जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर
महावीर : जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर
जो मोह माया मान मत्सर, मदन मर्दन वीर है।
जो विपुल विघ्नों बीच में भी, ध्यान धारण धीर है॥
जो तरण-तारण भव निवारण, भव जलधि के तीर है।
वे वंदनीय जिनेश तीर्थंकर स्वयं महावीर है॥
भगवान महावीर जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर है। तीर्थंकर उन्हें कहते है, जिन्हें संसार-सागर से पार होने का मार्ग बताया तथा स्वयं पार हुए तीर्थंकर कहलाते है। तीर्थंकर महावीर ने जैन धर्म की स्थापना नहीं की, अपितु जैन धर्म अनादि काल से है।
भगवान महावीर से पहले जैन धर्म में 23 तीर्थंकर और हुए है, जिनमें भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे। भगवान महावीर 24वें तीर्थंकर होकर अंतिम तीर्थंकर है।
वे धर्म क्षेत्र के वीर, अतिवीर और महावीर थे, युद्घ क्षेत्र के नहीं, यु़द्घ क्षेत्र और धर्म क्षेत्र में बहुत बड़ा अंतर है। युद्घ क्षेत्र में शत्रु का नाश किया जाता है और धर्म क्षेत्र में शत्रुता का नाश किया जाता है। युद्घ क्षेत्र में पर को जीता जाता है और धर्म क्षेत्र में स्वयं को जीता जाता है। युद्घ क्षेत्र में पर को मारा जाता है।
आज से लगभग हजारों वर्ष पूर्व इसी भारत वर्ष में धन धान्य से परिपूर्ण विशाल कुंडलपुर (कुण्डग्राम) नामक अत्यंत मनोहर नगर था जिसके सुयोग्य शासक राजा सिद्घार्थ थे। लिच्छवी वंश के प्रसिद्घ क्षत्रिय राजा थे। उनकी रानी का नाम त्रिशला था, जो राजा चेतक की सबसे बड़ी पुत्री थी। राजा सिद्घार्थ को रानी त्रिशाला अत्याधिक प्रिय होने के कारण वे उन्हे 'प्रियकारणी' भी कहते थे।महारानी त्रिशला के गर्भ से ही भगवान महावीर का जन्म चैत्र शुल्क त्रयोदशी के दिन हुआ था। नित्य वृद्घिगत देख उनका सार्थक नाम 'वर्धमान' रखा गया। उनका जन्मोत्सव बड़े ही धूमधाम से इन्द्रों व देवों द्वारा मनाया गया। बालक वर्धमान जन्म से ही स्वस्थ, सुंदर एवं आकर्षक व्यक्तित्व और निर्भीक बालक थे। उनके पांच नाम प्रसिद्घ है। वर्धमान, वीर, अतिवीर, महावीर, सन्मति।एक बार एक हाथी मदोन्मत हो गया और गजशाला के स्तम्भों को तोड़कर नगर में विपलव मचाने लगा। राजकुमार वर्धमान को पता लगते ही उन्होंने वहां पहुंचकर अपनी शक्ति व युक्तियों से गजराज पर काबू पा लिया। इस वीरता को देख लोग तभी से उन्हें वीर नाम से पुकारने लगे।
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