महावीर की वाणी
अपने मन में न रखें प्रमाद
महावीर की वाणी है 'उठ्ठिये णो पमायए' - यानी क्षण भर भी प्रमाद न हो। प्रमाद का अर्थ है नैतिक मूल्यों को नकार देना, अपनों से अपने पराए हो जाना, सही-गलत को समझने का विवेक न होना। 'मैं' का संवेदन भी प्रमाद है जो दुख का कारण बनता है। प्रमाद में हम अपने आपकी पहचान औरों के नजरिए से करते हैं जबकि स्वयं द्वारा स्वयं को देखने का क्षण ही चरित्र की सही पहचान बनता है। चरित्र का सुरक्षा कवच अप्रमाद है, जहां जागती आंखों की पहरेदारी में बुराइयों की घुसपैठ संभव ही नहीं। बुराइयां दूब की तरह फैलती हैं मगर उनकी जड़ें गहरी नहीं होतीं, इसलिए उन्हें थोड़े से प्रयास से उखाड़ फेंका जा सकता है। ज्योंही स्वयं पर स्वयं का विश्वास एवं अपनी बुराइयों का बोध जागेगा, परत-दर-परत जमी बुराइयों एवं अपसंस्कारों में बदलाव आ जाएगा।