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Written By अनिल जैन
Last Updated : गुरुवार, 2 अप्रैल 2020 (13:56 IST)

नजरिया : ज्योतिरादित्य क्या अपनी दादी का इतिहास दोहरा सकेंगे?

नजरिया : ज्योतिरादित्य क्या अपनी दादी का इतिहास दोहरा सकेंगे? - Jyotiraditya Scindia
मध्य प्रदेश की राजनीति में इस समय करीब आधी सदी पुराने नाटक का दोबारा मंचन हो रहा है। इस नाटक के मुख्य किरदार ज्योतिरादित्य सिंधिया द्वारा पिछले छह महीने से रची जा रही इस नाटक की पटकथा भी करीब-करीब वैसी ही है, जैसी पिछली सदी के सातवें दशक में उनकी दादी और पूर्व ग्वालियर रियासत में महारानी रही विजयाराजे सिंधिया ने रची थी और मध्य प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर दिया था।
 
विजयाराजे उस समय कांग्रेस में हुआ करती थीं और मध्य प्रदेश में द्वारका प्रसाद (डीपी) मिश्र की अगुवाई में कांग्रेस की सरकार थी। युवक कांग्रेस के एक जलसे में भाषण करते हुए डीपी मिश्र ने पुराने राजे-रजवाड़ों को लेकर एक तीखा कटाक्ष कर दिया। जलसे में मौजूद विजयाराजे सिंधिया को वह कटाक्ष बुरी तरह चुभ गया। उन्होंने मिश्र को सबक सिखाने की ठानी और मिश्र से असंतुष्ट कांग्रेस विधायकों को गोलबंद करना शुरू किया।
 
किसी समय मिश्र के बेहद करीबी रहे गोविंद नारायण सिंह में मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पैदा की और उन्हें भी वे अपने पाले में ले लाने में सफल हो गईं। गोविंद नारायण सिंह भी विंध्य इलाके की रीवा रियासत से ताल्लुक रखते थे। उधर विधानसभा में विपक्ष भी पहली बार अच्छी खासी संख्या में मौजूद था। जनसंघ के 78 और सोशलिस्ट पार्टी 32 विधायक थे। इसके अलावा निर्दलीय और अन्य छोटे दलों के विधायकों को भी विजयाराजे ने साध लिया था।
 
जब कांग्रेस के 36 विधायक उनके साथ हो गए तो उन्होंने विधानसभा में डीपी मिश्र की सरकार को गिरा दिया। मिश्र की सरकार गिरने के बाद गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकार बनी। वह देश की पहली संविद सरकार थी। 
 
हालांकि यह अभी साफ नहीं है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया की बगावत से मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार का पतन हो जाएगा, लेकिन इस समय सूबे के राजनीतिक हालात कमोबेश पांच दशक पहले जैसे ही हैं। विधानसभा में सत्तापक्ष और विपक्ष के संख्याबल के लिहाज से भी और सत्तारूढ़ कांग्रेस की अंदरूनी कलह के मद्देनजर भी।
 
यही वजह रही कि पूरे पंद्रह साल तक विपक्ष में रहने के बाद 15 महीने पहले बेहद सूक्ष्म बहुमत के सहारे बनी कांग्रेस की सरकार को शुरू दिन से अल्पमत की सरकार करार देते हुए भाजपा के प्रादेशिक नेताओं ने उसकी विदाई का गीत गाना शुरू कर दिया था। खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी संकेत दे चुके थे कि लोकसभा चुनाव के बाद इस सरकार को जाना होगा।
 
हालांकि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपना 5 महीने पुराना विधानसभा चुनाव का प्रदर्शन भी नहीं दोहरा सकी और उसका पूरी तरह सफाया हो गया। इसके बावजूद भाजपा की ओर से न तो सरकार गिराने की कोशिश की गई और न ही उसके किसी नेता ने इस आशय का कोई बयान दिया। इसके बावजूद राजनीतिक हलकों में माना जाने लगा कि अब सूबे मे कांग्रेस की सरकार के दिन करीब आ गए हैं। हालांकि ऐसा कुछ नहीं हुआ। कुछ दिनों तक सूबे की राजनीति में सन्नाटा पसरा रहा, लेकिन ज्योतिरादित्य सिंधिया की राजनीतिक भाव-भंगिमाओं और उनके समर्थकों के आक्रामक तेवरों से यह सन्नाटा जल्द ही टूट गया। 
 
दरअसल सूबे का मुख्यमंत्री बनने की दौड़ मे पिछड़ जाने और फिर अप्रत्याशित रूप से लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद सिंधिया अपने आपको पार्टी में भूमिका विहीन महसूस कर रहे थे। हालांकि लोकसभा चुनाव से पहले ही उन्हें पार्टी का महासचिव बनाया जा चुका था।
 
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उन्हें महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशियों के चयन के लिए बनी छानबीन समिति का अध्यक्ष भी बनाया था, लेकिन सिंधिया इस जिम्मेदारी से संतुष्ट नहीं थे। वे अपने गृह प्रदेश में कांग्रेस संगठन का मुखिया और प्रकारांतर से राज्य में सत्ता का दूसरा केंद्र बनना चाहते थे। उन्हें लगता था कि सत्ता का दूसरा केंद्र बनकर ही वे राज्य में सत्ता का पहला केंद्र यानी मुख्यमंत्री बन सकते हैं।
 
सिंधिया की मुख्यमंत्री बनने की हसरत पुरानी है। विधानसभा चुनाव से पहले भी उनके समर्थकों की ओर से सिंधिया को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए पार्टी नेतृत्व पर दबाव बनाया गया था। हालांकि उनकी यह मांग नहीं मानी गई थी, लेकिन गुटीय संतुलन बनाने के मकसद से सिंधिया को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बना दिया गया था। लेकिन इसके बावजूद चुनाव प्रचार के दौरान कई इलाकों में सिंधिया को उनके समर्थकों ने भावी मुख्यमंत्री के रूप में ही पेश किया था।
 
सिंधिया खुद भी अपने को मुख्यमंत्री पद का दावेदार मानकर चल रहे थे और इसीलिए उन्होंने पार्टी के लिए मेहनत भी खूब की थी। लेकिन जिस तरह के नतीजे आए, उसके मद्देनजर कांग्रेस नेतृत्व ने अनुभव को तरजीह देते हुए कमलनाथ को मुख्यमंत्री बनाना उचित समझा। प्रदेश में कांग्रेस के सबसे कद्दावर नेता और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी सिंधिया को मुख्यमंत्री पद से दूर रखने और कमलनाथ की ताजपोशी कराने में वही भूमिका निभाई, जो भूमिका एक समय दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री बनवाने में कमलनाथ ने निभाई थी।
 
मुख्यमंत्री बनने के बाद भी कमलनाथ प्रदेश में पार्टी के अध्यक्ष बने रहे या यूं कहें कि उन्हें अध्यक्ष बनाकर रखा गया। वे चाहते थे कि नया अध्यक्ष ऐसा हो जो पूरी तरह उनके अनुकूल हो और सत्ता का दूसरा केंद्र बनने की कोशिश न करे। इस मामले में उन्हें दिग्विजय का भी साथ मिला। दोनों ने मिलकर ऐसी घेराबंदी की कि सिंधिया प्रदेश अध्यक्ष भी नहीं बन सके।
 
दूसरी ओर सिंधिया 'अभी नहीं तो कभी नहीं’ और 'करो या मरो’ के अंदाज में मैदान में थे। उनके समर्थक भी हर हाल में अपने नेता को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष और आगे चलकर मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते थे। इस सिलसिले में उनके समर्थक मंत्रियों और विधायकों ने जिस तरह के आक्रामक तेवर अपना रखे थे, वे अभूतपूर्व थे। 
 
कुछ महीने पहले सिंधिया के संसदीय क्षेत्र गुना-शिवपुरी में तो उनके समर्थकों ने बाकायदा बैनर लगा दिए थे, जिन पर लिखा था कि अगर एक सप्ताह के भीतर सिंधिया को प्रदेशाध्यक्ष घोषित नहीं किया गया तो मुख्यमंत्री कमलनाथ को गुना और शिवपुरी जिले में प्रवेश नहीं करने दिया जाएगा। ग्वालियर जिले की विधायक और राज्य की महिला एवं बाल विकास मंत्री इमरती देवी ने सार्वजनिक तौर कह दिया था, 'प्रदेश अध्यक्ष के पद पर हमें महाराज के अलावा कोई भी मंजूर नहीं होगा। किसी और को अध्यक्ष बनाया गया तो महाराज जो कदम उठाएंगे, उसमें हम महाराज के पीछे नहीं, बल्कि दो कदम आगे रहेंगे।’
 
इस सिलसिले में सिंधिया समर्थक कुछ मंत्रियों ने तो सीधे-सीधे दिग्विजय सिंह के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया था। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर न सिर्फ दिग्विजय पर शराब व खनन माफिया को संरक्षण देने, ट्रांसफर-पोस्टिंग के धंधे में लिप्त रहने और मंत्रियों के साथ सुपर मुख्यमंत्री की तरह व्यवहार करने का भी आरोप लगाया।
 
अपेक्षा की जा रही थी कि मौका आने पर सिंधिया अपने समर्थक मंत्री के इन आरोपों से पल्ला झाड़ लेंगे, ऐसा नहीं हुआ बल्कि मीडिया के समक्ष उन्होंने दो टूक कह दिया कि आरोपों में कुछ तो सच्चाई है ही और जिन पर आरोप लगे हैं, उन्हें इस बारे में सफाई देनी चाहिए।
 
सिंधिया और उनके समर्थक मंत्रियों के इन तेवरों से न सिर्फ राज्य की राजनीति में सिंधिया परिवार और दिग्विजय की पुरानी अदावत खुलकर सामने आई, बल्कि इस बात का भी संकेत मिला कि सिंधिया इस बार आर-पार की लडाई के मूड में हैं। इस सिलसिले में उन्होंने छह महीने पहले भोपाल में अपने समर्थक मंत्रियों और विधायकों की भी एक बैठक बुलाई थी जिसमें चार मंत्रियों सहित 27 विधायक मौजूद थे। सिंधिया समर्थक एक मंत्री ने दावा किया था कि 109 सदस्यीय कांग्रेस विधायक दल में करीब 40 विधायक पूरी तरह सिंधिया के साथ हैं और वे आगे भी हर स्थिति में सिंधिया के साथ ही रहेंगे।
 
सिंधिया ने एक तरफ तो कमलनाथ और दिग्विजय के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था, वहीं दूसरी ओर वे भाजपा नेताओं से भी संपर्क बनाए हुए थे। इस सिलसिले में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के साथ उनकी मुलाकात की खबरें भी मीडिया में आई थीं। यही नहीं, जम्मू-कश्मीर में संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी किए जाने के केंद्र सरकार के फैसले का भी उन्होंने खुलकर समर्थन किया था, जो कि इस मामले में कांग्रेस की आधिकारिक लाइन के खिलाफ था। 
 
सिंधिया और उनके समर्थकों की इन्हीं गतिविधियों तेवरों के आधार पर कहा जा रहा था कि अगर प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए सिंधिया के दावे को अनदेखा किया गया तो वे अपने समर्थक विधायकों के कांग्रेस से अलग होकर कमलनाथ सरकार को गिरा देंगे। यह भी कयास लगाए जा रहे थे कि कांग्रेस से अलग होकर सिंधिया क्षेत्रीय पार्टी का गठन कर भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने का दावा कर सकते है।
 
गौरतलब है कि ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया ने भी 1996 के लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस से अलग होकर 'मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस’ का गठन किया था और उसी पार्टी से चुनाव लड़कर लोकसभा में पहुंचे थे। उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव ने उन सभी कांग्रेस नेताओं को टिकट देने से इनकार कर दिया था जिनके नाम जैन हवाला डायरी कांड में आए थे। माधवराव सिधिया भी टिकट से वंचित उन नेताओं में से एक थे।
 
बहरहाल, ज्योतिरादित्य सिंधिया अब तक अपने बारे में लग रही तमाम अटकलों को सही साबित करते हुए कांग्रेस से बाहर आ चुके हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात के बाद वे भाजपा में भी शामिल हो चुके हैं। भाजपा ने उन्हें मध्य प्रदेश से राज्यसभा का उम्मीदवार बनाया है और संभावना है कि उन्हें केंद्र में मंत्री भी बनाया जाएगा। लेकिन उनके इस कदम से मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरेगी या बचेगी, यह अभी तय नहीं है। 
 
फिलहाल सिंधिया के भाजपा में शामिल होने के संदर्भ में उनके परिवार की राजनीतिक पृष्ठभूमि का जिक्र करना लाजिमी होगा। सिंधिया घराने की जडें वैसे भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, जनसंघ और भाजपा से जुडी हुई हैं। सिंधिया राजघराने और संघ का तो देश की आजादी के पहले से ही एक विशिष्ट रिश्ता रहा है।
 
ज्योतिरादित्य की दादी विजयाराजे सिंधिया जरुर अपने राजनीतिक जीवन के शुरुआती वर्षों में कांग्रेस से जुडी रहीं, लेकिन वे भी कांग्रेस से अलग होने के बाद जनसंघ से ही जुडी और बाद में भाजपा के संस्थापक नेताओं में से एक रहीं। उनके पुत्र और ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया ने भी अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत जनसंघ से ही की थी और 1971 में पहली बार जनसंघ के टिकट पर ही चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचे थे। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)