अमिताभ होना और उसे इतने वर्षों तक सतत निभाना एक अद्भुत घटना है तथा सिनेप्रेमियों ने इतने वर्षों तक विविध रूपों तथा भूमिकाओं में उन्हें जिस प्रकार हाथोंं हाथ स्वीकारा, वह गुण उन्हें अन्य कलाकारों की जमात से पृथक करता है।
बच्चन जब सिने इंडस्ट्री में अपनी वास्तविक पहचान या यूं कहें कि अपनी जमीन तलाश रहे थे तब 70 के दशक का सिनेमा राजेश खन्ना के प्रभाव में उत्तरोत्तर प्रगति पर था। राजेश खन्ना न सिर्फ युवा दिलों की धड़कन बने हुए थे वरन 'आनंद' जैसी गंभीर फिल्म के माध्यम से प्रौढ़ आयु वर्ग पर भी अपना प्रभाव जमाए हुए थे।
अचानक 1973 में आई फिल्म 'जंजीर' ने संपूर्ण भारतवर्ष का ध्यान अपनी ओर खींचा। अमिताभ ने 'जंजीर' में एक आक्रोशित पुलिस अफसर के चरित्र को जिस प्रकार से निभाया तो ऐसा लगा कि वे तमाम लोगों की दबी-छुपी आंकाक्षाओं को पर्दे पर उकेर रहे हों।
उस दौर में अमिताभ का रुपहले पर्दे पर आना सिनेमाघरों में एक रोमांच भर देता था। दीवानों ने उनकी हर अदा को सराहा तथा अमिताभ ने अपनी तमाम अभिनय क्षमताओं का भरपूर दोहन करते हुए लोगों को ऊर्जावान बनाए रखा।
अमिताभ के समय सदैव ही अन्य स्थापित अभिनेताओं का भी अपना महत्व रहा। विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, शशि कपूर, धर्मेन्द्र, जितेन्द्र ऐसे नाम थे, जो उस समय अपना महत्व रखते थे। पर इन सभी में एक बात समान थी और वह यह कि ये सब मिलकर भी अमिताभ नहीं थे। अमिताभ की शारीरिक लंबाई ने रुपहले पर्दे पर उन्हें जो ऊंचाई दिलवाई, वह किसी के बूते की बात नहीं है।
उस दौर में मनमोहन देसाई, प्रकाश मेहरा जैसे निर्देशकों की फिल्में लगातार आती रहीं तथा बच्चन अपने कद से भी ऊंचे होते गए। अमिताभ ने अपनी सितारा छवि को इस प्रकार गढ़ा कि लोग उनके व्यक्तित्व की आभा में खोते चले गए। युवा उनमें अपने आपको तलाशने लगे तथा उनकी आवाज जादू के समान लोगों के मस्तिष्क पर राज करने लगी।
अमिताभ ने कूली की शुटिंग के दौरान एक हादसे में अपना जीवन खतरे में डाला तथा सारे देश में उनके चाहने वाले स्तब्ध रह गए। मंदिर, गिरजाघर, मस्जिद, गुरुद्वारे सभी जगह हो रहीं अलग-अलग प्रार्थनाओं में एक मूल बात समान थी और वह थी- बच्चन का स्वास्थ्य।
राजनीति में जाना शायद उनके तमाम उज्ज्वल करियर की इकलौती बड़ी भूल थी। राजनीति उन्हें रास नहीं आई तथा 2-3 वर्षों में ही उनके प्रशंसकों ने यह जता दिया कि उनका स्थान या यूं कहे सिंहासन उनके बिना अभी भी रिक्त है। वे लौटे और फिर जनता का प्यार प्राप्त किया।
बच्चन के जीवन में भी उतार-चढ़ाव आते रहे। उनकी इस दूसरी पारी में जब उनकी कुछ फिल्में पिटीं तो लगा कि यह तिलिस्म अब टूट रहा है, पर ऐसा कुछ नहीं था। बच्चन ने सभी को चौंकाते हुए 'कौन बनेगा करोड़पति' से वापसी की और टीवी प्रस्तुतकर्ता के रूप में छोटे पर्दे को रजत पटल बना दिया।
इस टीवी शो में एक सुपर सितारा आम आदमी से जिस सौहार्द और आत्मीयता से मुखातिब हुआ कि जनता फिर मोहपाश में उलझ गई। आम आदमी ने 'करोड़पति' में बच्चन की नई छवि को देखा। लोगों को लगा कि जिस रहस्यमय व्यक्तित्व को वे 70 एमएम पर्दे पर कभी नहीं समझ पाए, आज वह उनके बेहद समीप आ गया है। उनका प्रश्न पूछने का अंदाज, प्रतिभागी को देखना, स्वयं की तारीफ पर शर्माना लोगों को भीतर तक आंदोलित कर गया।
'करोड़पति' की समाप्ति के पश्चात कहना चाहिए कि बच्चन ने फिल्मों में अपनी तीसरी पारी शुरू की। इसके बाद नए ऊर्जावान निर्देशकों के साथ उन्होंने कुछ ऐसी फिल्में दीं कि जनता दंग रह गई। ब्लैक, खाकी, अक्स, सरकार तथा नि:शब्द में उनके निभाए किरदार जीवित हो उठे। अनेक फिल्म समीक्षक तथा बच्चन के धुर-विरोधी भी दबी जुबान में यह स्वीकारते हैं कि बच्चन ने नवोदित दिग्दर्शकों के साथ जो फिल्में कीं, उनमें वे बेमिसाल रहे हैं।
धर्मेन्द्र ने कभी अपने साक्षात्कार में कहा था कि 'बच्चन की बराबरी किसी से नहीं है, वे गुरुत्वाकर्षण से ऊपर उठ चुके हैं।'
शायद यह बात सही भी है कि जिस प्रकार की सफलता उन्होंने प्राप्त की है, जो शिखर उन्होंने छुआ है उसके बावजूद उनकी सादगी, विनम्रता, मिलनसारिता और सबसे महत्वपूर्ण लोगों का सम्मान करने का गुण उन्हें असल जिंदगी का सुपर स्टार सिद्ध करता है।
रुपहले पर्दे पर लगातार तथा अनवरत शासन करने के बाद उन्होंने छोटे पर्दे पर भी अपना जादू कायम रखा है। कुल मिलाकर सार यह है कि बच्चन की कोई तुलना नहीं है। यदि उनकी किसी के साथ प्रतिस्पर्धा है तो स्वयं के साथ... बाकी दूर-दूर तक स्थान अभी रिक्त ही है।