'मेरे अंदर के शहर में एक चांदनी चौक है, आपके पास भी एक चांदनी चौक होना चाहिए'
स्प्रिच्यूअल सुपर मार्केट और किसी अरण्य में बैठे अज्ञात साधक के बीच कई जोजन की दूरी है। एक तरफ साम्राज्य है तो दूसरी तरफ साधना, एकांत, मौन और अज्ञातवास। एक तरफ टारगेटेड वैश्विक बाजार है तो दूसरी तरफ भीतर की, घट की चेतना।
इन दोनों के बीच जो अंतर है उसे लाखों-िकरोड़ों लोगों ने समझने में भारी चूक कर डाली है। उन लाखों- करोड़ों को पता ही नहीं है कि कब उन्होंने अपनी चेतना और सत्य को पाने की कोशिश के बीच स्प्रिच्यूअल सुपर मार्केट का सामान और विचार बेचना शुरू कर दिया है। उन्हें भान ही नहीं है कि वे कब इस स्प्रिच्यूअल सुपर मार्केट के एक्जिक्विटिव बन गए हैं। इस दूरी ने असल आध्यात्म को गहरा आघात पहुंचाया है।
बहुत सारे अच्छे और बुरे काम जब हम अपनी दृष्टि से नहीं कर पाते हैं या नहीं करना चाहते हैं तो उसके लिए एक गुरू या एक ईश्वर को नियुक्त कर लेते हैं। इस तरह हम अपने जीवन से बरी हो जाते हैं।
मुझे ऐसा क्यों लगता है? दरअसल, हरेक दुनिया में दो तत्व और एक दृष्टि है। एक स्त्री, एक पुरुष। एक अंधेरा और दूसरा उजाला। एक सत्य और दूसरा असत्य। एक पाप और दूसरा पूण्य। दिन और रात। एक जीवन और दूसरा मृत्यु। -और अंत में हर जीवन में एक दृष्टि है, सिर्फ एक दृष्टि।
जो आपकी दृष्टि है वही आपका मार्ग है। शर्त है और सवाल भी कि आपकी दृष्टि कितनी भोली और ईमानदार है, जीवन के प्रति कितनी सजग और चैतन्य है और कितनी साफ है। अंत में यही दृष्टि भाव है।
दरअसल यह प्रैक्टिस आपको एक पवित्र और शुद्ध दृष्टिकोण या भाव की तरफ पहुंचाती है, जो रेअर तो है ही लेकिन, आउटडेटेड और इस काल-खंड में विफल भी है। ऐसे में फिर आपको दृष्टि की तरफ ही जाना होगा, अपनी तरफ लौटना होगा, जो आपको बताएगा कि हर दुनिया और जीवन में दो तत्व है, इन दो में से आपको किस एक तत्व को चुनना है। फिर सवाल है कि यह दृष्टि कहां मिलेगी। चाइना मार्केट में या दिल्ली के सरोजनी नगर या लाजपत नगर में। या किसी सस्ते बाजार की सेल में।
मुझे लगता है आपके भीतर के शहर में भी एक ‘चांदनी चौक’ होगा, जहां आपकी दृष्टि का आलोक खिलता- बिखरता होगा। सबके अपने- अपने चांदनी चौक होते हैं अपने घट के भीतर। इसलिए आप ही भक्त हैं और आप ही गुरू भी। आप ही चेले हैं और आप ही महाराज भी। दूसरा न कोई।
आपके घट में आपको आपकी चेतना और दृष्टि सबसे सस्ते दाम में मिलेगी, हो सकता है इस दुनिया में आपको उसकी बहुत बड़ी कीमत चुकाना पड़े।
मेरे भीतर एक ‘चांदनी चौक’ है, जहां छोटी-छोटी लाइटें बुदबुाती रहती है, इसलिए मुझे लगता है कि मैं निगुरा ही मरुंगा। निगुरा अर्थात बगैर गुरू का। गुरू रहित। ईश्वरहीन।
कभी-कभी मुझे लगता है कि अपुनईच भगवान है। हा हा… (यह सचमूच की हंसी नहीं है, जैसे रामलीला में रावण हंसता है, यह वो अट्टहास है या फिर नाटक का कोई पात्र हँसता है वो, या आनंद फिल्म का राजेश खन्ना जब जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ में है जहांपनाह बोलकर हा हा करता है ये वही हंसी है )
यह लेख मेरी निजी आस्था को ठेस पहुंचाने वाला है, लेकिन मैं क्या करुं जीवन और मृत्यू के बीच खोज तो जारी रहेगी ही।
इसलिए जाओ पहले उस आदमी का साइन लेकर आओ, जिसने मेरे हाथ में यह लिख दिया था। इतना ही यथेष्ट है,
(
नोट: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है। वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।