता को तो केवल नारे लगाने वाली भीड़ की तरह ही प्रशिक्षित किया जाता रहा है।
थाईलैंड के बहादुर बच्चों की कहानी हमारी राजनीतिक तबियत से मेल नहीं खाती। उसे भूल-सा भी गए हैं हम। ग्यारह से सोलह साल के बारह फ़ुट्बॉल खिलाड़ी बच्चे अपने पच्चीस-वर्षीय कोच के साथ दो साल पहले 23 जून को थाईलैंड की थाम लुआंग गुफा में तीन सप्ताह के लिए फंस गए थे। दो किलो मीटर लम्बी और आठ सौ मीटर से ज़्यादा गहरी अंधेरी घुप्प गुफा में जहां जगह-जगह पानी भरा हुआ था ये बच्चे बिना किसी आहार के केवल अपनी उस इम्यूनिटी की ताक़त के बल पर बचे रहे जो प्रार्थनाओं के अनुशासन के ज़रिए उनकी सांसों में उनके कोच के द्वारा भरी गई थी। कहानी सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि बच्चे जो गुफा के अंदर थे सुरक्षित बचा लिए गए! कहानी यह है कि बच्चे जब गुफा में क़ैद थे, उनका पूरा देश बाहर उनके लिए प्रार्थनाएं कर रहा था। क्या हमारे यहां ऐसा हो रहा है?
आत्मनिर्भर बनाए जा रहे देश के लोग इस समय बड़ी संख्या में कोरोना की अंधेरी गुफा में प्रवेश करते जा रहे हैं, पर उन्हें कोई प्रशिक्षण नहीं है कि प्रार्थनाएं और अनुशासन क्या होता है! जो पीड़ित हैं उनके लिए तो प्रार्थनाएं उनके परिजनों के साथ-साथ वे लोग कर रहे हैं जो खुद की जान को जोखिम में डालकर उनकी चिकित्सा-सेवा में जुटे हुए हैं। पर जिन्हें जगह-जगह धक्के खाने के बाद भी उचित इलाज नसीब नहीं हो पा रहा है और जिनकी मौतें हो रही हैं उनकी कहानियां भी अब हज़ारों में हैं। हो यह भी रहा है कि कोरोना-पीड़ित जब विजेता बनकर अपने घर की तरफ़ लौटता है, तो आसपास के घरों के दरवाज़े बंद कर लिए जाते हैं। कोरोना से लड़ाई में इस समय कोच कौन है, देश को उसका भी पता नहीं है। पहले पता था।
महामारी न तो पार्टियों की कम-ज़्यादा सदस्य संख्या और न ही उनके झंडों के रंग देखकर हमला कर रही है। सवाल यह है कि कोरोना की जब मार्च में शुरुआत हुई थी और प्रतिदिन केवल सौ सैम्पलों की जांच होती थी तब में और आज जबकि साढ़े तीन लाख से अधिक सैम्पलों की जांच रोज़ाना हो रही है, हमारे और व्यवस्था के नागरिकत्व में कितना फ़र्क़ आया है? हम देख रहे हैं कि बढ़ती जांचों के साथ-साथ मरीज़ भी बढ़ते जा रहे हैं और साथ ही संवेदनशून्यता भी।
हो सकता है वक्त के बीतने के साथ-साथ इनका बढ़ना हमारे सोच से काफ़ी बड़ा हो जाए। अतः चिंता कोरोना महामारी की नहीं उस संवेदनशून्यता की है जिसे पहले व्यवस्था ने जनता को हस्तांतरित कर दिया और अब वही अनुशासनहीनता के रूप में नागरिकों के स्तर पर व्यक्त हो रही है। जो गुफाओं में क़ैद हैं उनकी मज़बूरी तो समझी जा सकती है पर जो बाहर हैं वे भी अपने कोच को लेकर कोई सवाल अथवा पूछताछ नहीं कर रहे हैं। इस अवस्था को जीवन-मृत्यु के प्रति लोगों का निरपेक्ष भाव मान लिया जाए या फिर व्यवस्था का सामूहिक मौन तिरस्कार? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)